प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय पर बहुत अध्ययन कर के एक पुस्तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्तक के अध्यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्तुत है पुस्तक की छठवीं किस्त। (संपादक)
अध्याय 6
श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनसंघ का निर्माणः सुविधा का गठजोड़ या दिलों का मिलन?
वर्ष 1947 में दीनदयाल उपाध्याय को संयुक्त प्रांत का सहप्रचारक बनाया गया। दत्तोपंत ठेंगडी बताते हैं:
‘‘..सन 1947 में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना हुई। उसकी ओर से राष्ट्रधर्म मासिक, ‘पांचजन्य’ साप्ताहिक तथा ‘स्वदेश‘ दैनिक प्रकाशित होते थे। पंडित जी अंतिम दो पत्रों के संपादक के रूप में काम करते थे। प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री नानाजी देशमुख थे। संपादन का कार्य सर्वश्री महावीर प्रसाद त्रिपाठी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, अटल बिहारी वाजपेयी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, तिलक सिंह परमार, यादवराव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी आदि ने क्रमशः संभाला था। इनके अतिरिक्त मनमोहन गुप्त, ज्वाला प्रसाद चतुर्वेदी, /प्रबंधक/, राधेश्याम कपूर /प्रकाशक/, पावगी, बजरंगशरण तिवारी /प्रेस व्यवस्थापक/ आदि कार्यकर्ता भी राष्ट्रधर्म परिवार में थे। इस परिवार के वत्सलकर्ता दीनदयाल जी थे।’’
/ पेज 5, तत्वजिज्ञासा, पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली 2016/
प्रस्तुत प्रकाशन के शुरू करने के पीछे मान्यता यही थी कि हिन्दुत्व राष्ट्रवाद का प्रचार प्रसार किया जाए। यह अलग बात है कि आज़ादी के बाद घटनाक्रम जिस कदर तेजी से घूम रहा था और जिस तरह इस आज़ादी के आंदोलन से बनायी गयी दूरी तथा गांधीहत्या में हिन्दुत्ववादियों की संलिप्तता आदि के चलते पूरे मुल्क में ऐसा वातावरण बन रहा था कि संघ के बीच जारी एक पुराना विवाद नए सिरे से उभरा।
एक हिन्दू वर्चस्ववादी नाथुराम गोडसे और उससे सम्बद्ध आतंकी मोडयूल द्वारा महात्मा गांधी की हत्या, जिसे इस विचारधारा के कई अग्रणियों ने मौन तथा सक्रिय समर्थन दिया था, और उसके बाद संघ तथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों पर लगी पाबन्दी, उनके कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी आदि के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए अब मुमकिन नहीं रहा था कि इस विवाद को दफना दे जिसका फोकस एक राजनीतिक मंच के निर्माण से था। इसी बहस की परिणति भारतीय जनसंघ के निर्माण में हुई जहां हिन्दू महासभा से निकले श्यामाप्रसाद मुखर्जी को इस नए राजनीतिक मंच का चेहरा बनाया गया।
आखिर कौन थे श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जो अचानक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए महत्वपूर्ण हो गए थे।
1890 में जन्मे श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपना राजनीतिक करियर 1929 में शुरू किया था और वह बंगाल लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य बने थे। उन्होंने वर्ष 1939 में हिन्दू महासभा की सदस्यता ग्रहण की ताकि भारत के हिन्दुओं के हितों की हिमायत की जा सके। वह सावरकर के करीबी सहयोगी थे। जब बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी एवं मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकार सत्ता में थी, वह विपक्ष के नेता थे। /1937-41/ बाद में उन्होंने फजलुल हक के नेतृत्व में बनी सरकार में वित्त मंत्री का पद संभाला और ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के झंझावाती दिनों में भी सत्ता संभाले रहे। यही वह वक्त था जब ब्रिटिशों की हुकूमत को चौतरफा जबरदस्त चुनौती मिल रही थी।
इतिहास गवाह है कि हिन्दू महासभा द्वारा मुस्लिम लीग के साथ सत्ता में साझेदारी का यह प्रयोग महज बंगाल तक सीमित नहीं था। वह सिंध तथा उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत तक भी फैला था और हिन्दू महासभा द्वारा सचेत ढंग से अपनायी गयी नीति का परिणाम था। मुखर्जी जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी नवस्वाधीन भारत की कैबिनेट में भी मंत्री पद सम्भाले थे और बाद में उन्होंने नीतिगत मसले पर इस्तीफा दिया था। कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद जब खुद श्यामाप्रसाद मुखर्जी नए दल के निर्माण के लिए प्रयासरत थे / तब तक उन्होंने हिन्दू महासभा से भी अलग होने का निर्णय लिया था, जिसके बहुत दिलचस्प कारण हैं, जिनकी हम आगे चर्चा करेंगे/ तब संघ के सुप्रीमो गोलवलकर के साथ उनकी वार्ताएं चली थीं और वहीं दल बनाने का निर्णय लिया गया था। इस नए दल के गठन के लिए संघ ने अपने कुछ वरिष्ठ प्रचारकों को उनकी सहायता के लिए भेजा। दीनदयाल उपाध्याय इनमें संघ की तरफ से सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।
इस पूरे सिलसिले पर निगाह डालते हुए ठेंगडी बताते हैं:
अधिवक्ता राजकुमार /लखनऊ/ की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश जनसंघ की स्थापना हुई। उस समय दीनदयाल जी को प्रदेश जनसंघ का काम सौंपा गया। उससे पूर्व 5 मई 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में कलकत्ता में ‘‘पीपुल्स पार्टी’’ की स्थापना हुई। 27 मई 1951 को विविध प्रांतों के कार्यकर्ताओं की दिल्ली में प्रारंभिक बैठक हुई। अखिल भारतीय दल की स्थापना का उसमें विचार हुआ। 20 से 22 अक्तूबर तक दिल्ली में अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित किया गया। उसका उद्घाटन राघोमल हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्रांगण में हुआ। 21 अक्तूबर को भारतीय जनसंघ की स्थापना की अधिकृत घोषणा की गयी। जनसंघ का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन दिसम्बर 1952 में कानपुर में हुआ।
/ पेज 6, तत्वजिज्ञासा, पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली 2016/
इस नए संगठन – जिसका नाम ‘‘भारतीय जनसंघ’’ रखा गया था – की जो प्रोविजनल कार्यकारी कमेटी बनी उसमें अध्यक्ष के तौर पर श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे, भाई महावीर और मौलीचन्द्र शर्मा /दोनों दिल्ली से/ महासचिव थे/ और उनकी सहायता के लिए पन्द्रह सदस्यीय टीम थी जिसमें दीनदयाल उपाध्याय / उत्तर प्रदेश/, बलराज मधोक/दिल्ली/ और अन्य राज्यों से तेरह सदस्य थे। (P 29, The immediate Origin of the Bharatiya Jan Sangh quoted in Hindu Nationalism and Indian Politics – The Origins and Development of Bharatiya Jana Sangh, B. D. Graham, Cambridge University Press, 1990)
यह विचारणीय मसला है कि हिन्दुत्व दक्षिणपंथ की इन दो धाराओं के साथ आने को कैसे देखा जाए? क्या यह महज ‘‘सुविधा का गठजोड़’’ था – क्योंकि मुखर्जी – जो तब तक एक लोकप्रिय चेहरा थे, आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री रह चुके थे – एक संगठन की तलाश में थे जो पार्टी बनाने के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करे और दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था, जिसे एक राजनीतिक प्लेटफार्म का निर्माण करना था तथा जो एक ‘‘‘चर्चित चेहरे’’ की तलाश में था या वह वास्तविक रूप में दिलों का मिलन था क्योंकि उनमें यह अहसास गहरा गया था कि विकसित होती परिस्थिति में उनके सामने यही बेहतर विकल्प है। गोलवलकर के दिशानिर्देशन में /संघ की तरफ से/ इस गठजोड़ को बनाने/मजबूत करने की चुनौती और पार्टी के लिए एक मजबूत आधार कायम करने की चुनौती दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक तथा संघ से सम्बद्ध उनके सहयोगियों के हाथ में थी। शायद इस विकसित होते गठजोड़ को लेकर क्रेग बॅक्स्टर की प्रतिक्रिया सबसे सटीक दिखती है:
‘‘यह बात बिल्कुल सही कही गयी है कि जनसंघ का निर्माण एक संगठनविहीन नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी और एक नेतृत्वहीन संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्मिलन से हुआ। (“It has been said with good reason that the Jana Sangh resulted from a combination of a partyless leader, Shyama Prasad Mookerjee, and a leaderless party, the RSS”, ”The Jana Sangh: A Biography of an Indian Political Party”, by Craig Baxter p. 54)
खुद संघ ने इस उदितमान संगठन को किस तरह देखा इसका अन्दाज़ा हम के आर मलकानी द्वारा ‘आर्गनायजर’ के पहले अंक में लिखे लेख में देख सकते हैं जो संघ पर पाबन्दी उठाए जाने के तत्काल बाद लिखा गया था:
‘कमल’ नाम से लिखते हुए के आर मलकानी ने लिखा था, ‘ धर्म को बचाने का एकमात्र तरीका यही है कि राजनीतिक पहिये को अपना कंधा देना। (The Jana Sangh: A Biography of an Indian Political Party by Craig Baxter p. 55, quoted in https://thewire.in/11626/a-relationship-that-goes-back-a-long-way/)
खुद गोलवलकर की इस के बारे में क्या समझदारी थी और पितृ संगठन के साथ उसके रिश्ते को लेकर वह क्या सोचते थे, इसे उन्होंने एक राजनीतिक प्रशिक्षण शिविर के दौरान स्पष्ट किया:
…बाद में सिंधी /वर्धा, महाराष्ट्र/ में तीन सौ प्रचारकों के लिए 9 मार्च से 16 मार्च तक राजनीतिक प्रशिक्षण हेतु शिविर का आयोजन किया गया /1954/ शिविर का मकसद था राष्ट्रीय स्तर पर संघ नेतृत्व को जनसंघ के मार्फत देश के कामकाज का संचालन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाए। संघ सुप्रीमो गोलवलकर ने जनसंघ के लिए अपनी दृष्टि को बयां करते हुए कहा:
‘‘मिसाल के तौर पर अगर हम सोचें कि हम एक संगठन का हिस्सा हैं और उसके अनुशासन को स्वीकारते हैं तब चुनाव का सवाल नहीं उठता। आपको जो बताया जाएगा वही करना होगा। अगर कबड्डी खेलने के लिए कहा जाएगा, कबड्डी खेलें; अगर मीटिंग करने के लिए कहा जाएगा तो मीटिंग करें… मिसाल के तौर पर हमारे कुछ दोस्तों को राजनीति करने के लिए कहा गया है इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें उसमें बहुत रूचि है या उसके लिए उन्हें प्रेरणा मिली है … अगर उन्हें कहा जाएगा कि राजनीति से हट जाएं तो भी कोई आपत्ति नहीं होगी। उनकी राय की कोई जरूरत नहीं होगी।’’
/ गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन खंड 3, भारतीय विचार साधना, नागपुर 1978, पेज 32, quoted in http://sacw.net/article865.html/
(जारी)