श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत ने हिन्‍दू महासभा के भीतर दो धाराओं की बहस को ही खत्‍म कर दिया

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प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्‍म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय पर बहुत अध्‍ययन कर के एक पुस्‍तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्‍तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्‍तक के अध्‍यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्‍तुत है पुस्‍तक की सातवीं किस्‍त। (संपादक)


अध्‍याय 7
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिन्‍दू महासभा क्यों छोड़ी?

 

हाल की घटनाओं ने प्रमाणित किया है कि कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने ऐसा व्यवहार किया है गोया वह हिन्‍दू महासभा या उसके जैसे साम्प्रदायिक संगठन के सदस्य हों। वाकई, कुछ लोगों ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया है और वह जनसंघ में शामिल हुए हैं। यह अपने आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि एक असली कांग्रेसी को चाहिए कि वह साम्प्रदायिक संगठनों से जितना अधिक दूर रह सकता है, रहे। हमारे कामों में और चुनावों में हमारे प्रमुख दुश्मन यही साम्प्रदायिक संगठन हैं। (Nehru, letter to PCC presidents, 19 September 1951, in Congress Bulletin, September 1951, p. 173.)

कांग्रेस बुलेटिन में 19 सितम्बर को जारी एक परिपत्र में उन्होंने ऐलान किया कि

..कांग्रेस के तरीके एवं साम्प्रदायिक तरीके में कोई भी समानता नहीं है। इसलिए कांग्रेस प्रत्याशियों को अतिरिक्त सावधानी के साथ चुनना होगा ताकि वे पूरी तरह कांग्रेस के गैरसाम्प्रदायिक चरित्र और तरीके की नुमाइन्दगी कर सकें। साम्प्रदायिक संगठनों से सम्बद्ध लोग इसलिए इस नज़रिये के तहत संदेह से देखे जाने चाहिए। यह अहम है क्योंकि विगत समय में कांग्रेस में साम्प्रदायिक तत्वों की थोड़ी घुसपैठ हुई है।

(Nehru, circular letter, 19 September 1951, in ibid., p. 176.)

विचारणीय मसला है कि आखिर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिन्‍दू महासभा से तौबा क्यों की और किस आधार पर उन्होंने संघ के साथ जुड़ कर राजनीतिक पार्टी बनाने का निर्णय लिया!

इसमें कोई सन्देह नहीं कि ब्रिटिश हुकूमत के प्रति रुख को लेकर हिन्‍दू महासभा का रुख संघ से गुणात्मक तौर पर भिन्न नहीं था। वह बात अब इतिहास हो चुकी है कि जब ब्रिटिश सरकार दूसरे विश्व युद्ध में उलझी थी और ‘भारत छोड़ो’ का कांग्रेस का आवाहन पूरे देश में गूंज रहा था, हजारों ऐसे लोग जो सरकारी नौकरियों में तैनात थे, यहां तक कि पुलिस एवं सेना में भी काम कर रहे थे, उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपना विरोध जताते हुए नौकरियां छोड़ी थीं; जबकि हिन्दुत्व के विचारों की हिमायती जमातों ने समझौतापरस्ती का रुख अख्तियार किया था। जहां संघ ने अपने आप को ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से अलग रखा था तथा अपने संगठन निर्माण पर केन्द्रित किया था / जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है / वहीं हिन्‍दू महासभा एवं उसके तत्कालीन अध्यक्ष सावरकर एक कदम आगे बढ़ कर ब्रिटिश सेना में भारतीय जवानों की भरती की मुहिम चला रहे थे। उनका आवाहन था ‘हिन्दुओं का सैन्यीकरण करो और राष्‍ट्र का हिन्दूकरण करो’ और इसी आवाहन के साथ वह पूरे देश के दौरे पर थे तथा इस तरह भारत में जनान्दोलनों की बढ़ती सरगर्मियों को कुचलने में ब्रिटिश हुकूमत का साथ दे रहे थे। ब्रिटिशों के साथ उनका सहयोग महज यहां तक सीमित नहीं था, हिन्‍दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ सत्ता में भी साझेदारी की थी। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है यह गठजोड़ महज बंगाल तक सीमित नहीं था, बल्कि सिंध एवं सीमा प्रांत तक फैला था और यह हिन्‍दू महासभा द्वारा अपनायी सचेत नीति का ही परिचायक था।

प्रोफेसर शमसुल इस्लाम, लम्बे अनुसंधान पर आधारित अपनी किताब ‘रिलीजियस डायमेन्शन्स आफ इंडियन नैशनेलिजम / मीडिया हाउस, दिल्ली 2006/ में बताते हैं कि किस तरह ‘‘हिन्‍दू महासभा और मुस्लिम लीग  ने सीमा प्रांत / उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत/ में भी साझा सरकार बनायी थी। वह बैक्स्टर को उद्धृत करते हैं:

सीमा प्रांत में, सरदार औरंगजेब खान ने मंत्रिमंडल बनाया जिसमें मुस्लिम लीग, सिख अकाली और महासभाइयों को साथ जोड़ा और डा खान साहिब की अगुआई में कांग्रेस को अस्थायी तौर पर विपक्ष में धकेल दिया। कैबिनेट में महासभा की तरफ से सदस्य थे वित्त मंत्री मेहर चंद खन्ना 

(Craig Baxter, The Jan Sangh : A Biography of an Indian Political Party, (Philadelphia : University of Pennysylvania Press, 1969, P. 20)

सत्ता में इस साझेदारी को सही ठहराते हुए सावरकर ने लिखा था:

.. व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें उचित समझौतों के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए। हम इस बात को देखें कि हाल ही में सिंध में, सिंध हिन्दू सभा ने मुस्लिम लीग के निमंत्रण पर खुद उसके साथ गठबंधन सरकार चलाने की जिम्मेदारी उठायी है। बंगाल की स्थिति तो सभी जानते हैं। उग्र लीगी / मुस्लिम लीग के लोग/ जिन्हें कभी खुद कांग्रेस अपनी दब्बूनीति के चलते संतुष्ट कर नहीं पायी वह जब हिन्दू महासभा के सम्पर्क में आए तो समझौते के लिए तैयार हुए और फिर एक गठबंधन सरकार – जिसकी अगुआई जनाब फजलुल हक कर रहे थे और हिन्दू महासभा के हमारे सम्मानित नेता डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी कर्णधारों में थे – एक साल से अधिक वक्त तक चलती रही जिस दौरान दोनों समुदाय लाभान्वित हुए। 

( V.D.Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya Hindu Rasthra Darshan ( Collected works of V.D.Savarkar) Vol VI, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p 479-480 मूल अंग्रेजी से लेखक द्वारा अनूदित)

हिन्‍दू महासभा के कानपुर में आयोजित चौबीसवें सत्र में सावरकर का भाषण उद्धृत करने लायक है जो ब्रिटिश हुकूमत के साथ हिन्‍दू महासभा के ‘रचनात्मक सहयोग’ की बात करता है।

हिन्दू महासभा मानती है कि सभी किस्म की व्यावहारिक राजनीति का अग्रणी सिद्धांत है जिम्मेदार सहयोग की नीति। और इसके तहत, वह मानती है कि वे सभी हिन्दू संगठनवादी जो कहीं कौन्सिलर, कहीं मंत्री, कहीं विधायक के तौर पर काम कर रहे हैं और नागरिक जीवन या अन्य सार्वजनिक कामों को संचालित कर रहे हैं ताकि शासकीय सत्ता के इन केन्द्रों का इस्तेमाल किया जा सके … वह हमारे देश के प्रति एक बहुत बड़ा देशभक्ति का काम कर रहे हैं। जिम्मेदार सहयोग की नीति जिसमें सभी किस्म की देशभक्तिपूर्ण गतिविधियां समाहित हैं – जिसमें बिना शर्त सहयोग से लेकर सक्रिय यहां तक हथियारबन्द प्रतिरोध भी शामिल है – भी वक़्त की जरूरतों, अपने पास के संसाधनों और हमारे राष्‍ट्रीय हितों के तकाज़ों के हिसाब से बदलती रहेगी। 

( V.D.Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya Hindu Rasthra Darshan ( Collected works of V.D.Savarkar) Vol VI, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p 474)

दरअसल सावरकर तो इस राय के थे कि 1942 में कांग्रेस पर पाबन्दी के साथ एवं सियासी मंज़र से उनके हटाए जाने के बाद

‘‘राजनीतिक दायरा अब खुला क्षेत्र बना है ..तथा जो भी कुछ ‘‘‘भारतीय राष्‍ट्रीय’’ गतिविधियां हो सकती हैं उन्हें संचालित करने के लिए अकेले हिन्‍दू महासभा ही बची है। 

/वही – पेज 475/

सावरकर के अनन्य सहयोगी होने के नाते श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जो बाद में खुद हिन्‍दू महासभा के अध्यक्ष बने /1944/, वह इन सभी निर्णयों में साझेदार थे और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उठे जनान्दोलनों को कुचलने को लेकर उन्हें कोई गुरेज नहीं था। अपनी किताब ‘हिस्टरी आफ माडर्न बंगाल’ में रमेश चन्द्र मजुमदार बंगाल गवर्नर को लिखे उनके खत का विवरण देते हैं जिसमें वह भारत छोड़ा आन्दोलन के खिलाफ कदमों के बारे में सुझाव देते दिखते हैं। उनके मुताबिक

श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने पत्र का अन्त कांग्रेस द्वारा संगठित जनान्दोलन की चर्चा के साथ किया। उन्होंने शंका प्रगट की कि यह जनान्दोलन आन्तरिक अव्यवस्था को जन्म देगा और युद्ध के दिनों में व्यापक जनमत को भड़का कर आन्तरिक सुरक्षा को खतरे में डाल देगा। उन्होंने यह राय भी प्रगट की कि ऐसी कोई भी सरकार जो सत्ता में है उसे इस आन्दोलन का दमन करना चाहिए, मगर उसे महज प्रताडना से नहीं किया जा सकता… इसी पत्र में उन्होंने परिस्थिति से निपटने के लिए विभिन्न कदमों की रूपरेखा भी रखी…।’’

(Ramesh Ch. Mazumdar, History of Modern Bengal, Part II, pp 350-351)

वह स्पष्ट तौर पर इस राय के थे कि

.. ऐसा कोई भी व्यक्ति जो युद्ध के दिनों में, जन भावनाओं को भड़काता है, जिसके आन्तरिक अशांति या असुरक्षा पैदा होती है, उसका उस वक्त सत्तासीन सरकार को विरोध करना चाहिए।’’

(Prabhu Bapu (2013). Hindu Mahasabha in Colonial North India, 1915–1930: Constructing Nation and History. Routledge. pp. 103–. ISBN 978-0-415-67165-1.)

उन्होंने ब्रिटिश सरकार से यह भी वायदा किया कि उनके नेतृत्‍व वाली सरकार हर मुमकिन कोशिश करेगी ताकि बंगाल में सर उठाए आन्दोलन को कुचला जा सके:

‘‘प्रश्न यह है कि किस तरह इस /भारत छोड़ो/ आन्दोलन से बंगाल में निपटा जाए? सूबे के प्रशासन को इस तरह चलाना होगा कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद, यह आन्दोलन इस सूबे में जड़ न जमा पाए। यह हमारे लिए मुमकिन होना चाहिए, खासकर जिम्मेदार मंत्रियों के लिए, कि जनता को बता सकें कि जिस आज़ादी के लिए कांग्रेस ने यह आन्दोलन शुरू किया है, वह जनता के प्रतिनिधियों के पास पहले से है। कुछ दायरों में आपातकाल में यह सीमित हो सकता है। भारतीयों को चाहिए कि वह ब्रिटिशों पर यकीन करें, ब्रिटेन के लिए नहीं, न ब्रिटिशों को कोई लाभ दिलाने के लिए नहीं, बल्कि सूबे की सुरक्षा और आज़ादी को बनाए रखने के लिए। गवर्नर होने के नाते आप सूबे के संवैधानिक प्रमुख के तौर पर काम करेंगे और पूरी तरह अपने मंत्रियों की सलाह से चलेंगे।

(Abdul Gafoor Abdul Majeed Noorani (2000), The RSS and the BJP: A Division of Labour, LeftWord Books, pp. 56–, ISBN 978-81-87496-13-7)

गौरतलब है कि देश के बंटवारे के हकी़कत बनने के बाद, मुखर्जी ने यह एहसास किया कि  /बहुसंख्यक/ समुदाय आधारित पार्टियां अपने असमावेशी रुख को छोड़ दें और समावेशी हो जाएं। अगर हम इस बात के विवरण में जाएं कि किन वजहों से श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिन्‍दू महासभा छोड़ी और संघ के समर्थन से उन्होंने जिस पार्टी का निर्माण किया, उसको लेकर उनकी भविष्य दृष्टि/विज़न क्या थी, तो हम कई दिलचस्प तथ्यों से रूबरू होते हैं, जिन पर पहले किसी ने ठीक से गौर नहीं किया है।

वर्ष 1944 में सावरकर द्वारा हिन्‍दू महासभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद अध्यक्ष बने मुखर्जी की यह मुकम्मल राय थी कि आज़ादी के बाद हिन्‍दू महासभा की सदस्यता को हिन्दुओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए।

/ स्टेटसमैन, 23 नवम्बर 1948, प्रेस विज्ञप्ति, कोलकाता, ” Hindu Nationalism and Indian Politics – The Origins and Development of Bharatiya Jana Sangh, B. D. Graham, Cambridge University Press, 1990  उद्धृत /

गांधी हत्या के बाद जब जनता का गुस्सा हिन्‍दू महासभा की दिशा में मुड़ा था तब फरवरी 1948 में उन्होंने कहा

यह मेरी सोची-समझी राय है कि हिन्‍दू महासभा के सामने आज दो विकल्प हैं। पहला है कि वह अपनी राजनीतिक गतिविधियों से तौबा करे और अपना ध्यान सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मामलों पर केन्द्रित करे, और उसके सदस्यों पर छोड़ दे कि वह कौन सी राजनीतिक पार्टी से जुड़ना चाहते हैं। दूसरा विकल्प है कि हिन्‍दू महासभा अपना साम्प्रदायिक रुख त्याग दे, अपनी नीति की दिशा मोड़ दे और अपने दरवाजे किसी भी नागरिक के लिए – धर्म की चिन्ता किए बिना – खोल दे, बशर्ते वह व्यक्ति उसका आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम स्वीकारे। 

(Mukherjee, Statement of 6 Feb 1948, Statesman, 7 th Feb 1948, pp. 1 and 7, quoted in Hindu Nationalism and Indian Politics – The Origins and Development of Bharatiya Jana Sangh, B. D. Graham, Cambridge University Press, 1990)

शुरुआत में यह लग रहा था कि हिन्दु महासभा अपनी समग्र नीति पर पुनर्विचार कर रही है और राजनीतिक गतिविधियों को स्थगित कर सामाजिक-सांस्कृतिक कामों पर केन्द्रित करने जा रही है मगर यह एक भ्रम साबित हुआ। महासभा की वर्किंग कमेटी की जो बैठक दिल्ली में /6-7 नवम्बर 1948/ को सम्पन्न हुई उसने न केवल राजनीतिक गतिविधियों को जारी रखने का निर्णय लिया तथा अपनी सदस्यता को हिन्दुओं तक सीमित रखने का भी तय किया। मुखर्जी ने 23 नवम्बर को इस कमेटी से इस्तीफा दिया और उनका इस्तीफा 26 दिसम्बर को सम्पन्न अखिल भारतीय कमेटी मीटिंग में मंजूर किया गया।

( Statesman ( Calcutta) 9 Nov 1948, 24 th Nov 1948 and 27 th December 1948, -do-)

और जिस तरह से उन्होंने इस्तीफे के वक्त़ अपनी पोजिशन स्पष्ट की उससे यह अधिक साफ हुआ कि स्वाधीन भारत में हिन्दुओं का अलग संगठन बनाने का कोई आधार नहीं है।

आज के भारत में 85 फीसदी से अधिक लोग हिन्दू हैं और अगर वह अपने आर्थिक तथा राजनीतिक हितों को या एक पूरी जनतांत्रिक संस्था के माध्यम से भारत के स्वाभाविक अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते तो कोई भी अलग राजनीतिक पार्टी जो अपनी सदस्यता को महज हिन्दुओं तक सीमित रखती है वह हिन्दुओं का या उनके मुल्क को बचा पाएगी।

दूसरी तरफ, अगर बहुसंख्यक समाज अपनी राजनीतिक विशिष्टता को बनाए रखता है तो तयशुदा बात है कि वह साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठनों की बढ़ोत्तरी को अनिवार्यतः बढ़ावा देगा जो देश के अन्दर अलग अलग अल्पसंख्यक समूहों के हितों की नुमाइन्दगी करेंगे जिसकी परिणति बेहद पूर्वाग्रहपूर्ण नतीजों में होंगी।

(Mukherjee, Press Statement, 23 Nov 1948, Statesman ( Calcutta) 24 th November 1948, P 7, -do-))

निश्चित ही यह ऐसे लफ्ज़ हैं जो हिन्दुत्व वर्चस्ववादी नज़रिये को रखनेवाले के लिए पूरी तरह आपत्तिजनक लग सकते हैं।

मुखर्जी की असामयिक मौत ने- जब वह जिस पार्टी का निर्माण करना चाह रहे थे वह अपनी शैशवावस्था में थी- संगठन निर्माण को लेकर मौजूद दो अलग-अलग रुखों के विवाद पर अचानक परदा डाल दिया, जिसमें एक का प्रतिनिधित्व मुखर्जी कर रहे थे तो दूसरे को जुबां संघ से आए वरिष्ठ प्रचारक दे रहे थे, जिनमें दीनदयाल उपाध्याय अग्रणी थे।

धारा 370 को लेकर विकसित हुई बहस हमें इस बात की झलक देती है कि किस तरह इन दोनों रुख में मतभिन्नताएं मौजूद थीं।


(जारी)

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