‘मुसलमान होने के बाद व्यक्ति देश का दुश्मन बन जाता है’- ऐसी थी ‘न्‍यू इंडिया’ के आइकन की सोच!

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प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार एवं न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से जुड़े हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताड़े ने हाल में संघ के विचारक और एकात्‍म मानववाद के प्रणेता कहे जाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय पर बहुत अध्‍ययन कर के एक पुस्‍तक लिखी है। नवनिर्मिति, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित इस पुस्‍तक का नाम है ”भाजपा के गांधी”। लेखक की सहर्ष सहमति से मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए इस पुस्‍तक के अध्‍यायों की एक श्रृंखला चला रहा है। इस कड़ी में प्रस्‍तुत है पुस्‍तक की ग्‍यारहवीं और अंतिम किस्‍त (संपादक)


अध्‍याय 11

उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में सहभागी न होना या उसका विरोध करने के अलावा हिन्दू मुस्लिम एकता पर दीनदयाल का नज़रिया बहुत समस्याग्रस्त दिखता है। दीनदयाल ने ऐसे लोगों को मुस्लिमपरस्त कह कर संबोधित किया तथा ‘एकता’ की कांग्रेस नीति की मुखालिफत की।

‘‘संघ के एक मुखपत्र ‘राष्ट्रधर्म ’ में प्रकाशित एक लेख में दावा किया गया है कि संघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ‘हिन्दू मुस्लिम एकता’ के खिलाफ थे और मानते थे कि एकता का मुददा ‘अप्रासंगिक’ है और मुसलमानों का तुष्टीकरण है। ‘मुस्लिम समस्या: दीनदयाल जी की दृष्टि में’ शीर्षक से उपरोक्त लेख राष्ट्रधर्म के विशेष संस्करण में प्रकाशित हुआ था जिसका विमोचन तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री कलराज मिश्र ने किया था। मासिक पत्रिका का उपरोक्त अंक उपाध्याय को समर्पित किया गया है और उसमें उनके बारे में तथा उनके नज़रिये के बारे में लेख है। इसमें प्रकाशित डा महेशचंद्र शर्मा का लेख, यह दावा करता है कि उपाध्याय ने कहा था कि ‘मुसलमान होने के बाद कोई व्यक्ति देश का दुश्मन बन जाता है।’ इनका संक्षिप्त परिचय यह है कि दीनदयाल उपाध्याय की 15 घंटों में संकलित रचनाओं का सम्पादन उन्होंने किया है और दीनदयाल उपाध्याय के चिन्तन के एक तरह से आधिकारिक विद्वान समझे जाते हैं। इसमें यह भी लिखा गया है

‘‘अगर देश का नियंत्राण उन लोगों के हाथ में है जो देश में पैदा हुए हैं मगर वह कुतुबुद्दीन, अल्लाउद्दीन, मुहम्मद तु्ग़लक, फिरोज शाह तुग़लक, शेरशाह, अकबर और औरंगजेब से अलग नहीं हैं, तो यह कहा जा सकता है कि उनके प्रेम के केन्द्र में भारतीय जीवन नहीं है।’’

/इंडियन एक्स्प्रेस/ http://indianexpress.com/article/cities/lucknow/article-in-rss-monthly-deendayal-upadhyaya-was-against-hindu-muslim-unity/

महेशचन्द शर्मा के मुताबिक दीनदयाल मानते थे कि एक मुसलमान व्यक्तिगत तौर पर अच्छा हो सकता है, मगर समूह में बुरा हो जाता है और एक हिन्दू व्यक्तिगत तौर पर बुरा हो, मगर समूह में अच्छा हो जाता है। वह यह भी स्पष्ट करते हैं कि हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करने वाले ‘मुस्लिमपरस्त’ होते हैं और उन्होंने कांग्रेस की ऐसी नीति का विरोध किया था।

(http://indianexpress.com/article/cities/lucknow/article-in-rss-monthly-deendayal-upadhyaya-was-against-hindu-muslim-unity/)

देश के अलग अलग हिस्सों से आ रही रिपोर्टें इस बात की ताईद करती है कि कितनी तेजी से पंडित दीनदयाल उपाध्याय को ‘‘नए भारत’’ के आयकन के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त कांडला बंदरगाह को दीनदयाल का नाम देने का निर्णय हो जाने की ख़बर आयी। यहां तक कि इस कवायद में विदेश मंत्रालय के भी ‘कूदने’ की ख़बर पिछले दिनों आयी जब 22 सितम्बर 2017 को, जन्मशती समारोह के समापन के चन्द रोज पहले उसने अंग्रेजी तथा हिन्दी में एक ईबुक अपने वेबसाइट पर अपलोड कर दी जिसका शीर्षक था ‘एकात्म मानववाद’ अर्थात इंटिग्रल हयूमनिजम’ जिसके मुताबिक ‘‘भाजपा ही देश का एकमात्र राजनीतिक विकल्प है, हिन्दू विचार ही भारतीय विचार है और महज हिन्दू समाज ही आध्यात्मिक हो सकता है।’’

(https://thewire.in/182878/mea-bjp-propaganda-hindutva-deendayal-upadhyaya-integral-humanism/)

वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘द वायर’ के सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन लिखते हैं कि

विदेश मंत्रालय की यह ई-किताब भाजपा एवं  राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ द्वारा अपने आप को एक सम्मानजनक विचारधारात्मक आवरण ओढने की जोरदार कवायद का ही हिस्सा है। उनके वास्तविक गुरू – के बी हेडगेवार और एम एस गोलवलकर – बहुत अधिक जाने जाते हैं और इस कदर विवादास्पद हैं कि किसी भी किस्म की आलोचनात्मक छानबीन/पड़ताल के सामने कमजोर साबित हो सकते हैं, मगर जहां तक उपाध्याय के जीवन और नज़रिये का ताल्लुक है तो उनके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है और फिर उन्हें इस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है कि संघ के हिन्दुत्व दर्शन को व्यापक समूह के सामने, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष भी अधिक ग्राह्य बनाया जा सकता है।

उपाध्याय का जन्म 1916 में हुआ मगर उनके जिन्दगी के पहले तीन दशकों को लेकर विदेश मंत्रालय के इस स्तुतिपरक विवरण में एक ही महत्वपूर्ण बात दिखाई देती है – जबकि उनकी पीढ़ी के सर्वोत्तम ब्रिटिशों से भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे – कि वह 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े।

(https://thewire.in/182878/mea-bjp-propaganda-hindutva-deendayal-upadhyaya-integral-humanism/)

कोई भी अन्दाज़ा लगा सकता है कि यह महज शुरूआत है।

अगर सत्ताधारी जमातें – उस घटना के 450 साल बीतने के बाद, तमाम ऐतिहासिक तथ्यों को झुठलाते हुए – यह कहने का साहस कर सकती हैं कि हल्दीघाटी की लड़ाई अकबर ने नहीं बल्कि राणा प्रताप ने जीती थी, तो उन्हें यह दावा करने से कौन रोक सकता है कि हिन्दू मुस्लिम एकता की ताउम्र मुखालिफत करने वाले एक शख्स को उस अज़ीम शख्सियत के बरअक्स खड़ा कर दिया जाए जिसने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए अपनी जान दी थी। क्या यह विरोधाभासपूर्ण नहीं होगा कि एक साथ आज़ादी के संघर्ष के नेता महात्मा गांधी, ऐसी शख्सियतों के साथ साथ खड़े कर दिए जाएं जो उनके विचारों के बिल्कुल खिलाफ खड़े थे।

अंत में, लगभग ‘‘नायक विहीन’’ संघ-भाजपा कुनबे में दीनदयाल उपाध्याय के महिमामंडन को समझा जा सकता है क्योंकि वह ‘गोलवलकर के चिन्तन’ पर अड़िग रहे मगर उन्होंने ‘पूरक के तौर पर गांधीवादी विमर्श की भाषा को भी अपनाया तथा संघ के विचारों को अधिक लोकप्रिय बनाया। केन्द्र में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद नए भारत की भविष्यदृष्टि /विजन/ को लेकर बहुत कुछ बदल गया है। गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, अम्बेडकर, सुभाषचंद्र बोस एवं आज़ादी के आन्दोलन के तमाम अग्रणियों ने नवस्वाधीन भारत के लिए जिस समावेशी, प्रगतिउन्मुख समाज की कल्पना की थी, उसके स्थान पर इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में जो नया भारत गढ़ा जा रहा है वह संघ परिवार की असमावेशी भविष्यदृष्टि  /विजन/ पर आधारित है। और ऐसे ‘‘नए भारत’’ के आयकन, उसके प्रतीक तो दीनदयाल उपाध्याय ही हो सकते हैं।


(जारी)

पहला भाग 

दूसरा भाग 

तीसरा भाग

चौथा भाग

पांचवां भाग

छठवां भाग

सातवां भाग

आठवां भाग

नौवां भाग

दसवां भाग