भाऊ कहिन-14
यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
कंटेंट में विविधता और लोकतंत्र के साथ ‘ जनसत्ता ‘ भाषाई स्वराज का आगाज था ।
अपनी स्थापना से 1986 के उत्कर्ष काल तक यहां आदरणीय स्व. प्रभाष जोशी जी के बाद की कतार में अनुपम मिश्र , बनवारी और हरिशंकर व्यास थे । टीम में धुर दक्षिणपंथी ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध ) , समाजवादी , गांधीवादी और मध्यमार्गी रैशनल लोगों का विलक्षण समन्वय था ।
इस टीम में मंगलेश डबराल , अमित प्रकाश ,आलोक तोमर ,अरविंद मोहन , रामबहादुर राय , जगदीश उपासने , सुधांशु मिश्र और देवप्रिय अवस्थी थे । ( नाम किसी वरिष्ठता क्रम में नहीं है )
उधर नवभारत टाइम्स में परम आदरणीय राजेन्द्र माथुर जी प्रधान संपादक और सुरेन्द्र प्रताप सिंह ( एसपी ) एक्जक्यूटिव एडिटर थे । यशस्वी साहित्यकार विष्णु खरे भी ।
पहले से दोयम दर्जे की नागरिकता वाले हिन्दी अखबार के संपादकों का जलवा अब कायम हो चुका था , जो 1992 तक चला ।
टाइम्स विल्डिंग ( दिल्ली ) में आधे में टाइम्स ऑफ इंडिया का और आधे में नवभारत टाइम्स का दफ्तर । तब तक अंग्रेजी अखबार के स्नाब और एलीट सम्पादक , अपने कक्ष से चलकर , न्यूज आदि पर विमर्श के लिए हिन्दी सम्पादकों के कक्ष तक आने लगे थे ।
राजेन्द्र माथुर जी के देहावसान पर जोशी जी लिखा था —
‘ तब हम अंग्रेजी के दिग्गजों , ( वर्गीज , पडगांवकर ) से पूछ लेते थे । अब कैसे कह सकेंगे — है तुम्हारे पास कोई राजेन्द्र माथुर ? … उनके अपने कक्ष में बैठे रहने तक शब्दों को समझने के लिए कोई डिक्शनरी पलटने की जहमत नहीं लेता था । सीधे उनके कक्ष में … ‘ ।
ढाबे के बुझे चूल्हे में फायर झोंक कर जला देने वाले संपादक जिस अखबार में हैं , वह तब उठावनी और रस्म पगड़ी से भरा रहता था ।
अभी 8 – 10 साल पहले तक इस अखबार ने अपना बेहतर मुकाम हासिल किया लेकिन अब पतन की ओर है ।
‘ बदलते मौसम के अखबार ‘ और इसमें कोई चरित्रगत अंतर नहीं रहा । दोनों का नेतृत्व एक ही आंवें से निकला भी था ।
— तुम बहुत गरिष्ठ लिखते हो … यह अखबार की भाषा नहीं है ।
हमारे पाठक आम लोग हैं , इम्ब – बिंब नहीं समझते ।
— तो बेहतर होगा आप मस्टहेड के नीचे कैच लाइन डलवा दें – हम पढ़े -लिखे प्रबुद्ध लोगों के लिए नहीं हैं ।
ऐसी कचकच कई बार हुई । और दावा है मैं जरूरी न होता , अपरिहार्य न होता और मेरे ही चेहरे पर संस्थान को कभी – कभी अकादमिक भी न दिखना होता , तो यह कचकच मैं अफोर्ड नहीं कर पाता ।
यहां कार्यकारी संपादक , मोटिवेटर बन गया है ।
— बदलो …. बदलो .. खुद को बदलो …
क्या बदलो और क्या बदल गया , इसको लेकर वह खुद भी कन्फ्यूज है ।
महाप्रबन्धक मोबाइल में यू ट्यूब पर ‘ नाटी गर्ल ‘ गाना सुनता है ।
कहता है —
‘ मोरा गोरा रंग लई ले ..’ का जमाना नहीं रहा । यह गुलजार का गीत है , पता है न ?
वो अब क्या लिख रहे हैं – बीड़ी जलइले जिगर से पिया …
नाना पाटेकर जैसा सीरियस एक्टर नाच रहा है – तेरा सरारा ..।
महाप्रबन्धक के चेहरे पर मुझे कन्विंस कर लेने की जीत चमक रही है ।
यहां सरेआम कत्ल ( प्रतिभा का ) का माहौल है और लोग भैया – भैया , सर – सर कह बिछे जा रहे हैं ।
मैं चीखना चाहता हूं –
क्या बदल गया है ? बाजार और व्यवसाय के हित में तुम जिस कंटेंट की बात कर रहे हो , उसका समुदाय से क्या रिश्ता है , सोचने दोगे ?
मुझे उस कूढ़ मगज , देंहींगर शख्स को देख कर घिन आ रही है जो कार्यकारी संपादक का मुखबीर है ।
जिसने कार्यकारी संपादक को आसानी से मतलब हर जगह न उपलब्ध हो पाने वाली प्रजाति की मछली खिलाई है , इसलिए एक यूनिट का संपादक हो गया ।
विज्ञापन मैनेजर नाच रही है — क्रेजी किया रे ..
और मालिक पूछ रहा है – चलती क्या खंडाला ?
इस लड़की के लिए मेरे मन में एक ललित कोन बन गया था ।
उसका चहक कर भाऊ कहना मुझे ऊष्मित करता था ।
मैं पूछना चाहता था लेकिन नहीं पूछ सका ।
आज पूछ ले रहा हूं , बिना बिलबिलाए बताना ।
हां , तुम्हें ही कह रहा हूं । तुमने कहा था – मैं अपना फ्रस्टेशन निकाल रहा हूं ।
है कूवत, ‘ नौकरी देने या ले लेने के ‘ दवाब, तमाम लालच के बिना भी किसी को खुद की ओर खींच लेने की ।
किसी की मजबूरी का फायदा न उठाओ ।
बताना कोई , अखबार के दफ्तर में ऐसा आखेट , अनैतिक नहीं है क्या ?
ऐसे अखबारों में नियुक्तियों का कोई इम्तिहान भी नहीं होता ।
1980 के दौर में नवभारत टाइम्स में भर्ती के लिए संघ लोकसेवा आयोग के स्तर की परीक्षा होती थी । दावा था कि वे आइएएस का ही वेतनमान देंगे ।
यहां तो मालिक के पीछे बत्तख की तरह चलने वाले , हीनता बोध और असुरक्षा की भावना से पीड़ित लोग सम्पादक बनाये जा रहे हैं ।
उनकी तनख्वाह में बेशक बढ़ोतरी हुई है ।
उस अनुपात और ग्राफ में दूसरे किसी की तनख्वाह नहीं बढ़ती ।
ये मेठ है और बाकी वह मजदूर जो मजीठिया के लिए उदास जाने कब से आसमान निहार रहा है ।
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जनसत्ता दरअसल एक ‘प्रोजेक्ट’ था !
जनसत्ता दरअसल , यशस्वी मालिक रामनाथ गोयनका के बहुत संतुलित और समन्वित राजनीतिक नजरिये का ही प्रतिबिंबन था ।
उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाना जी देशमुख थे तो युवा तुर्क चन्द्रशेखर भी । जनसत्ता दरअसल एक प्रोजेक्ट था ।
प्रभाष जी भी , मुहिम के संपादक थे । राजेंद्र माथुर जी से अलग ।
कभी – कभी लगता है जिस तरह जयप्रकाश जी की ‘ सम्पूर्ण क्रांति ‘ एक खास खेमे के लिए अचूक अवसर होकर , खलास हुई , जनसत्ता के साथ भी ऐसा ही हुआ ।
लेकिन , अंततः यकीन नहीं होता ।
ऐसा हुआ भी नहीं होगा । प्रभाष जी बेशक महान व्यक्तित्व थे ।
एक बात और कि काबुल में भी गधे होते हैं । ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी पत्रकारिता के सारे प्रकाशवान नक्षत्र जनसत्ता से ही निकले ।
दिल्ली से लखनऊ , पटना तक कई ऐसे मिले जिन्हें देखकर माथुर जी या जोशी जी की मानस पटल पर स्थिर हो चुकी तस्वीर , हिलने लगती है ।
ऐसे मीडियाकरों का यही दावा होता है –
…. बुलवा कर नियुक्ति दी ।
सोचता हूं न भी बुलवाये गये हों तो भी आखिर ऐसे संपादकों के होते , उनकी नियुक्ति कैसे हो गयी ?
हैरत है जिन अखबारों की आलोचना लिख रहा हूं , वहां भी एक से एक प्रतिभावान और प्रतिबद्ध पत्रकार जुटे । उनके कांतिवान व्यक्तित्व के पीछे उनका गहन पॉलिटिकल एक्टिविज्म और अपना स्वाध्याय था । इन अखबारों में आने के पहले ही समाज की अंतर्यात्रा और जीवन सन्दर्भों ने उन्हें जिज्ञासु और प्रश्नाकुल बना दिया था । वे ऊबी और हताश दुनिया के संवाददाता तो थे ही ।
लेकिन इन अखबारों ने उनका भरपूर इस्तेमाल किया और इनसे गला भी छुड़ाया ।
संपादक तो ये बनाये ही नहीं गये क्योंकि आज्ञाकारी मूढ़ चाहिये था ।
एक संपादक , एयरपोर्ट पर रिसीव करने के दौरान मालिक का पैर छूता था ।
मालिक एयरपोर्ट से होटल चले जाते ।
होटल से उनके चल देने की सूचना पाकर यही संपादक फिर आफिस के गेट पर खड़ा हो जाता था ।
उसे मालिक का चरण एक बार शहर की धरती पर , एक बार मालिक के साम्राज्य यानि अखबार के दफ्तर के गेट पर छूना है ।
उस ब्राह्मण संपादक की त्रिकाल तो नहीं , उस दिन दो बार की संध्या यही है ।
यह युवा संपादक है और इतनी व्यवहारिकता जान गया है । और कुछ वह जाने भी क्यों ?
जारी…..
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