भाऊ कहिन-11
यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
दिल्ली से गोरखपुर आने के दौरान एसी टू टियर कोच में मिले , सफाई सुपरवाइजर योगेन्द्र पासवान ।
उनसे बातचीत की शुरूआत का सूत्र अब भूल चुका हूं । लेकिन , खूब बात हुई ।
नोटबन्दी के कुप्रभाव से लेकर खेती – किसानी तक की ।
मुझे पूछ लेना पड़ा , उनकी पढ़ाई – लिखाई
के बारे में ।
मेरे आग्रह पर खासी धार वाली खईनी , टुकियाते ( छोटे – छोटे टुकड़ों में तोड़ते ) वह पहले तो कुछ देर चुप रहे । फिर ठोकी तो मुझे जोर की छींक आई ।
उन्होंने बताया कि वह गोरखपुर विश्वविद्यालय से बीए और बाद में कहीं से बीजे ( ग्रैजुएशन इन जर्नलिज्म ) कर चुके हैं ।
उन्होंने एक अखबार में नौकरी की कोशिश भी की थी । सफल नहीं हुये । कुछ महीने इधर – उधर काम किया ।
बात-चीत में उन्होंने गोरखपुर के कई पत्रकारों का जिक्र भी किया लेकिन , संपादक रह चुके सुजीत पाण्डेय के अलावा , दूसरे सभी की चर्चा करते हुये , हर बार सुर्ती की पीक थूकते थे ।
जानता हूं इतनी जल्दी – जल्दी स्लाइबा और थूक बन भी नहीं जाती । फिर वह थूक क्या रहे थे ?
— छोड़ीं एहिजा साफ – सफाई हमरिए जिम्मे बा । ई टोके वाला केहू नइखे – ओने छोड़ के ।
सूजीते पाण्डेय के बाबूजी , …. कि चाचा न राममन्दिर के ताला खोलवले रहनीं । जज रहनीं उहाँ के ।
— राम मंदिर बने के चाहीं की ना ?
— अब एपर हम कुछो ना कहब । बनवाई रऊवां , पत्रकार लोग बनवावत बा ..
फिर पीक थूकी उसने ।
संकीर्णता की हद नहीं होती । उदात्तता की भी ।
फिर विज्ञान के भी मुताबिक अगर आपकी गति लगातार उर्ध्व नहीं है तो आप नीचे आ रहे हैं ।
एक बहुप्रसारित अखबार में सांस्कृतिक सुविधा सम्पन्न केवल एक जाति का ही वर्चस्व है ।
डा. लोहिया , संसद में अक्सर इस सांघातिक मेल को रेखांकित करते रहते थे — बनिया और ब्राम्हण ।
मैंने पहले ही लिखा है – संकीर्णता की भी हद नहीं होती ।
इस संस्थान में ब्राम्हणों में भी दो समूह बन गए ।
एक खास इलाके के ब्राह्मण दूसरे इलाके के ब्राह्मणों को नेपथ्य में ढकेलने में लग गए ।
सफल भी हुये ।
फिर ब्राह्मणों की जिस शाखा का वर्चस्व यहां कायम हुआ , उसमें भी श्रेष्ठता का निर्धारण बिस्वे के आधार पर होने लगा ।
हमारे यहां बिस्वा , कठ्ठा , बिगहा जमीन की नाप ने शब्द हैं ।
पता नहीं कैसे यह श्रेष्ठ ब्राह्मणत्व का पैमाना हो गया ।
30 जून की देर शाम 9 . 5 बजे दिल्ली से चला हूं ।
गोरखपुर से 30 किलोमीटर पहले हूं ।
ट्रेन में बैठे – बैठे लिख रहा हूं । 2 जुलाई से नियमित हो जाऊंगा ।
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धूर्त संपादक मलाई काटता है..
उसकी गलती थी कि वह पत्रकारिता को पवित्र , स्वायत्त , बौद्धिक और अपनी आंतरिक संरचना में बहुत लोकतांत्रिक गतिविधि मानता था ।
उसे यह बताया गया कि समय की मांग समझो ।
कुछ भी चलता है इसके भीतर ।
– अपनी ज्यादा अक्ल से अखबार को बख्श दो
उसे फोर्स लीव दे दी गयी ।
छंटनी के लिये कमजोर कड़ी में नाम आ गया ।
मालिक ने गुर्रा कर पूछा –
क्या है हमारी ‘ यूनीक सेलिंग पॉइंट ‘ ( यूएसपी )?
किसी ने कहा 8 कलर पेज । किसी ने कहा हमारा नेटवर्क
किसी ने कुछ , किसी ने कुछ ।
उसने कहा — बदलते मौसम का अखबार ..।
मालिक खुश । लेकिन वह
भीतर कसमसाया भी होगा — … न अपना कोई फेस है न स्टैंड । जैसे मौसम बदलता है , ये भी बदल जाते हैं ।
एक ने उसके इस फीलिंग की चुगली कर दी । उसका स्थानांतरण जम्मू कर दिया गया । उसने इस्तीफा दे दिया ।
कार्यकारी संपादक ही शाम की सुरासिक्त , बेहद अपनापे की बैठक में बता रहे थे —
जब न्यूयार्क या लंदन से वह ( मालिक संपादक ) लौट कर आते हैं , कुछ दिन सनके रहते हैं । इस अखबार को कोई टाइम्स बनाने लग जाते हैं ।
लेकिन , यही कार्यकारी संपादक दूसरे दिन अन्य यूनिटों के लिये प्रजेंटेशन तैयार करता है । जिसमें पाठकों का मनोविज्ञान और बदलती रुचि बताई जाती है ।
बताया जाता है —
एक लोढ़े भर के लाल साबुन ने जो कभी अलग -अलग इस्तेमाल के लिए धागे से तीन टुकड़ों में काटा जाता था , उसकी डिजाइन कितनी बदली गयी । दूसरा वाला साबुन जैसा था , 20 साल पहले , वही रहा । बाजार से गायब हो गया ।
प्रजेंटेशन चलता रहता है और हिन्दी का अखबार अपनी जमीन , अपनी संवेदना से अलग कोई टाइम्स या कोई पोस्ट बनता रहता है । यह प्रक्रिया बीते 7 – 8 साल से तेज है ।
कार्यकारी संपादक मलाई काट रहा है ।
कई दूसरे संपादकों की तरह अपने खोखले व्यक्तित्व , धूर्तता भरे कारनामों और प्रपंच के लटके – झटकों के बूते ।
संपादक जो बेहद खुशमिजाज और यारबाश माने जाते हैं ।
जिनके हाथ में जब फोन का चोंगा होता है , आप होकर भी उनके सामने नहीं होते ।
दरअसल मालिक अब मोबाइल पर नहीं , लैंड लाइन पर फोन करता है । ताकि संपादक का झूठ पकड़ा जा सके ।
मालिक को मौजूदा सत्ता का और संपादक को मालिक का वरदहस्त चाहिये ।
यह चाहत बहुत स्वाभाविक और जरूरी हो गयी है ।
इसलिए यह इसरार भी –
आज खूब गायेंगे ।
बिजनेस मीट के बाद शाम की पार्टी है ।
मालिक मोहम्मद रफ़ी ( इतना बड़ा नाम लेने के गुनाह की माफी चाहता हूं ) बनना चाह रहा है —
खोया — खोया चांद ..।
संपादक ने कहा –
तुम्हारा भी हो जाये , ‘ आवारा हूं … ।
मैंने मना कर दिया । यह गाना मुझसे रूठ गया है ।
जारी…
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