राजेंद्र माथुर ने कहा-मैं जो लिखता हूँ, वही मैं हूँ, बाक़ी सब अप्रासंगिक !

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भाऊ कहिन-19

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

 

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ? 

 

आदरणीय स्व. राजेंद्र माथुर जी का , राहुल  वारपुते पर लिखा एक संस्मरण , पढ़ा था । शुक्रवार साहित्य वार्षिकी 2014 में ।

‘ ….. राहुल वारपुते का गुण यह नहीं था , कि उनमें आग थी या कारीगरी थी , उनका गुण यह था कि किस्म – किस्म की आगों और कारीगरियों को उन्होंने अपनी गति से जलने , बुझने , भभकने , दावानल बन जाने का मौका दिया और इन सारी आगों और कारीगरियों को पद , श्रेणी और महत्व की ईर्ष्याओं से मुक्त रखकर उन्होंने हम सब लोगों को वर्षों तक अप्रदूषित बनाये रखा ।…. ‘
आज के कुछ हिन्दी अखबारों में पद और श्रेणी की होड़ तो खुद मालिक की भड़काई हुई है । इसीलिये नयी आवक में राजनीतिक रिश्ते बनाने , कुछ कमा लेने ( जैसे भी ) और तुरन्त प्रमोशन पा जाने की भभकती चाह देखी जा सकती है ।

अपने 15 साल के पत्रकारीय कैरियर में एक मठ की केवल विज्ञप्ति बनाते रहने वाले किसी का अचानक बड़ा प्रमोशन , आखिर किस संस्कृति को हवा देगा ।
कार्यकारी संपादक का प्रजेंटेशन याद आ रहा है —
अगर आप आगे नहीं जा रहे हैं …आप अपनी अगली कुर्सी के लिये प्रयासरत नहीं हैं .. तो आप अपने पीछे वाले को भी अवसर से वंचित कर रहे हैं । जाहिर है पीछे वाले को नहीं रोका जा सकता … तब आपका रास्ता बाहर जाता है ।

इस तरह के प्रजेंटेशन आप जहां हैं , वहां से सर्वोत्कृष्ट देने पर जोर नहीं देता , पूरे संस्थान को गैरजरूरी स्पर्धा में उलझा देता है ।
माथुर जी लिखते हैं –
‘ …. नई दुनिया में रहकर आप कह सकते थे कि ‘ जो मैं लिखता हूं , वह मैं हूं तथा और कुछ होना अप्रासंगिक है ।… लेखन से जो सराहना की गूंज लौट कर आती है , वह मेरा पद है …।’
कुछ हिन्दी अखबारों में ऐसे – ऐसे संपादक , स्टेट हेड , पॉलिटिकल एडिटर होने लगे , जिनका लिखने – पढ़ने से कोई वास्ता ही नहीं रहा ।
एक राज्य के एक अखबार के स्टेटहेड को यह भी नहीं मालूम कि ‘ फ्रीडम एट मिड नाइट ‘ या ‘ ग्लिम्सेज आफ वर्ल्ड हिस्ट्री ‘ किसकी लिखी है । उसने इन किताबों का नाम भी नहीं सुना है ।
वह उस राज्य में है जिसका इतिहास , प्राचीन भारतीय इतिहास में दो – तिहाई से ज्यादा स्पेस लेता है ।
वह संजय दत्त ( फिल्म अभिनेता ) की नकल में आगे की ओर कंधे झुकाकर चलता है । कुछ झूम कर ।

वह अपने आगे वाले को धकियाना जानता है , गला छपकना भी । इसीलिये स्टेट हेड है ।
 

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कुछ हिंदी अख़बार अगड़ी जातियों के गर्व के ‘कलावा’ हैं !

 

कुछ अखबार तो अलग -अलग जातियों के वर्चस्व वाले कोटरों में बदलते गये । मूल्यों के  पराभव काल में यही होना भी था ।

वैचारिकता , जीवन सन्दर्भों के अभाव और समाज की अंतरयात्रा ठप पड़ते जाने से हिन्दी अखबारों में आये शून्य को ‘ लुम्पेनिज्म’ ने भरा ।
बनिया यारी की ताकतवर ब्राह्मण पट्टी की  प्रतिक्रिया में कुछ अखबारों का राजपूतीकरण होने लगा ।
ऐसा नहीं है कि राजपूतीकरण हमेशा प्रतिक्रिया का ही नतीजा रहा । जब – जब अखबारों में जिस जाति ( ब्राह्मण या राजपूत ) का स्थानीय स्तर पर ही सही , कोई शीर्ष पर आया ,उसने सजातियों की कतार खड़ी कर दी ।
इसमें कौन पहले , कौन बाद में ( या प्रतिक्रिया में ) था , तय कर पाना मुश्किल है ।
जब यह लिख रहा हूं , पटना से बस एक घण्टे पहले एक मित्र का फोन आया था ।
वह जाति से भूमिहार हैं । भूमिहार , ब्राह्मणों की ही शाखा हैं , जिनकी वृत्ति दान लेना नहीं थी । इसीलिये बिहार में भूमिहार , खुद को अयाचक ब्राह्मण कहते हैं ।
मैं अपने मित्र के हिसाब से याचक ।
मित्र को बताना चाहता हूं कि मैं यौधेय या युयुत्स हूं और मैं जिस ब्राह्मण शाखा से हूं , उसकी वृत्ति युद्ध थी । भारत में किसान आंदोलन के जनक स्वामी सहजानंद सरस्वती भी यौधेय थे , जिन्हें भूमिहार बताया जाता है । महामना तो यौधेय थे ही ।
बहरहाल मित्र को तकलीफ थी कि राज्य के दो अखबारों में तलवार ब्रिगेड ( राजपूतों ) का वर्चस्व बढ़ गया है । एक में ब्राह्मणों का ।
उनकी जाति का कहीं भी कोई ‘ की ‘ पोजीशन में नहीं है ।

कोई ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिये । अखबारों में जातीयता के मामले में उत्तरप्रदेश उन्नीस नहीं , बिहार का अग्रज रहा है ।
मैंने एक दूसरे मित्र से फोन करके पूछा । उन्होंने मेरे पहले मित्र को झूठा कहा । कहा गलत कह रहे हैं ।
दूसरे मित्र ने पहले मित्र की यह बात भी काट दी कि भूमिहार हमेशा मुख़ालिफ़ हवा झेलते रहे ।
दूसरे मित्र ने श्रीकृष्ण बाबू से शुरू होकर , अब तक के कई प्रभावशाली व्यक्तित्वों के नाम गिना दिये ।
कुछ हिन्दी अखबार अब अगड़ी जातियों की , उसमें भी कुछ की ही कलाई पर , गर्व का कलावा ( पूजा के बाद बांधा जाने वाला सूत / धागा ) हैं ।
यहां अलग – अलग समूहों की शक्ति लालसा का कभी – कभी खुला , ज्यादातर खामोश युद्ध जारी है । ठण्डी लेकिन क्रूर लड़ाई ।
मुसलमान , पिछड़े और दलितों को तो यहां हाशिया भी नसीब नहीं है ।
सीएनबीसी आवाज के मैनेजिंग एडिटर , मेरे मित्र आलोक जोशी जी का आज (13 जुलाई) जन्मदिन है । पहले उन्हें बधाई ।
वह एसपी ( सुरेन्द्र प्रताप सिंह ) के साथ काम तो कर ही चुके हैं , उनके बहुत नजदीक भी रहे ।
उन्होंने कहा —
अगर पिछड़ा , दलित या मुसलमान , प्रतिभाशाली भी हो तो एसपी के मुंह से यही निकलता — क्या कहने ।
नियुक्ति में वह उन्हें ही प्राथमिकता देते थे । सैद्धांतिक तौर पर …।
जोशी जी इस बात को पुरजोर खारिज करते हैं कि उनमें किसी जाति खास के लिये नरम दिल था ।
कल ‘ आज तक ‘ देख रहा था । श्वेता सिंह एंकरिग कर रही थीं । वह भी बिहार से हैं —
आतंक के खिलाफ , हर -हर महादेव ( ऐसा ही कुछ ) । अनंत नाग में जो हुआ उसकी जितनी भी निंदा की जाये कम है । हर भारतीय को सदमा लगा है । कश्मीरी अवाम को भी । लेकिन एक सन्दर्भ में
मुझे एसपी की याद आ गयी जिन्होंने , मोची जिस लोहे पर जूता ठोकता है , उसे दूध पिलाकर दिखाया था । तब देशभर में गणेश जी दूध पी रहे थे ।
 

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..और फिर जुनूनी संवाददाता अराजक कहे जाने लगे !

 

आवारगी अब कहां ?

तब भी , मेरे दौर में भी  उससे पीछे भी , कुछ ही इसे ‘ अफोर्ड ‘ कर पा रहे थे । ज्यादातर लोग जीवन की गति और दिशा
को ‘ कैलकुलेशन ‘ में यानि गणितीय हिसाब – किताब में उतार चुके थे ।
यही जीने का स्वीकृत सलीका होता गया । इसमें दक्ष लोग , कामयाबी की सीढ़ी भी चढ़ते गये ।
गणित के इस सूत्र से अगर कुछ तर्क संगत और व्यवहारिक सिद्ध हो सकता था तो वह थी मक्कारी और अवसरपरस्ती ।
यह भी 91 – 1992 के बीच का संक्रमण काल ही था । इस प्रवृत्ति के धमाकेदार प्राकट्य का जिसने खासकर पत्रकारीय मूल्य अंधेरे में खिसका दिये । ऑफ बीट रपटों में लहूलुहान , छिली देह संघर्षरत आदमी और उसे इस हाल में ला देने वाले सिस्टम पर हमले के कंटेंट , पुराना नजरिया मान लिया गया । ऑफ बीट जा सकने वाले संवाददाता की कन्डीशनिंग इस ढंग से की जाने लगी कि वह प्लांड व्यक्तित्व हो जाये ।

बीट और प्री या एडवांस प्लानिंग के अनुशासन में न कसे जा सकने वाले , जुनूनी संवाददाता ( मुझ जैसे ) अराजक कहे जाने लगे । हिंदी अखबार को अब ऐसी सामग्री की जरूरत भी नहीं थी । जरूरी कल्पनाशीलता , पूर्वानुमान और विश्लेषण क्षमता के सन्दर्भों में दरिद्र , ‘ उन्होंने कहा … ‘ , ‘ आगे कहा …’ , ‘ जोर देकर कहा ..’ लिखने वाले परिपक्व माने जाने लगे और वरिष्ठ भी ।

जब मैं बांध – बांध , नदी – नदी , किसी राज्य की समाजार्थिक दशा समझ और गले तक पानी में डूबे लोगों की आंखों में उनका सपना सीझना देख रहा था , सचिवालय का चक्कर काटने वाले खुश थे । अपने और किसी प्रमुख सचिव के बीच दलाली का पुल बनने वाले रिपोर्टर से संपादक ने कहा –
….. जो काम न करने वाले थे , उन्हें तो दौरे पर भेज दिया … ।
बाजार की नाड़ी टटोल सकने वाले मूलतः एक बिजनेस चैनेल का कंटेट , अगर सहिष्णुता – असहिष्णुता पर , अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ , गंम्भीर विमर्श का हो सकता है , तो यह गौर करने लायक है ।
यहां यशस्वी पत्रकार नवीन जोशी के लिखे उपन्यास ‘ दावानल ‘ की अगर समीक्षा होती है, उसका स्पेस निकल सकता है तो कंटेंट तय करने वाले प्रबंध संपादक का सरोकार समझा जा सकता ।
मूलतः मुद्रा के बहाव , शेयर मार्केट की गतिकी और निवेश के विभिन्न आयामों से जुड़े चैनेल पर ।
एक दिन आलोक जोशी को एंकरिग करते भी देखा था । न तो यहां अनावश्यक उत्तेजना थी , न प्रस्तुति को लाउड बनाने की अति नाटकीयता । हथेली मलते , ऐड़ी पर उछलते – उचकते , किसी के साथ बदतमीजी और फिक्स नरेशन के , पक्ष होकर चीखने – चिल्लाने की मुद्रा कहीं नहीं थी ।
मेरे बेटे और उसके मित्रों को भी आलोक , संयत और संतुलित लगे ।
मैं आतंक के खिलाफ हर मानवीय और प्रतिबद्ध बौद्धिक की एकजुटता चाहता हूं ।
आतंक के खिलाफ हर हर महादेव नहीं ।
 

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90% छात्र नहीं जानते कि वे पत्रकारिता क्यों पढ़ रहे हैं !

 

सूचना क्रांति और तकनीक से ही सध गयी औंघाई भाषाई पत्रकारिता , इस तीसरे संक्रमण में भी अपनी प्राथमिकता नहीं ही तय कर सकी ।

वे यह नहीं समझ पा सके कि कैमरा कितनी ही आधुनिक तकनीक का और मंहगा क्यों न हो , कोई अच्छा नतीजा , उसके पीछे की आंख और नजरिये पर निर्भर करता है ।
इसलिये ‘तकनीक’ सहयोगी नहीं , निर्धारक भूमिका में आ गयी । जिसकी यारी हमेशा से सीधा वर्ग विभाजन उकसाने वाले आवारा पूंजी के
बाजार से होती है ।
विज्ञान भी नेपथ्य में चला गया । इस दौर में विश्वविद्यालयों में भी कोर साइंस , साहित्य और आर्ट्स के दूसरे विषयों ( ज्ञान शाखाओं ) के छात्र घटने लगे । बी.टेक , एमसीए , बीबीए की तरह पत्रकारिता पढ़ाने वाले संस्थानों की बाढ़ आ गयी । इनसे निकली नयी पीढ़ी तो और गजब थी ।
एक नामी विश्वविद्यालय के कुल छात्रों में  से 90 प्रतिशत , यह नहीं बता सके कि वे पत्रकारिता क्यों पढ़ रहे हैं ? वे पत्रकार क्यों बनना चाह रहे हैं ।
10 प्रतिशत ने बताया –….  पहली बात यह कि यहां ग्लैमर है और दूसरी बात कि आप किसी से मिल सकते हैं ।
ये अपनी मनभावन कल्पनाओं के द्वीप पर थे ।
लेकिन, यह दौर अचानक तो कूद नहीं गया होगा । अंधेरा घात लगा चुका था । हम सब के दौर के बहुत पहले से ।
कामयाबी हासिल करने के शार्टकट , साइट्स और एजेंसियां , छवियों का ब्रह्मांड कम्प्यूटर , सब अचानक झम्म से नहीं कूद पड़ा । हम अंधेर की रफ़्तार माप भी नहीं सकते । वह इसीलिये जब व्याप जाता है दिखता है ।
केंद्र सरकार का बजट आ रहा था । उस दिन हर अखबार में अफरा – तफरी होती है ।
पहला पन्ना तैयार हो चुका था ।
मालिक को लिखने-पढ़ने में थोड़ी दिलचस्पी सचमुच थी या यह दिखावा था , नहीं जानता ।
उसने लीड की हेडिंग लगायी —
‘ मनमोहन का जोखिम भरा दुस्साहसिक बजट ‘
संपादक से लेकर नीचे तक सभी दांत चियारे श्रद्धानवत थे ।
केवल एक व्यक्ति ने विरोध किया –
या तो यह लिखिये ‘ मनमोहन का दुस्साहसिक बजट ‘ या ‘ मनमोहन का जोखिम भरा बजट ‘।
लोग बताते हैं , उसी दिन से उस व्यक्ति के बुरे दिन शुरू हो गये , जिस दिन उसने मालिक की लगाई हेडिंग से असहमति जताई । उसके बुरे दिन की शुरूआत तब भी हो गयी जब उसने एक दूसरे अखबार के स्टेट हेड को ‘ सर्जरी ‘ और ‘ आपरेशन ‘ में अंतर समझाया । ‘ मेनहोल’ और ‘ मैनहोल ‘ में । सबके सामने ।
अगर ये कुछ मूर्ख संपादक आने न शुरू हो गये होते तो , मालिक के हित का बाजारू नाच कैसे सज सकता ।
जारी…

पिछली कड़ियों को पढ़ने के लिए चटका लगाएँ-

भाऊ कहिन-18- अख़बारों में गला काट होड़ है, लेकिन कंटेंट ‘पूल’ होता है !