भाऊ कहिन-16
यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
जिस किसी ने ‘ इनडीसेंट प्रपोजल ‘ से या किसी ‘ काम्प्रोमाइज ‘ से इनकार किया , उसे नौकरी से हाथ तो धोना ही पड़ा , आवारा करार दे दी गयी ।
ये 1980 के भी पहले की बात होगी । जब एक औरत जार – जार रोयी , लेकिन बाद में उसने इन स्थितियों को अपनी खुशी बना ली ।
अब तो यह कुछ के लिये यह फन है । एक जरूर सलाम लायक है , जो अपनी शर्त पर
काम कर रही है ।
संपादकों द्वारा तो कहीं – कहीं लेकिन मैनेजरों द्वारा अधिकतर , जो तत्वतः आत्महत्या ( मैटाफिजिकल स्यूसाइड ) के लिए मजबूर की गयीं , कई को मैं जानता हूं ।
आजकल यह सिलसिला खासा तेज है ।
अगर औरत -मर्द का स्वाभाविक रिश्ता , पूरी समझदारी , एक दूसरे के सम्मान , मोहब्बत की तलाश या बराबर पहल का नतीजा हो तो अनैतिक नहीं होता । यहां तो उस विशेषाधिकार के तहत सब कुछ चलता है , कि चोरी खुद करो और दूसरे को चोर कहो । वे ताकतवर हैं इसलिए ऐसा ही करेंगे ।
ये वो घृणित लोग हैं जो औरत को बस मांस के लोदें , कूल्हे , नितम्ब और छातियों में ही रिड्यूस करके देखते हैं ।
इस अखबार को ऐसे ही संपादकीय कर्मी ज्यादा पसंद हैं और यही तरक्की की कसौटी है ।
एक संपादक ने अपने ही अखबार के एक कर्मचारी जिसका देहावसान हो चुका था , की पत्नी को कंप्यूटर आपरेटर के पद पर नौकरी दी । बाद में उसे उप सम्पादक बना दिया ।
वह रात में उसके घर भी जाने लगे । एक बार गांव वालों ने घेर लिया । किसी तरह जान बचाकर भाग सके । यह स्टेट हेड बना दिये गये ।
पर्वतों की छांव में की ऐयाशी की तस्वीरें देख लेने के बाद , उच्च प्रबंधन ने एक छोटी यूनिट के संपादक को खासी बड़ी यूनिट सौंप दी ।
एक यूनिट के संपादक तो सार्वजनिक स्थल पर पीटे गये । उनके खिलाफ एक महिला ने यौन उत्पीड़न की प्राथमिकी दर्ज करायी थी । इन्हें तो और बड़ी और बेहद महत्वपूर्ण यूनिट मिल गयी ।
वह संपादक जो यौन उत्पीड़न के मामले में , तफ्तीश के लिये दारोग़ा के आने पर , अपने कैबिन के पीछे से निकल कर मोटरसाइकिल से भाग जाता था , सबसे लकी निकला ।
वह भी स्टेट हेड हो गया ।
यह अखबार औरत को देखकर हिंस्र हो जाने वालों को खूब पुरस्कृत करता है ।
*************
रैम्प पर सावन और दिमाग़ में ब्लू रील !
‘ … सावन भींगने की ऋतु है । नस – नस और अंतरतम तक । धीरे – धीरे , रिस -रिस कर
पोर – पोर । प्रेम की दुर्निवार अनुभूति और ऊंचाई पर अधिष्ठित होती आदमीयत में ।
बसंत और सावन दोनों ऋतुएं प्रकृति की रचनात्मक अभिव्यक्ति भी हैं और नेह निमंत्रण भी । बसंत की मादकता और हुलास ही जेठ के ताप से सावन में द्रवीभूत होती है । झर …झर ..झर ।
लेकिन मन के ललित पट और इस झर … झर …. झर के बीच अब बहुत अवरोध हैं । यह दौर सावन का दुश्मन होता जा रहा है । सोच रहा हूं सावन का रंग । हरा ही होना चाहिए । जिसे एक दूसरे रंग ने अपदस्थ कर दिया है ।
हरीतिमा अब मजहबियाती सियासी चालों में फंस गयी है ।
इसलिए सावन अब नहीं खोल पाता अपना मन जिसमें कोई प्रेम की कांपती परछाई होता था ।
जब आदमी का मन रजनीगंधा सा महक उठता था और अपनी अनुभूतियों को आर्द्र पृथ्वी सा उठा लेता था ।
इस सावन तो हरे रंग ( हरीतिमा ) पर ही सबसे बड़ा खतरा है । सावन अमरत्व है । लेकिन इसे छू कैसे सकेंगे ?
घात लगाये बैठा है दहलीज के पार एक दूसरा मौसम , जो उतर जायेगा , हमारी नसों तक ।
हम सावन से नहीं भींग सकेंगे ।
कभी – कभी लगता है भूमण्डलीकरण के तमाम रुपांतकारी दवाबों में सावन अब रैम्प पर है ।
वह नवधनाढ़य महिलाओं की क्लब वाली या किसी होटल के फ्लोर पर की जुटान में सिमट गया है ।
अखबार वाले ऐसी ही जुटानों में से मेंहंदी रंजित हथेली की फोटो ले कर छाप देते हैं । गोया सावन इसी हथेली पर उतरा हो । ….’
मैं कम्प्यूटर पर जाने क्या – क्या , अनाप – शनाप टप .. टप .. टप .. करता गया ।
वह ठीक बगल में बैठी थी ।
— सावन का कोई रंग … क्या होता है ?
— तुम्हारी तरह … ( वह हरे रंग की कुर्ती पहने थी )
— ये नहीं चलेगा , मेरी समझ में भी नहीं आ रहा है … प्लीज ! कॉपी हर बार जैसी ही लिख दीजिये ना । और मैं समंदर आंखों में देख रहा था । वह कोई इंवेट करा कर लौटी थी । और हर बार की तरह फिर चली आयी थी मेरे पास कॉपी लिखवाने ।
अब जाने कहां है ?
उसे समझ आ गयी कि जब सारा वितान उसकी दैहिक सुंदरता को ही लेकर है , तो फिर अपनी मर्जी से क्यों नहीं जी सकती ।
सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन के मुताबिक हर कार्य स्थल पर , यह सुनिश्चित करने के लिये कि महिलाओं के साथ कोई नाइंसाफी न हो कुछ प्रावधान किये गये । लेकिन उसकी फिक्र उन्हें भी न थी जो व्यवहारिक हो चुकी थीं । उन्हें तो नहीं ही जिनके दिमाग में हमेशा ब्लू रील चलती रहती है ।
ड्यूटी रात तक लगा देना , कार्य के बोझ बढ़ा देना , जहां उनका स्टैब्लिशमेंट ( पति , बाल – बच्चे और सिर पर छत ) है , वहां से अन्यत्र ट्रांसफर कर देना , उन्हें तोड़ने या बांधने की कोशिश है ।
एक ने तो चार साल पहले ही नौकरी छोड़ दी ।
याद आता है एक अखबार के कैलेंडर के लिए कम्प्यूटर पर कुछ कवायद , घन्टो से चल रही थी । डिजाइनर किसी टेनिस खिलाड़ी की शॉट लगाते समय की फोटो में रंग भर रहा था । डिजाइनर कर्सर बार – बार , उछल कर शॉट लगाने के दौरान उड़ी स्कर्ट से अनावृत हिस्सों पर ही ले जा रहा था ।
उसे गजब का आनंद आ रहा था और न्यूज एडिटर , फोरमैन, बाद में संपादक भी उस तस्वीर में डूबे थे ।
कुछ देर बाद एक लड़की आयी । उसने कहा –
मैं महिलाओं के फीलिंग का प्रतिनिधित्व करते हुए कहना चाह रही हूं कि यह फोटो नहीं जायेगी ।
— नेता बन रही है ( कुछ लोगों ने संपादक की चमचागिरी में कहा )
— इसको यहां से हटाते हैं ( संपादक ने कहा )
मालिक एक लड़की से पूछता है —
तुम आज बहुत सुंदर साड़ी पहन कर आयी हो । पता था क्या , आज मैं आने वाला हूं ?
लड़की ने कहा – नहीं , आज बच्चे के स्कूल में मां – बाप को बुलाया गया है । निकल रही हूं ।
वेसे भी मैं इस लड़की की बहुत इज्जत करता
रहा हूं ।
********
कुछ संपादक उन्हें कपड़ों के भीतर तक देख लेते हैं !
अगड़ी जातियों से इतर अन्य के लिये , चाहे वे कितनी ही प्रतिभाशाली क्यों न हों , इन कुछ अखबारों में सम्मानजनक जगह कभी नहीं मिली ।
अगर कहीं इक्के – दुक्के थे तो उन्हें हर समय यह महसूस कराया जाता रहा या वे खुद ही इसे लेकर सचेत रहने को अभिशप्त थे कि , वे सम्मानित सवर्णों की कतार से अलग , यहां अवांछित हैं ।
फिर भी तमाम जद्दोजहद के बाद ‘ शहरी मिडिल क्लास ‘ बन चुकी यह कतार , नाम के आगे ‘ कुछ हटके ‘ सरनेम लगा कर अपनी शिनाख्त छिपा लेती है , औरतें क्या करें ? वे तो खूब दिखती हैं । और कुछ संपादक उन्हें कपड़ों के भीतर तक देख लेते हैं ।
एक संपादक अपने कक्ष से निकल कर अक्सर , सबसे पीछे की क्लोजिट में एक महिला के साथ बैठने की कोशिश करते जरूर मिलते थे ।
प्रायः ।
महिला ने तो तवज्जो नहीं ही दी , न्यूज रूम की बहुत सांय – सांय से भी घबरा गये । बाद में यह सिलसिला बंद हो गया ।
अल्पसंख्यकों के बारे में नजरिया देखिए ..।
मालिक कभी – कभी की मीटिंग में एक शख्स को गैरहाजिर देख पूछता था —
‘ …… वो मियां जी कहां हैं ?
दलित ,औरत और अल्पसंख्यक के लिए निम्नतर सोच रखने वाला यह अखबार हो सकता है , नव राष्ट्रवादियों की पहली पसंद बन जाये ।
इसी पाठक वर्ग को ‘ अपीज ‘ भी करना है । कार्यकारी संपादक का कहना है – … अपने पाठक को पहचानो ..।
जारी …..
पिछली कड़ियों के लिए नीचे की लिंक पर जाएँ–
भाऊ कहिन-15-अख़बार प्रतिभा के वधस्थल होते जा रहे थे….!