भाऊ कहिन-10
यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
मुख्यधारा मीडिया के समाचारों और उसके सरोकार की अवधारणाओं में जो विकृतियां पैदा हुई हैं , उससे इसकी साख में जबरदस्त गिरावट आयी है ।
अखबारों खासकर हिन्दी अखबारों से लोगों का लगाव और लासा सूखा है । अपनी – अपनी सीमा में या तो पब्लिक रिलेशन या फिर बिजनेस प्रमोशन ही उनका काम रह गया है ।
कुछ बहुत ज्यादा प्रसारित अखबारों में पब्लिक रिलेशन या लाभकारी एनजीओ की तरह काम करने वाले ‘ वर्टिकल ‘ भी होते हैं । इन्हें संस्थान कमाऊ पूत मानता है । इसके मैनेजरों की तनख्वाह कहीं – कहीं संपादकों से अच्छी और बेहतर होती है ।
खबर क्या है या अखबारों का कंटेंट क्या होना चाहिए यह बताने के लिये कभी -कभी ,साल में एक या दो बार , विभिन्न कम्पनियों के सेल्स , मार्केटिंग और विज्ञापन मैनेजर बुलाये जाते हैं । दो दिनी या उससे अधिक की कार्यशाला चलती है । यह समाचार संपादकों और सभी यूनिट के संपादकों के लिए खास तौर पर होती है ।
हैट पहने , हाथ में छोटा सा रूल लिये विभिन्न कम्पनियों का कोई बंदा , बड़ी स्क्रीन पर चल रहे प्रजेंटेशन के साथ थिरकता रहता है ।
— इट्स माई वे … ह्वेन यू विल जम्प इन दिस सिगमा टू …( जाने क्या …. क्या बकवास )
इस तरह की कार्यशाला में ऊब कर सो जाने या झुंझला कर कोई सवाल पूछ देने के लिये मुझे प्रबन्धन का कोप भाजन भी बनना पड़ा है ।
ख़ैर कोई बात नहीं । मुझे आज जैसे हैं , वैसा संपादक बनना भी नहीं था ।
ये कारपोरेट मैनेजर पैकेजिंग और वैल्यू एडिशन बताते हैं । यह डाउन द लाइन कितना और कैसे पहुंचता है इसका एक उदाहरण देखिए ।
एक रीजनल मीट में , एक यूनिट का चीफ सब पैकेजिंग के तरीके बता रहा था ।
प्रजेंटेशन में एक भैंस और भेडों के चित्र थे । उसी में दूसरी तरफ भैंस की चमड़ी से बनी बेल्ट या ऐसे ही दूसरे उत्पाद थे । भेड़ों की बाल से बने कंबल और जैकेट भी ।
प्रजेंटेशन में एक फिल्मी गाने की धुन बज रही थी — …. मैं नागिन तू सपेरा ..।
चीफ सब उछल – उछल बोल रहा था — ये है पैकेजिंग ।
भेड़ को अकल होती , आप हमारी तरह, तो वह हतप्रभ रह जाती । उसकी बाल से ये क्या बन गया ।
यहां भी एतराज करने और पैकेजिंग – वैल्यू एडिशन में अंतर स्पष्ट करने के लिए मुझे मुख्य महाप्रबन्धक का कोप भाजन बनना पड़ा ।
वह चीफ सब भी बाद में एक यूनिट का संपादक हो गया । हो सकता है स्टेट हेड भी हो जाय ।
एक अखबार का रिपोर्टर चंपारण सत्याग्रह से जुड़ी बहुत सन्दर्भ समृद्ध रिपोर्ट लेकर आया ।
उसकी रिपोर्ट नहीं ली गई । उसे जैकेट की ले आउट तैयार कराने में लगा दिया गया ।
उस रिपोर्टर और संपादक के बीच खासी बहस हुई ।
संपादक ने कहा —
हमें गांधी को भगवान मान कर उनसे अभिभूत नहीं होना चाहिए । और आप भी रोमिला थापर , बिपिन चंद्रा या इरफान हबीब के लिखे को अंतिम सच न मान लें ।
आप को नहीं लगता कि इतिहास का पुनर्लेखन जरूरी है ?
यह रिपोर्टर संपादक का सजातीय नहीं है । 50 का हो चला है ।
आशंका ही नहीं यकीन है वह हफ्ते भर के भीतर निकाल दिया जायेगा ।
एक बड़े हिन्दी अखबार के लिए कहीं कोई ब्यूरो चीफ चाहिए था ।
संपादक ने अपने एक मित्र से कहा ।
मित्र ने कहा — देता हूं एक जबरदस्त लिक्खाड़ ..।
संपादक ने कहा — अरे नहीं यार .. लिक्खाड़ क्या होगा ? लॉयल आदमी दो ।
एक राज्य संपादक अक्सर कहा करते थे —
संपादक का काम खुद लिखना नहीं है । उसका काम लिखने वाले पैदा करना है ।
हिन्दी का कोई अखबार इसका अपवाद न हो शायद । आज , मालिक का तलवा चाटने वाले कुछ संपादकों के चलते , तकरीबन हर जगह लिखने – पढ़ने वाले हाशिये पर हैं । उनकी कोई जरूरत भी नहीं है ।
संपादक यह भी कहते हैं – जो खुद ही लिखने के चक्कर में पड़ा , उसने अखबार बंद कराया ।
दिनमान या रविवार क्या इसीलिये बंद हुये ?
या उसकी और वजहें थीं ।
इस पोस्ट को पढ़ने वाले यह भी बताएंगे तो , मेरी मदद करेंगे ।
जारी ….
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भाऊ कहिन-9-प्रमुख सचिव से करोड़ों का विज्ञापन झटकने वाला औसत पत्रकार बना संपादक !
भाऊ कहिन-6 —संपादक ने कहा- ये रिपोर्टर मेरा बुलडॉग है, जिसको कहूँ फाड़ डाले !
भाऊ कहिन-7– वह संपादक सरनेम नहीं लिखता, पर मोटी खाल में छिपा जनेऊ दिखता है !
भाऊ कहिन-8- दिल्ली से फ़रमान आया- ‘प्रभाष जोशी के देहावसान की ख़बर नही जाएगी !’