दिल्ली से फ़रमान आया- ‘प्रभाष जोशी के देहावसान की ख़बर नही जाएगी !’

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भाऊ कहिन-8

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?

 

— किसानी और किसान से कितना पैसा आता है

अखबार को ?
— जी ..
— जी क्या ?
— और ये साईंनाथ …. ?
— जी … ‘ द हिन्दू के एडिटर रूरल अफेयर …
— कितना बिकता है यह अखबार यहां ? हम लार्जेस्ट सरकुलेटेड ….
— तुम्हारी तनख्वाह कहां से आती है ? पता है ?
— उस पूंजी और उसके स्रोत की इज्जत करना सीखो …।
संपादक की मौजूदगी में मालिक / डाइरेक्टर उस विशेष संवाददाता को समझा रहा था जो , राज्य में भूमि सुधार न लागू होने से सामंती क्रूरता के सीधे – सीधे और वीभत्स वर्ग विभाजन पर रिपोर्ट तैयार कर रहा था । कई किस्तों के लिये तैयार इस रिपोर्ट में असल किसानों की जोत घटने और खेती बहुत घाटे का उद्यम होते जाने से पलायन की बात थी ।
गुनाह इस रिपोर्टर का यह भी था कि वह  पी. साईंनाथ को अपना आदर्श मानता था ।
— भैया जो कह रहे हैं समझा करो । तुम्हारे ही भले की बात कह रहे हैं ।
( स्थानीय संपादक ने कहा )

मुझे लगता है जिस दिन मुर्गा बनकर , हर उस शख्स ने जिसने कसम ली होगी कि वह आइंदा उस पूंजी का हित पोषण करेगा जिससे उसे तनख्वाह मिलती है , समाचार संपादक के लायक हो गया ।
जिसने यह कसम ले ली होगी कि देश और समाज के व्यापक सन्दर्भों से जुड़ने की बैचैनी का वह गला घोंट देगा , संपादकीय प्रभारी होने के अर्ह हो गया ।
अब यह न पूछियेगा , तब स्टेट हेड कौन हुआ होगा ?
एक संपादक से मैंने कहा भी — बाहर किसी को अपना पद मत बताइयेगा । केवल पत्रकार कहियेगा । वरना जिसे आप अपना पद बताएंगे , वह जान जायेगा कि आपका लिखने – पढ़ने से कोई ताल्लुक नहीं है ।
( कुछ अखबारों के संपादकों के बारे में यह सामान्य अवधारणा है । हां एक – दो अपवाद भी हैं । जो सन्दर्भ समृद्ध और पढ़े – लिखे थे । इसीलिये कहीं 10 साल नहीं रह सके । बस दो या तीन साल अधिकतम )
इन अखबारों के संपादक यह जान गए हैं — अबे भो… अच्छा – बुरा तय करने वाले हम कौन होते हैं ? हम वह हर चीज परोसेंगे जिसकी मार्केट डिमांड है ।
ऐसे ही अखबार में एक बार बड़ा बवाल मचा ।
हिन्दी पत्रकारिता के शलाका व्यक्तित्व परम आदरणीय प्रभाष जोशी जी का देहावसान हुआ था ।
एक भावुक पत्रकार ने इसपर अच्छी खबर बनाई । तब तक इस अखबार के दिल्ली स्थित मुख्यालय से तत्काल मेल और फोन आया । प्रभाष जी के देहावसान की खबर नहीं जायेगी । अगर जाये भी तो भीतर के पन्नों में कहीं संक्षेप में ।
यह खबर सबसे पहले वाले डाक एडिशन में जा चुकी थी । हजार कॉपी छपी थी । मशीन रुकवाई गई ।
यह बात दिल्ली तक पहुंच ही गयी ।
वहां से बार – बार पूछा जा रहा था — कौन है अपने यहां प्रभाष जोशी का चेला ?
स्थानीय संपादक पसीने – पसीने
— नहीं सर , कोई उनका चेला नहीं है । गलती हो गई । दिल्ली का मेल थोड़ी देर से मिला
यह अखबार प्रभाष जोशी जी के पेड न्यूज के खिलाफ अभियान चलाने से बहुत नाराज था । जोशी जी ने इस अखबार को इंगित भी किया था ।
वह रिपोर्टर जिसने उनके देहावसान की खबर लिखी थी , अखबार की कैंटीन में फफक – फफक कर रो रहा था ।
मेरी भी आंख डबडबा आयी ।
हिन्दी के कई अखबारों में सम्पादक होने की पहली और बुनियादी शर्त अमानवीय होना है ।
तभी तो कोई सम्पादक होटल मैनेजर क्या , किसी को झापड़ मार सकता है ।
 

प्रमुख सचिव ने फ़ोन लगाया और टीवी पर ख़बर रुक गई

 

दो दिन से दिल्ली हूं ।

यहां क्यों हूं , मेरे अपने जानते हैं ।
गोरखपुर – लखनऊ – दिल्ली और फिर दिल्ली – लखनऊ – गोरखपुर ।
इनके बीच भी कह सकते हैं । अनिश्चितता से रोमांस ( रोमांसिंग विद अनसरटेनिटी ) और अजीब बेचैनी लिये ।
कुछ लिखने की कोई तैयारी फितरत में ही नहीं रही । यादों की अंगुलियां थामे चलता रहता हूं । बैठने की जगह मिल गयी तो मेट्रो में भी लिखता रहता हूं ।
क्या चाहता हूं , पाना क्या है , इस भाग – दौड़ का मकसद क्या है , सचमुच नहीं जानता ।
खुद से कई बार पूछा । खुद को झिझोड़ा भी ।
आज जहां , जिससे मिलने गया था , अपना चश्मा छोड़ आया ।
कुछ लिखने में खासी दिक्कत आ रही है ।
7 – 8 साल के पॉलिटिकल एक्टिविज्म , रंगकर्म और चल निकली 6 साल की वकालत के बाद संस्थागत पत्रकारिता के भी 27-28 साल बीत गये ।
अब फिर क्या हासिल करना चाहता हूं , इसका जवाब आखिर एक बजे रात को मिला ।
अनिश्चितता ही मेरे सिर के नीचे तकिया है , जिससे गहरी नींद आ जाती है । इसीलिये पत्रकारिता से रोमांस अफोर्ड कर सका ।
लेकिन कितना बदल गया है सारा का सारा दृश्य ।
मुख्यमंत्री के बहुत खास , प्रमुख सचिव , सूचना के आगे घिघियाते , आवंटित सरकारी आवास बचाने के लिये कोई शर्त मान लेने वाले संपादकों पर लिखना गुनाह है तो हो ।
यह जारी रहेगा ।
पत्रकारिता पेशे की ही यह खूबी है ( होनी चाहिए थी ) कि वह पूरी तरह लोकतांत्रिक है और अपनी ही आलोचना के संकाय , खुद में विकसित करती रहती है ।
अब नहीं ।
पतित संपादकों ने ही इसे नहीं रहने दिया ।
इसीलिये वे किसी सांसद या मंत्री से यह नहीं कह सकते —
‘ ….. आप पांच साल में एक बार जनादेश लेकर आते हैं । … हमें रोज जनादेश लेना होता है । ,
यहां तो बहुत शर्मनाक स्थिति है ।
मैं भी प्रमुख सचिव सूचना के कक्ष में बैठा था ।
वह पत्रकारों के नाम बिगाड़ कर , किसी को नत्था , बन्ता संबोधित करके उनका मजाक उड़ा रहा है ।
लोग हीं … हीं कर बिछे जा रहे हैं ।
प्रमुख सचिव की नजर अचानक टीवी पर जाती है ।
कोई क्षेत्रीय चैनेल है ।
कोई खबर खेली जा रही है ।
प्रमुख सचिव ने मुंह बिचकाया ।
फोन लगाया ।
— …. अरे सुशील ( कोई नाम हो सकता है ) …. ये क्या ? हटाओ इसे ।
खबर रुक गयी ।
विज्ञापन आने लगा ।
किसी दंत मंजन का ।
मेरे दिमाग में चलने लगा —
…. जनआकांक्षा पर खरा उतरना क्या हमारी ही जिम्मेदारी है ? यह बताने के लिये क्या ह्वाइट कॉलर होना जरूरी है ?
दूसरे लोगों के लिये चाय आ गयी थी । मैं उठ कर चला आया ।
जारी….

भाऊ कहिन-6 —संपादक ने कहा- ये रिपोर्टर मेरा बुलडॉग है, जिसको कहूँ फाड़ डाले !

भाऊ कहिन-7–  वह संपादक सरनेम नहीं लिखता, पर मोटी खाल में छिपा जनेऊ दिखता है !