मी लॉर्ड ! राम पर ‘आपत्तिजनक’ छप सकता है तो रामदेव पर क्यों नही ?

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पंकज श्रीवास्तव

 

दिल्ली की एक अदालत ने योग-व्यापारी बाबा रामदेव के जीवन से जुड़ी किताब ‘गॉडमैन टू टायूकन’ की सोशल मीडिया चर्चा पर भी प्रतिबंधित लगा दिया है। इससे पहले 4 अगस्त को इस किताब की बिक्री पर रोक लगा दी गई थी। यह किताब पत्रकार प्रियंका पाठक ने लिखी है जिसमें योगगुरु से कारोबारी बनने की रामदेव की कथा है। बाबा रामदेव का कहना है कि इस किताब में उनके जीवन से जुड़े तथ्यों को अपमानजनक तरीक़े से पेश किया गया है,लिहाज़ा इसे प्रतिबंधित किया जाए।

मामला अदालत में है और फ़ैसला क्या होगा, कहना मुश्किल है, लेकिन एक सवाल तो उठ ही रहा है कि क्या ‘न्यू इंडिया’ में पत्रकारों और लेखकों को किताब लिखने की आज़ादी नहीं रह गई है। हद तो यह है कि यह ख़बर 17 सितंबर को आई जो पीएम मोदी के साथ-साथ पेरियार ई.वी.रामास्वामी का जन्मदिन भी था जिन्होंने ‘सच्ची रामायण’ लिखी थी। ‘सच्ची रामायण’ में बहुत कुछ ऐसा है जिसे उत्तर भारतीय हिंदू चेतना निहायत अपमानजनक मानेगी, फिर भी 41 पहले उच्चतम न्यायालय ने यूपी सरकार की ओर से उस पर लगाए गए प्रतिबंध को ख़ारिज कर दिया था।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारतीय अदालतें अभिव्यक्ति की आज़ादी के हक़ में खड़ा होने की अपनी परंपरा से विचलित हो रही हैं। हो सकता है कि बाबा रामदेव को इस किताब की बातों से ऐतराज़ हो। ऐतराज़ में दम भी हो सकता है। ऐसे में लोकतंत्र उन्हें पूरी आज़ादी देता है कि वह किताब के बदले एक किताब लिखकर प्रियंका पाठक के ‘ग़लत इरादों ‘ की पोल खोलें । इन दिनों टीवी, रेडियो और अख़बारों में बाबा रामदेव के विज्ञापनों की धूम है, वे चाहें तो प्रियंका की ओर से बताए जा रहे तथ्यों को इनके ज़रिए भी ग़लत ठहरा सकते हैं। किसी पत्रकार के लिए इससी बड़ी सज़ा दूसरी नहीं हो सकती कि सार्वजनिक रूप से उसकी ओर से प्रस्तुत किए गए तथ्यो को ग़लत ठहरा दिया जाए। लेकिन रामदेव ने अदालत की शरण ली और उन्हें मनमाफ़िक फ़ैसला मिल भी गया। एक बार नहीं दो बार।

आइये देखते हैं कि इस संदर्भ में ‘सच्ची रामायण’ से जुड़े अदालती प्रकरण की याद करना क्यों ज़रूरी है !

पेरियार, बहुजन आंदोलन के कुछ आधार व्यक्तित्वों में एक हैं। दक्षिण भारत में द्रविड़ आंदोलन की नींव रखने करने वाले ई.वी.रामास्वामी महान तर्कवादी और समाजसुधारक थे। जनता ने उन्हें पेरियार (सम्मानित व्यक्ति) कहा जो ख़ुद सत्ता की राजनीति से दूर रहा है, लेकिन तमिलनाडु की राजनीति को ऐसी धुरी दे गया, जिस पर वह आज भी चक्कर काट रही है।

पेरियार वर्णाश्रम धर्म के घोर विरोधी थे और इससे जुड़े तमाम मसलों पर लिखते रहते थे। उत्तर भारतीय मानस के उलट उन्होंने राम को आदर्श नहीं माना। उनकी किताब ‘सच्ची रामायण ’ राम सहित रामायण के तमाम चरित्रों को खलनायक के रूप में पेश करती है। पेरियार की स्थापना है कि राम आर्यों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने दक्षिण के द्रविणों (मूलत: तमिलजनों) का संहार किया जिन्हें राक्षस कहा जाता है।

 

यूपी के समाजसुधारक और आरपीआई के नेता ललई सिंह यादव  (जिन्हें उत्तर भारत का पेरियार कहा गया) ने 1968 में “सच्ची रामायण” का हिंदी में अनुवाद किया था। लेकिन इसके प्रकाशन के साथ ही बवाल शुरू हुआ और यूपी सरकार ने 20 दिसंबर 1969 को इसे जब्त कर लिया ।ललई सिंह यादव ने इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 19 जनवरी 1971 को जस्टिस ए.के.कीर्ति, जस्टिस के.एन.श्रीवास्तव और जस्टिस हरि स्वरूप के पीठ ने किताब से प्रतिबंध हटाते हुए ललई सिंह यादव को 300 रुपये हर्जाना दिलाने का आदेश सुनाया।

हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी। लेकिन न्यायपालिका ने “भावनाओं के आहत” होने की दलील पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को तरजीह दी और 16 सितंबर 1976 को जस्टिस पी.एन.भगवती, जस्टिस वी.आर.कृष्ण अय्यर और जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली की सदस्यता वाले पूर्णपीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए आदेश सुनाया।

 

इसमें क्या शक कि ‘सच्ची रामायण ’ करोड़ों लोगों की आस्था पर चोट पहुँचाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ‘भारत नाम के विचार’ को अपने फ़ैसले के केंद्र में रखा। यह फ़ैसला बताता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में ( जहाँ एक का नायक, दूसरों का खलनायक हो सकता है ) सभी को अपनी बात कहने का हक़ है। भारत असहमति पर सहमति के इसी सिद्धांत पर भरोसा रखते हुए ही एक रह सकता है।

तो फिर ऐसा क्यों है कि दिल्ली की कडक़ड़डूमा कोर्ट ने बाबा रामदेव की बात पर आँख मूँदकर भरोसा कर लिया। क्या अदालत की नज़र में रामदेव, राम से बढ़कर हो गए हैं जिनकी आलोचना नहीं हो सकती। क्या माननीय जज साहब ‘सच्ची रामायण’ को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला भूल गए हैं ?