1930 में साइमन कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद, जिसका गाँधी के आह्वान पर देशभर में कांग्रेस पार्टी ने विरोध किया था, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के लोगों की साम्प्रदायिक मांग के अनुसार भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए लन्दन में गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें भारत, ब्रिटिश सरकार और राजनैतिक दलों के 89 सदस्य शामिल किए गए थे, जिनमें दलित वर्गों के डा. आंबेडकर सहित 13 आमंत्रित सदस्य थे। पहला सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 को शुरू हुआ और 19 जनवरी 1931 को समाप्त हुआ। चूँकि इस सम्मेलन में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ था, इसलिए सम्मेलन में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। अतः दूसरा सम्मेलन 7 सितम्बर 1931 को आरम्भ हुआ, जिसमें कांग्रेस के गाँधी सहित कई नेता शामिल हुए। यह सम्मेलन 1 दिसम्बर 1931 को समाप्त हुआ। और ब्रिटिश प्रधानमंत्री का निर्णय 17 अगस्त 1932 को घोषित हुआ। इस निर्णय में दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था। गाँधी इस अधिकार के विरुद्ध 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशनपर बैठ गए। यह अनशन गाँधी के प्राणों की रक्षा के लिए, हिन्दुओं के पक्ष में दलित वर्गों के अधिकारों की बलि के रूप में एक समझौते के साथ खत्म हुआ। उस समय गाँधी पूना की यरवदा जेल में थे। अतः 24 सितम्बर 1932 को जेल में ही समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह समझौता इतिहास में पूना-पैक्ट के नाम से जाना जाता है।
यह आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास की वह महत्वपूर्ण घटना है, जिसे इतिहास में ठीक से दर्ज नहीं किया गया। न केवल हिन्दू इतिहासकारों ने इसकी उपेक्षा की, बल्कि वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इसे दर्ज करना आवश्यक नहीं समझा। कई हिन्दू और वामपंथी इतिहासकारों ने इस घटना को एक पैरे में ही निपटा दिया, तो कई को इस कदर घृणा थी कि उन्होंने डा. आंबेडकर का उल्लेख करना भी पसन्द नहीं किया और जिन्होंने किया, उन्होंने निहायत हिकारत के साथ किया, जिसमें अयोध्या सिंह ने तो आंबेडकर को हरामी तक घोषित कर दिया। इतिहासकारों के साथ-साथ उस दौर के हिन्दू पत्रकारों ने भी गाँधी की प्रशंसा और आंबेडकर की निन्दा की, उन्हें जाहिल और असभ्य कहा। प्रेमचन्द ने भी डा. आंबेडकर का कोई बहुत ज्यादा उल्लेख नहीं किया। कसीदा उन्होंने गाँधी की शान में ही काढ़े, आंबेडकर के प्रति कोई सम्मान व्यक्त नहीं किया, सिवाए गाँधी से समझौता करने के प्रसंग को छोड़कर।
प्रेमचन्द की इस दृष्टि का पता हमें उनके मासिक पत्र ‘हंस’ और ‘जागरण’ में छपे संपादकीय लेखों से चलता है। इसमें सन्देह नहीं कि उस दौर के नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे हिन्दू पत्रकारों की तरह प्रेमचन्द भी गाँधी-भक्त थे। गाँधी उनके लिए सन्त थे, जिन्हें ‘राजनीति से कोई लगाव नहीं’था। दलित जातियों को अछूत बनाने का काम, प्रेमचन्द की नजर में, सरकार ने किया था, हिन्दुओं ने नहीं। उन्होंने अप्रैल 1930 के ‘हंस’ में लिखा:
‘क्या जमाने की खूबी है, कि जिन लोगों ने अछूतों को उससे कहीं ज्यादा दलित किया है, जितना कट्टर से कट्टर हिन्दू समाज कर सकता था, वह आज अछूतों के शुभचिन्तक बने हुए हैं। बेगार की सख्तियों का दोष किस पर है, हिन्दू समाज पर या सरकार पर? उन्हें अपढ़ रखने का दोष किस पर है, हिन्दू समाज पर या सरकार पर? उन्हें ताड़ी, शराब, गांजा, चरस पिला-पिलाकर कौन रुपए कमाता है, सरकार या हिन्दू समाज? प्रारम्भिक शिक्षा का बिल सरकार ने पेश किया था, या स्वर्गीय मि. गोखले ने? हमें पूरा विश्वास है कि जिस सरकार ने कितनी ही अछूत जातों को जरायम पेशा बना दिया, उसकी शुभ-चिंतना पर हमारें दलित समाज के नेता लोग भरोसा न करेंगे।’
बहरहाल प्रेमचन्द की दृष्टि में दलित वर्गों के पृथक राजनीतिक अधिकारों के विरुद्ध गाँधी का आमरण अनशन ‘महान तप’ था। उन्होंने 19 दिसम्बर 1932 के ‘जागरण’में लिखा: ‘कल ;20 दिसम्बर को यरवदा जेल में वह महान तप आरम्भ होगा, जिसकी कल्पना से ही रोमांच हो जाता है। भारत की तपोभूमि में इससे पहले भी बड़ी-बड़ी कठिन तपस्याएँ की गई हैं, लेकिन यह तपस्या अभूतपूर्व है।’
अभूतपूर्व इसलिए, कि यह तप गाँधी हिन्दुत्व को बचाने और दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखने के लिए कर रहे थे। उन्होंने आगे लिखा: ‘ज्ञान के लिए, मोक्ष के लिए, प्रभुता के लिए, औरों ने भी तप किए हैं, पर राष्ट्र के लिए प्राणों की आहुति देने का संकल्प महात्मा गाँधी की ही कीर्ति है।’ प्रेमचन्द ने यह बुद्धि नहीं लगाई कि इस अनशन का राष्ट्र से क्या मतलब? दलितों को पृथक अधिकार मिलने से राष्ट्र पर कौन सा संकट आ रहा था? पर, प्रेमचन्द जानते थे कि राष्ट्र यानी हिन्दुत्व। मुसलमानों को भी पृथक अधिकार मिले थे, उससे राष्ट्र पर कोई संकट नहीं आया था। दलितों को अधिकार मिलने सें ही राष्ट्र खतरे में क्यों पड़ा? वह इसलिए, कि यह खतरा हिन्दू-राष्ट्र पर था। इसलिए प्रेमचन्द के लिए गाँधी दधीचि थे, जिसने हिन्दुत्व के लिए प्राणों का उत्सर्ग किया था। उन्होंने आगे लिखा: ‘धन्य हो महात्मा ! राष्ट्र की सेवा में तुम पहले ही अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे। एक प्राण रह गया था। उसे भी राष्ट्र ही की भेंट करने जा रहे हो। एक समय दधीचि ने भी राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान किया था। हम अपनी अश्रद्धा के कारण उसे पौराणिक कथा समझ बैठे थे, पर आज तुमने उस प्राचीन मर्यादा को, उस प्राचीन आदर्श को, उस प्राचीन आत्मोत्सर्ग को, पुनर्जीवित कर दिया। इस छल-प्रपंच के युग में तुमने सत्ययुग की प्रतिष्ठा कर दी और दिखा दिया कि सतयुग और कलयुग केवल हमारे चित्त की वृत्तियाँ हैं।’
कितने दूरदर्शी थे प्रेमचन्द! गाँधी के अनशन में भी उन्होंने सतयुग की छवि देख ली। कहाँ सतयुग, जिसमें धर्म चारों पैर पर टिका हुआ था, और कहाँ यह कलयुग, जिसमें शूद्र शासन-प्रशासन में अधिकार मांग रहे हैं, वर्णव्यवस्था का अनुशासन तोड़ रहे हैं! गाँधी दधीचि की तरह प्राणों का बलिदान देकर प्राचीन मर्यादा और प्राचीन आदर्श को पुनर्जीवित करने जा रहे थे। प्रेमचन्द ने आगे और भी खुलासा किया कि हे महात्मन! ‘राष्ट्र पर इस समय जो संकट पड़ा हुआ है, उसका मोचन तुम्हारे सिवा और कौन कर सकता है?….यरवदा जेल की ऊॅंची चारदीवारी को भेदती, सरकार की गोपन नीति को चीरती हुई तुम्हारी इस भीषण प्रतिज्ञा की आवाज, आकाशवाणी सी, हमारे कानों में आती है, और सारा देश सचेत हो जाता है…। हमारी आँखें खुल जाती हैं और हम देखते हैं कि जब राष्ट्र ही न रहा, तो स्वराज्य कहाँ, जब संस्कृति ही न रही, तो हमारा अस्तित्व ही कहाँ? भारतीय राष्ट्र का आदर्श मानव शरीर है, जिसके मुंह, हाथ, उदर और पाँव हैं। इनमें से किसी एक अंग के विच्छेद हो जाने से देह अपंग या निर्जीव हो जायेगी। हमारे शूद्र भाई इस देह रूपी राष्ट्र के ही कट जायॅं, तो देह की क्या गति होगी?’
प्रेमचन्द ने यहाँ यह मान लिया है कि भारतीय राष्ट्र का आदर्श वर्णव्यवस्था है, जिसका मुंह ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य और पाँव शूद्र हैं और जब शूद्र ही अलग हो जायेगा, तो राष्ट्र भी नहीं रहेगा, फिर स्वराज्य भी कहाँ? बात सही है, स्वराज्य का मतलब है ब्राह्मणों, क्षत्रियों और बनियों का राज्य। तिलक ने कहा ही था कि स्वराज्य उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह जन्मसिद्ध स्वराज्य का अधिकार शूद्रों के लिए नहीं था, बल्कि शूद्रों को अधीन रखने के लिए था। हालाँकि, प्रेमचन्द यह स्वीकार करते हैं कि शूद्रों के साथ हमने अन्याय किया है, उन्हें जी भर कर रौंदा और दला है। लेकिन वे यह नहीं चाहते कि उन्हें कुछ पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार मिल जाए। इसे प्रेमचन्द गाँधी की तरह ही हिन्दू समाज से अलगाव मानते थे। उन्होंने लिखा: ‘इससे हिन्दू समाज की ही क्षति न होगी, अछूतों का अस्तित्व ही न रहेगा।’
समझ में नहीं आता कि प्रेमचन्द हिन्दू समाज की क्षति होने और अछूतों का अस्तित्व खत्म हाने की इतनी बड़ी बात कैसे कह रहे थे? क्या वे हिन्दुओं की ओर से दलितों को चेतावनी दे रहे थे या धमकी? जिस हिन्दू समाज ने एक विशाल आबादी को शिक्षा और अधिकारों से वंचित करके अछूत और सेवक बनाकर रखा हो, वह आबादी अगर जागरूक हो रही थी और शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व का अधिकार मांग रही थी, तो क्या उससे हिन्दू समाज की क्षति होने का मतलब यह था कि हिन्दुओं के स्वराज्य में कटौती हो जाती? लेकिन इससे दलितों का अस्तित्व कैसे खत्म हो जाता? किसी भी कौम का अस्तित्व अधिकार देने से खत्म होता है, या अधिकार छीनने से?
ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निर्णय में डा. आंबेडकर की जिस मांग को स्वीकार किया गया था, उसके अनुसार दलित वर्गों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था। मतलब, दलित प्रतिनिधियों का निर्वाचन दलितों के वोटों से होना था, सवर्ण हिन्दुओं के वोटों से नहीं। इसमें हिन्दू समाज की क्या क्षति थी? अगर दलित वर्गों के लोग अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनते, तो जाहिर है कि वे योग्य और हितैषी लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनते। यह गाँधी को क्यों सहन नहीं हुआ? इसमें किस तरह दलित वर्ग के लोग हिन्दू समाज से अलग हो रहे थे? क्या वे धर्मान्तरण करके ईसाई या मुसलमान बनने जा रहे थे, जो हिन्दू समाज से अलग हो जाते? कैसे समझ लिया प्रेमचन्द ने कि पृथक निर्वाचन से दलित वर्ग का हिन्दू समाज से अलगाव हो जाता? उन्होंने इस मुद्दे पर गाँधी की आलोचना नहीं की, बल्कि खुद भी उन्हीं के रंग में रंग गए। उन्होंने लिखा: ‘हमें विश्वास है कि अगर आज किसी गाँव के चमार या पासी या मुसहर से जिज्ञासा की जाए, तो वह हिन्दू जाति से अलग होना कदापि स्वीकार न करेगा। वह हिन्दू समाज में रहकर अपना उद्धार चाहता है, हिन्दू समाज से निकलकर नहीं।’
गाँधी ने समाज में जो भ्रम प्रचारित किया, दुर्भाग्य से प्रेमचन्द भी उसी भ्रम के शिकार हो गए। उन्होंने भी अपने विवेक से नहीं, गाँधी के विवेक से ही दलितों को देखा। गाँधी पृथक निर्वाचन के विरुद्ध संयुक्त निर्वाचन चाहते थे, जिसमें दलित प्रतिनिधियों का निर्वाचन दलितों और सवर्ण हिन्दुओं के संयुक्त वोटों से हो। प्रेमचन्द ने भी इसी का राग अलापा। उन्होंने लिखा: ‘दलितों के उद्धार का सबसे उत्तम साधन है, सम्मिलित निर्वाचन। यही उनके उत्थान का मूल मंत्र है।’
हिन्दू जो ठान लेते हैं, उसे पलटने की मजाल आज भी किसी में नहीं है। इसका कारण यह है कि वे शासक वर्ग हैं, अपने हित के लिए किसी भी हद से गुजर सकते हैं। वे जानते थे कि गांवों में दलित वर्ग के लोगों की जीविका उन्हीं पर निर्भर करती थी, जो काफी हद तक आज भी करती है। गांवों में हिन्दुओं के खिलाफ जाने वाले दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था। इससे वे दबे रहते थे। गाँधी के देशभर में फैले भक्त रोज ही डा. आंबेडकर को जान से मारने और परिणाम भुगतने के पत्र भेज रहे थे। अतः अगर डा. आंबेडकर के साथ हिन्दुओं के हित में गाँधी से समझौता नहीं होता, और गाँधी मर जाते, तो इस बात की पूरी तैयारी थी कि गाँव-गाँव और नगर-नगर में दलित जातियों के लोगों के साथ भारी पैमाने पर हिंसा होती। फलतः इसी भारी हिंसा को देखते हुए डा. आंबेडकर ने वही किया, जो गाँधी चाहते थे। दलितों को संयुक्त निर्वाचन का अधिकार के साथ अपनी जीती हुई लड़ाई हारनी पड़ी।
आज प्रेमचन्द होते, तो उनसे जरूर पूछा जाता कि जब उनके अनुसार संयुक्त निर्वाचन में दलितों की मुक्ति थी, तो संयुक्त निर्वाचन लागू होने के बाद, उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई? दलितों के प्रतिनिधि हिन्दुओं की कठपुतली क्यों बने हुए हैं? प्रेमचन्द, पता नहीं, संयुक्त निर्वाचन का यह राज क्यों नहीं समझ सके कि वह दलितों को हिन्दुओं का ‘कठपुतली प्रतिनिधि बनाने का खेल था। पूना-समझौते के बाद जो सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए, वे बहुसंख्यक हिन्दू क्षेत्र थे, जो आज भी हैं। इन क्षेत्रों में दलित प्रत्याशियों की विजय हिन्दू वोटों पर निर्भर करती है। इसलिए मजबूरन विजयी दलित प्रतिनिध्यिों करे अपने क्षेत्र के हिन्दुओं की चिन्ता करनी पड़ती है, दलितों की नहीं। जो दलित प्रतिनिधि दलितों की चिंता करते हैं, उन्हें पार्टी से दुबारा टिकट नहीं मिलता, और उनके क्षेत्र के हिन्दू भी उनको पसन्द नहीं करते। यह है संयुक्त निर्वाचन का जाल, जिससे डा. आंबेडकर दलितों को मुक्त कराना चाहते थे। गाँधी की चिन्ता यही थी कि पृथक निर्वाचन से दलित प्रतिनिधित्व हिन्दू समाज के लिए चुनौती बन जा जाता, जो भारत राष्ट्र को तो मजबूत करता, पर हिन्दू राष्ट्र को कमजोर कर देता। अगर दलित प्रतिनिधित्व पूरी तरह दलितों पर निर्भर होता, तो दलितों की शिक्षा और आर्थिक निर्भरता के लिए बेहतर योजनाएं बनतीं। यह हिन्दू राष्ट्र को कैसे बर्दाश्त होता?
इस तरह जब दलित पक्ष की हार और हिन्दू पक्ष की जीत हुई, तो प्रेमचन्द ने 26 सितम्बर 1932 के ‘जागरण’ में ‘हर्ष-सम्पादकीय’लिखा: ‘समझौता हो गया। छूत-अछूत सभी नेताओं ने मिलकर बम्बई के गवर्नर के पास अपना लिखित समझौता पेश कर दिया और ब्रिटिश और भारत सरकार के पास भी सूचना कर दी गई। आज 26-9-32 का तार है कि भारत मंत्री ने उसे मंजूर कर लिया।’ इसका श्रेय प्रेमचन्द ने महात्मा गाँधी के अनशन को दिया, जिसे आंबेडकर ने दलितों को धमकाने वाला नाटक कहा था। प्रेमचन्द उसे तपस्या की संज्ञा दी। उन्होंने लिखा: ‘उस महान आत्मा के अनशन व्रत ने, उसकी तपस्या ने, केवल सात दिनों में यह दिखला दिया कि वास्तव में तपस्या कितनी बलवती होती है। उस महान आत्मा की तपस्या ने, ब्रिटेन के महान राजनीतिज्ञों के द्वारा तैयार की गई उस सुदृढ़ दीवार को, जो हिन्दू अछूतों को अलग करने के लिए बड़े गहन कौटिल्य के सीमेंट से तैयार की गई थी, विध्वस्त कर दिया।
यह लेख सामाजिक प्रश्नों पर निरंतर सक्रिय चिंतक और प्रसिद्ध लेखक कँवल भारती की आने वाली पुस्तक का एक अंश है।