अमनदीप संधू
बीसवीं सदी की शुरुआत के योरप को कलात्मक शैलियों में आए कुछ चौंकाने वाले बदलावों से पहचाना जा सकता है। दृश्य कलाओं में क्यूबिज़्म, डाडा आंदोलन और सर्रियलिज़्म (अतियथार्थवाद) जैसी प्रवृत्तियों को इन बदलावों में गिना जा सकता है। यह बात अलग है कि बाकी जगहों की तरह जर्मनी में भी ज्यादातर लोग इन नई कलाओं की ज्यादा परवाह नहीं करते थे। अधिकतर लोग इन शैलियों को अभिजातवादी, नैतिक रूप से संदेहास्पद और अकसर समझ में न आने वाला बताकर खारिज करते थे।
हिटलर एक नाकाम चित्रकार रहा था। उसके लिए चित्रकला का मानक शास्त्रीय ग्रीक और रोमन कलाएं थीं, जिनका बाह्य रूप उनके भीतर छुपे नस्ली आदर्श की अभिव्यक्ति था।
हिटलर के मंत्री गोएबल्स ने एक बार कहा था, ”हम नेशनल सोशलिस्ट लोग आधुनिकता विरोधी नहीं हैं बल्कि हम नई आधुनिकता के वाहक हैं, न केवल सियासत और सामाजिक मसलों में बल्कि कला और बौद्धिक मामलों में भी।” ध्यान दीजिएगा कि कैसे यह वाक्य महज शब्दों की एक बाज़ीगरी है और कोई नया नज़रिया नहीं पेश करता- ठीक वैसे ही जैसे आज भारत में दक्षिणपंथी राजनीति कर रही है।
हिटलर के आने के बाद जुलाई 1937 में म्यूनिख में सरकार प्रायोजित दो प्रदर्शनियों का आयोजन हुआ- एक प्रदर्शनी का नाम था Entartete Kunst (डीजनरेट या भ्रष्ट कला प्रदर्शनी), जहां आधुनिक कला को जानबूझ कर अराजक तरीके से प्रतिष्ठापित किया गया था और उनके नाम भी ऐसे अपमानजनक थे जो जनता को उपहास के लिए प्रेरित करते।
इसके उलट दूसरी प्रदर्शनी Große Deutsche Kunstausstellung (महान जर्मन कला प्रदर्शनी) की शुरुआत काफी धूमधाम के साथ की गई। हाउस ऑफ जर्मन आर्ट की भव्य इमारत में खुलने वाली यह प्रदर्शनी सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त कलाकारों की रचनाओं का प्रदर्शन करती थी। दर्शक म्यूनिख आर्ट टर्मिनल नाम के नए संग्रहालय परिसर में प्रवेश करता तो उसके समक्ष सुन्न कर देने वाली एक बेहद भव्य नुमाइश का मुज़ाहिरा होता जिसे आदर्शीकृत जर्मन किसान परिवारों, व्यावसायिक नग्न कलारूपों और नायकीय युद्ध-दृश्यों जैसी चीज़ों तक बहुत सावधानीपूर्वक सीमित किया गया था।
यह शो पूरी तरह फ्लॉप रहा। लोग भी काफी कम आए। बिक्री की स्थिति तो ऐसी बदतर थी कि अंत में हिटलर को ही अधिकतर कलाकृतियां सरकार के लिए खरीदनी पड़ी। चार महीने की प्रदर्शनी के बाद स्थिति यह थी कि डीजनरेट कला प्रदर्शनी में बीस लाख से ज्यादा लोग आ चुके थे। यह संख्या पड़ोस में चल रही महान जर्मन कला प्रदर्शनी में आए लोगों का करीब साढ़े तीन गुना रही।
हिटलर के जर्मनी की इन दो प्रदर्शनियों की तुलना अगर आज के भारत से करें, तो हम खुद को ज्यादा करुण स्थिति में पाते हैं।
हमारी बेचारगी केवल इतनी भर नहीं है कि करणी सेना को इतना प्रभावी बनने दिया गया कि वह तमाम राज्यों की पुलिस को और सुप्रीम कोर्ट तक को चुनौती दे रही है। बात यह भी नहीं है कि हमने एक संकीर्ण विचारधारा को ऐसी ताकतें पैदा करने की छूट दे रखी है। ये सब उदासीन करने वाली बकवास बातें हैं।
असली विडम्बना यह है कि हमें एक फिक्शन पर आधारित संजय लीला भंसाली की बेहद भव्य, अयथार्थवादी, भड़कीली फिल्म का बचाव करना पड़ रहा है जो महान जर्मन कला प्रदर्शनी का पर्याय है।
इससे भी ज्यादा करुण स्थिति यह है कि जैसी लंपटई और गुंडागर्दी हम आज देख रहे हैं, उसके बरक्स हमारे पास कोई डीजनरेट कला प्रदर्शनी जैसी चीज़ भी मौजूद नहीं है।
इसे हम प्रतिस्पर्धा, विमर्श या बहस नहीं कह सकते।
यह कल्पना का विशुद्ध अंत है।
अमनदीप संधू अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित लेखक, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो आजकल बंगलुरु में रहते हैं। इनके दो फिक्शन प्रकाशित हैं- सेपिया लीव्ज़ और रोल ऑफ ऑनर। दि हिंदू ने रोल ऑफ ऑनर को बेस्ट फिक्शन के लिए 2013 में नामांकित किया था। लेखक दो वर्ष जर्मनी के एक प्रतिष्ठित संस्थान में फेलो रह चुके हैं। यह लेख उनकी फेसबुक पोस्ट से साभार प्रकाशित है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।