नेहरू की सीख और प्रभाष जोशी की परंपरा का नाश कर दिया मनोरोगी संपादकों ने !

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भाऊ कहिन-13

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

 

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ? 

 

धर्म और जाति से निरपेक्षता , आलोचनात्मक दृष्टि और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति दिली नफरत का मुजाहिरा आज हिन्दी अखबारों में साफ – साफ दिख जाता है ।

‘ दिनमान ‘ , ‘ रविवार ‘ , पुरानी ‘ चौथी दुनिया ‘ , परम आदरणीय , यशस्वी संपादक स्व. राजेन्द्र माथुर के नेतृत्व वाले नभाटा और स्व. प्रभाष जोशी के जनसत्ता तक , अकादमिकता , लोकतांत्रिकता और विमर्श ही हिन्दी अखबारों का खाद – पानी था ।

तब गली – गली यानि आज की तरह बहुतायत में , अखबारों और पत्रकारिता के लिए भविष्य की नर्सरी भी नहीं खुल गयी थी ।
( इनपर भी कभी लिखूंगा । उन विश्वविद्यालयों पर भी जहां से थोक भाव में पत्रकारिता के पीएचडी निकलते हैं )

हिन्दी अखबारों की वह रवायत आज के मनोरोगी प्रधान संपादकों और संपादकों ने खत्म कर दी । इसीलिये अब हिंदी अखबारों में औपनिवेशिक नस्लीयता और वर्ग या जाति के आधार पर चले आ रहे पदानुक्रम का प्रतिबिंबन हो रहा है ।

हालांकि खुद को बचा ले गया , इसके खमियाजे भी भुगतने पड़े लेकिन , इसी ढांचे में मैंने भी काम किया । आज उसका प्रायश्चित कर रहा हूं ।

असहमति का शुरू यह सिलसिला ही पंकज श्रीवास्तव जैसे प्रखर पत्रकार के जन्मदिन पर उनके लिये अशेष शुभकामना भी है । तुम्हारा होना हम सब के लिए बहुत जरूरी है । अनीति – कुनीति से लड़ रहे असल पत्रकारों के लिये भी ।
पंकज तुम्हें जन्मदिन की बधाई । देर से ही सही ।

धार्मिक मदांधता और जातीय अभिमान के गारे से तैयार हिन्दी अखबारों के नये खांचे में , नवके संपादकों के रहते , प्रश्नाकुलता , आलोचना और बहस की कोई गुंजाइश ही नहीं बची । इसीलिये 40 के आसपास के लोगों की नियुक्तियां रोक दी गईं ।
30 से 35 तक के लोगों को न्यूज , जो अब कन्ज्यूमर प्रोडक्ट है , के धड़धड़ उत्पादन की मशीन और कल – पुर्जों में आसानी से बदला जा सकता है । वे आंख पर पट्टी लगे कोल्हू के बैल में बेहतर बदले जा सकते हैं । क्योंकि यहां तो हर चीज तय है ।

दिल्ली से निर्देश आता है एडवांस प्लानिंग का ।
सब कुछ पहले से प्लांड ।

एक रिपोर्टर बाढ़ से जूझ रहे लोगों की जिंदगी देखने जा रहा है , कोई दंगा ।
बेवकूफ न्यूज एडिटर को बता कर जाये कि वह वहां क्या – क्या देखेगा ।
यह शायद इसलिए भी होता हो कि रिपोर्टर वह न देखे जो संस्थान नहीं चाहता ।

स्पॉट से आयी रिपोर्ट में गैरजरूरी , 4 – 5 बॉक्स निकाले जाएंगे । 8 – 10 सब हेड्स निकाले जायेगें । इसे वे पैकेजिंग कहते हैं ।
उन्हें आज तक नहीं मालूम कि किसी सूचना के साथ जब उसके सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक कारकों की पड़ताल जुड़ती है , तभी वह मुकम्मल खबर या रपट होती है ।
उसकी कैसी पैकेजिंग ? मुझसे कई बार , मेरी ही रपटों को लेकर , कुछ जागरूक पाठकों ने शिकायत की —
इस तरह के बॉक्स और सबहेड नैरेशन बाधित करते हैं । रुचि से पढ़ने का प्रवाह टूटता है ।

फिलहाल तो मुझे वह ब्रांड मैनेजर याद आ रही है जिसे देखकर मेरे साथी विशेष संवाददाता ने गाया था , न्यूजरूम के बाहर सिगरेट फूंकते हुए —
मोहब्बत में ये इंतिहा हो गयी / मस्ती में तुमको खुदा कह गया ।
मैंने भी गाया था – तुझमें रब दिखता है ..।
इसके चक्कर में मालिक से महाप्रबन्धक तक की
‘ नसीबन तेरे लिए ‘ वाली हालत हो गयी ।
लड़की अच्छी थी । लेकिन हिन्दी अखबार ।
उसे चटख कहानी बनना था ।
फिर उसे कहानी बनाने वालों की भी कहानी बनी । घर टूटने की नौबत आ गयी ।

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…और ग़लती सुधार ली प्रभाष जोशी ने 

‘ … आज के जमाने में सार्वजनिक जीवन में पत्रकारिता और पत्रकारों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है । हिंदुस्तान में या तो सरकार के जरिये या अखबारों के मालिकों के जरिये या फिर विज्ञापनदाताओं के दवाब से तथ्यों को दबाये जाने की आशंका है । गो कि मैं इस बात का बुरा नहीं मानता कि अखबार अपनी नीति के मुताबिक किसी खास तरह की खबरों को तरजीह दें , लेकिन मैं खबरों को दबाये जाने के खिलाफ हूं , क्योंकि इससे दुनिया की घटनाओं के बारे में सही राय बनाने का एकमात्र साधन जनता से छिन जाता है ।

जरूरी यह है कि लोगों को सही और काफी सूचनाएं मिलें और उन्हें अपनी राय कायम करने दी जाये । गोकि अखबार बेशक सार्वजनिक मत के निर्माण में मदद देते हैं । जर्मनी और इटली के अखबार आजाद नहीं हैं । वे वही चीजें छापते हैं , जो नात्सी और फासिस्ट शासक छपवाना चाहते हैं । हकीकतन जर्मनी के जर्मनों को अपने अखबारों से यह नहीं मालूम हो पाता कि उनके अपने मुल्क में क्या हो रहा है । इन मामलों की जानकारी वे उन विदेशी अखबारों से हासिल करते हैं , जिन्हें वहां आने दिया जाता है । मैं बरतानवी अखबारों की तारीफ करता हूं । इंग्लैंड में भी कुछ खास तरह की खबरों को जान – बूझ कर दबाया जाता है । गोकि ब्रिटिश सरकार खबरे छापने के मामले में अखबारों के अधिकार में खुले आम दस्तंदाजी नहीं करती । लेकिन अखबारों को प्रभावित करने के ब्रिटिश फॉरेन आफिस के अपने तौर – तरीके हैं और अखबार वाले आम तौर पर उनके सुझाव मान लेते हैं । जहां तक हिन्दुस्तान का ताल्लुक है , ब्रिटिश अखबारों का भरोसा नहीं किया जा सकता । वे हिन्दुस्तान के बारे में कुछ खास मामलों के अलावा सच्ची बातें नहीं छापते । मैं उम्मीद करता हूं कि हिंदुस्तान में उन खबरों को दबाने की प्रवृत्ति नहीं बढ़ेगी , जिन्हें निहित – स्वार्थ पसंद नहीं करते । वह ताकत अपने हाथ में रखिये , अगर वह गयी तो आपका महत्व भी गया ।

*** जवाहरलाल नेहरू
( बंबई ‘ आज के मुंबई ‘ के पत्रकारों द्वारा दिये गये अभिनंदन – पत्र का जवाब , 24 अगस्त 1936 ‘ द बाम्बे क्रॉनिकल ‘ , 25 अगस्त 1936 )
नेहरू के इस वक्तव्य को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए ताकि जान सकें कि हम कहां हैं ? आत्ममंथन के लिये भी इसे पढ़ा जाना जरूरी है ।

खासकर सभी हिंदी अखबार जब झूठ – फरेब और जनता को भटकाने के लिये आपराधिक दक्षता से उकसाये / खड़े किये गये उन्माद के पक्ष हैं ।

हिंदी अखबारों ( एक – दो को छोड़ ) के इस चरित्र का पूरी तरह प्राकट्य 6 दिसम्बर 1992 से हुआ ।

लखनऊ में आयोजित एक सेमिनार की याद आ रही है ।
परम आदरणीय स्व. प्रभाष जोशी जी बोल गए — .. अगर मंदिर मुद्दे पर हिंदी अखबार पगलाये थे तो मंडल मुद्दे पर अंग्रेजी अखबार भी कम नहीं पगलाये । क्यों केवल हिन्दी अखबार को ही कठघरे में खड़ा किया जाये ।
मैंने और मेरे साथी ने तुरंत बांयी हथेली में तर्जनी अंगुली धंसा कर , चिल्लाते हुए अपनी असहमति दर्ज करायी थी ।
— आप का गलत इसलिए न्यायसंगत नहीं हो जाता कि दूसरों ने भी वैसा ही किया
गजब के लोकतांत्रिक थे जोशी जी । उन्होंने तुरन्त अपने वक्तव्य में अपेक्षित सुधार किया ।
जो यह पोस्ट पढ़ रहे हैं उन्हें जोशी जी का लिखा ‘ आडवाणी का धत् करम ‘ याद होगा ।
जोशी जी ने जो लिखा था , उसकी पहली लाइन आज तक याद है — शाम के धुंधलके में बाबरी मस्जिद के ढहे मलबे पर , रामलला मुझे बहुत उदास दिखे ।

मैंने पिछली पोस्ट में वीरेन डंगवाल , हरिवंश और नवीन जोशी जैसे संपादकों के लिखे को याद किया था । आज के कुछ मूर्ख संपादक कहते हैं — अखबारों में छपी खबरों और रपटों की उम्र कुछ घण्टे ही होती है

वे सच कह रहे हैं । उन्होंने खबरों को ऐसे उपभोक्ता माल में बदल दिया है , जिसका उपभोग तुरन्त न हुआ तो खराब हो जायेगा ।

फिलहाल तो याद आ रही है फिर , वह विज्ञापन मैनेजर । रीजनल मीट के बाद की शाम वाली जुटान है ।
संपादक 5 पैग के बाद भावुक हो गया है । कार्यकारी संपादक की आंखे चौड़ी और चौड़ी होती जा रही हैं । ‘ तेरी चाल है नागन … ( हिच्च ..हूंऊ .. । उसके गाने का मुखड़ा पूरा नहीं हो पा रहा है )
विज्ञापन मैनेजर खास पनीला सम्मोहन लिये डांस फ्लोर पर आ गयी है ।
नव अभिजन मालिक उसके साथ नाच रहा है — बीड़ी जलाइले जिगर से …।
संपादक भी नाचने लगा है । यह बदले समाज की प्रकृति है । अखबार का नारा भी है — बदलते मौसम का अखबार ।
कार्यकारी संपादक बताता है – समाज का यही बदलाव पकड़ना है , इसके साथ होना है । यहां शब्दों की पहचान नहीं रही ।
नाचने वाले को जानने की जरूरत भी क्या है कि दर्द क्या है ?
सौदागर की झोली भरनी चाहिये ।
विज्ञापन मैनेजर भी इसी तनाव में कमर की कटाव से निकले और देह की लचक में लटके गाने पर खुद को खोल कर नाच रही है ।
न हुआ ऐसा तो कह दिया जायेगा – संस्थान को आपकी जरूरत नहीं है ।
मालिक गा रहा है — थोड़ी सी तो लिफ्ट करा दे ।
विज्ञापन मैनेजर खिलखिला रही है ।
अखबार का कंटेंट यहीं से ऐसे ही आयोजनों से निकलेगा ।
मैं अपना पैग लेकर अपने शब्दों के साथ हाल के बाहर चला आया हूं ।

भीतर नदी उफनने लगी है । भूतहा बलान – गण्डक – कोसी की प्रलयंकारी लहरों पर , इस सिरे से उस सिरे तक आम लदी डोंगी पर बैठकर , खौफनाक शाम को बाढ़ क्षेत्र में की गयी अपनी यात्रा मुझे याद आने लगी है ।
मैं डूब रहा हूं शराब के नशे में नहीं । नदी में । नशा तो हिरन हो गया , उस मंजर की याद आते ही ।

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उन्मादी एक्सप्रेशन्स और मुनाफ़े का कारोबार 

 

इसी शाम मेरे लिये एक और जिम्मेदारी तय कर दी गयी ।
मूल वजह मुनाफे का एक और स्रोत खोलने की थी । सभी अचानक विल्डरों की परेशानी को लेकर चिंतित हो गये ।
तय हुआ उनकी एक बैठक कार्यालय के ही सभागार में बुलायी जाये और मैं उसके औचित्य सहित , उसकी पूर्वपीठिका लिख दूं । लोगों का स्वप्नलोक रचने के लिये मुझे प्रेरित किया जाने लगा ।

— भाऊ मलंग हैं …. जादू है इनमें … एक और लो .. ( स्टेट हेड ने खुद ही पैग बनाया )

दरअसल एक अंग्रेजी अखबार की तर्ज पर यह हिन्दी अखबार अपनी हर गतिविधि को ( संपादकीय टीम की भी ) पैसा बटोरने में यानि मुनाफे के व्यवसाय से जोड़ देने पर आतुर हो चुका था ।
नान पॉलिटिकल तो वे शुरू से थे ।
इसीलिये हमेशा उन्मादी एक्सप्रेशन्स को ही तरजीह दी ।
और अल्पसंख्यक ,जेंडर या वंचित समूहों के अधिकार के खिलाफ होते गये ।

कार्यकारी संपादक ने बताया —
अपने पाठक को जानो , जिसके बूते हम यहां पहुंचे हैं ।
विज्ञापन मैनेजर अब सुस्ता रही थी और अपनी निजता बचा लेने का अभिनय भी । लेकिन सांसें असली थीं इसलिए लड़की होने की परतें उधेड़ रही थीं ।
मालिक ने कहा – .. थक गयी हो
— उसने खुले बाल झटके और कहा ना
फिर सब एक साथ खड़े हो गये । फोटो खिंचवाई जाने लगी ।

एक न्यूज एडिटर भोंडी आवाज में गाने लगा — हम होंगे कामयाब ।
हो सकता है दो यूनिटों में लात खा जाने का रोना रो रहा हो ।

जारी….

पिछली कड़ियों के लिए चटका लगाएँ—

भाऊ कहिन-12-संपादक मज़े में है, मालिक भी मज़े में, पत्रकार ही तबाह यहाँ भी है, वहाँ भी

भाऊ कहिन-11– बनिया (मालिक)+ ब्राह्मण (संपादक)= हिंदी पत्रकारिता 

भाऊ कहिन-10–संपादक ने कहा- रिपोर्टर लिक्खाड़ नहीं ‘लॉयल’ चाहिए !

भाऊ कहिन-9-प्रमुख सचिव से करोड़ों का विज्ञापन झटकने वाला औसत पत्रकार बना संपादक !

भाऊ कहिन-8- दिल्ली से फ़रमान आया- ‘प्रभाष जोशी के देहावसान की ख़बर नही जाएगी !’

भाऊ कहिन-7–  वह संपादक सरनेम नहीं लिखता, पर मोटी खाल में छिपा जनेऊ दिखता है !

भाऊ कहिन-6 —संपादक ने कहा- ये रिपोर्टर मेरा बुलडॉग है, जिसको कहूँ फाड़ डाले !