संपादक मज़े में है, मालिक भी मज़े में, पत्रकार ही तबाह, यहाँ भी है वहाँ भी !

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भाऊ कहिन-12

यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक

 

हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ? 

ज्यादा नहीं 20 साल पहले तक पर नजर डालें तो , पत्रकारिता की चालक ताकत संपादक और पत्रकार हुआ करते थे । इतिहास भी उनका ही रहा है ।
अब सीईओ , संपादक भी हो रहे हैं । अखबार के लिए ब्रांड मैनेजर जैसी अवधारणा हाल के सालों की ही है ।
इसीलिये अब कंटेंट विभिन्न समाजों के अस्तित्वगत बोध , संघर्ष और आकांक्षा के न होकर , उपभोक्ता वस्तुओं के प्रमोशन के हैं ।

इन 10 सालों के बीच संपादक नाम का प्राणी सर्वाधिक निरीह और असहाय हो चला है ।
प्रबंधन के आगे लतियाये आदमी की शक्ल लेकर प्रस्तुत हो सकने वाला ही अब संपादक है ।
वही अपने नीचे की कतार का खून भी चूस सकता है ।यह हर उस अखबार का हाल है जिसका दावा जगराते या जागरण का है , जिसका आमुख ( मस्टहेड ) कहता है — मैं हिन्दुस्तान हूं । या जिसका नाम सूरज के नामों में से एक हो ।

शायर निदा फाजली याद आ रहे हैं —
हिंदू भी मजे में हैं / मुसलमां भी मजे में / इंसां परेशान / यहां भी वहां भी
अखबारों की हालात पर कहना चाहता हूं –
मालिक भी मजे में है / संपादक भी मजे में / पत्रकार तबाह है / यहां भी वहां भी

मालिक का तलवा चाट कर संपादक बने लोगों का वर्ग रूपान्तरण भी हो चुका है । वे ताकतवर रुतबे वालों में शामिल हैं । वे अत्याचारी हैं और उनका गुस्सा कमजोर और जायज लोगों पर ही फूटता है । इनके ऐश का रास्ता ऐसी ही क्रूरताओं से निकलता है ।
उन्मादी भीड़ द्वारा किसी की हत्या का मामला हो या बलात्कार का , प्रमाणिकता और निष्पक्षता जैसे जुमलों की आड़ लेकर ये अत्याचारी के साथ खड़े हो जाते हैं । अब यही इनके फितरत में है ।

मंत्री , प्रमुख सचिव , सचिव , कलक्टर की तो जानें दें , थानेदार की शिकायत पर ही रिपोर्टर नौकरी से निकाला जा सकता है ।
इलाके का कोई तेज – तर्रार थानेदार ऐसे संपादकों का हमप्याला होता है ।
तभी तो सर्विस में थोड़ी सी चूक होने पर कोई संपादक होटल / बार और रेस्तरां के
मैनेजर को झापड़ जड़ सकता है ।

इसमें कुछ ऐसे संपादक भी होते हैं जिन्हें विज्ञापन वाले लतिया चुके हैं ।
वे आक्रामक होने का इसीलिये अभिनय करते हैं ।
सूरज नाम वाले अखबार का लिजलिज संपादक बड़ा जातिवादी है ।
वह ब्राम्हण नहीं है ।
बभनौटी वाले जातिवाद पर लिख चुका हूं । यह संपादक मालिक का चेतक होना चाहता है ।
लेकिन एक सजातीय को ही तबाह किये है तो बस इसलिये कि  वह पढ़ा – लिखा पत्रकार है और उसके आदर्श पी साईंनाथ हैं ।



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जो पत्रकार जितना लंपट था, उसकी उतनी तरक्की हुई !

 

जवाहरलाल नेहरू के ‘ डिस्कवरी ऑफ इंडिया ‘ की कुछ लाइनें बहुत याद आ रही हैं —

‘ एक सृजनशील अल्पमत सदैव संख्या में कम होता है , लेकिन यदि वह बहुमत के प्रति संवेदी है और उसे ऊपर उठाने के लिये , उसे तरक्की की ओर ले जाने के लिये सक्रिय है ताकि अल्पमत और बहुमत के बीच दूरी कम हो सके , तो एक स्थायी और प्रगतिशील संस्कृति की रचना होती है । उस सृजनशील अल्पमत के बिना एक सभ्यता का ह्रास अनिवार्य है , लेकिन उसका तब भी ह्रास अनिवार्य है अगर अल्पमत और बहुमत का संबंध टूट जाय और समाज की आंतरिक एका में दरार आ जाय ।’
ये पंक्तियां बहुत प्रासंगिक हैं , इन्हें फिर पढ़ा जाना चाहिये , साहित्य और उसके सरोकार के वृहत्तर सन्दर्भों में । जिसका दावा है – वह जन – जन की आवाज है । जीवन का पुनर्सृजन है ।

पत्रकारिता के बारे में भी बताया तो यही गया कि साहित्य वह भी है , जल्दीबाजी का ।
लेकिन , हिन्दी अखबार जो अंग्रेजी के दुमछल्ले हैं , जो ‘ हिन्दी के नहीं ‘ , ‘ हिन्दी में हैं ‘ उन्हें लेकर एक दर्द तो है –
…. कब सुब्ह – ए – सुखन होगी , कब शाम – ए – नजर होगी .. ।

किसी कीमत पर बस मुनाफा की लपलप चाह से चालित , मालिक के मूड के कंपास ( दिशा सूचक ) कुछ टुच्चे संपादकों ने कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा कर दी है ।
— अपना मुंह मेरे कान के करीब लाओ और हमेशा वही सुनाओ जो मुझे अच्छा लगे ।
उस दबंग संपादक ने आका के इस आदेश के बाद
अखबार की हड़ताल तुड़वाने का ठीका ले लिया । पहुंच गये ।
लोग कहते हैं मेरे व्यक्तित्व में आंचलिकता की ,
इलाकाई माटी की छाप है । मेरे चयनित शब्दों में भी वह आग्रह झलकता है ।
एक मित्र ने बताया उस संपादक की पीठ पर तो बहुत दिनों तक हलवाई के बड़े छनौटे के दाग ( छाप ) थे । जब उन्होंने ढाबे के बुझे चूल्हे को फायर झोंक कर जलाने की कोशिश की थी ।

लंपटई मालिक को रास आती है ।

प्रतिस्पर्धी को तबाह करने उसे भीड़ जुटा कर गाली दिलवाने जैसे पराक्रमी कामों के लिये ।
जो खुद को जितना बड़ा लंपट दिखा सका , उसकी उतनी ही तरक्की हुई ।
लिहाजा लंपटई ही हिन्दी अखबारों की अपरिहार्य संस्कृति होती गयी ।
अपने साथ ऐसे लोग आज भी हैं , जिन्होंने पत्रकारिता को पसंद किया तो उन्होंने और कोई चाह न की ।
लेकिन वे अखबार छोड़ चुके हैं और कुछ छोड़ने वाले हैं ।

इन संपादकों को देखो , इनके मन की परतों को पढ़ने की कोशिश करो तो वे जाने किस चीज की तलाश में उलझे मिलते हैं ।
इनके पास इस पेशे में होने का कोई वाजिब तर्क भी नहीं है । इसीलिये ये पत्रकारिता करें या दलाली । क्या फर्क पड़ता है ।
जारी….

पिछली कड़ियाँ पढ़ने के लिए नीचे के लिंक पर चटका लगाएँ—

भाऊ कहिन-11बनिया (मालिक)+ ब्राह्मण (संपादक)= हिंदी पत्रकारिता 

भाऊ कहिन-10–संपादक ने कहा- रिपोर्टर लिक्खाड़ नहीं ‘लॉयल’ चाहिए !

भाऊ कहिन-9-प्रमुख सचिव से करोड़ों का विज्ञापन झटकने वाला औसत पत्रकार बना संपादक !

भाऊ कहिन-8- दिल्ली से फ़रमान आया- ‘प्रभाष जोशी के देहावसान की ख़बर नही जाएगी !’

भाऊ कहिन-7–  वह संपादक सरनेम नहीं लिखता, पर मोटी खाल में छिपा जनेऊ दिखता है !

भाऊ कहिन-6 —संपादक ने कहा- ये रिपोर्टर मेरा बुलडॉग है, जिसको कहूँ फाड़ डाले !