पंकज श्रीवास्तव
मोहम्मद अली जिन्ना का अंत हताश और निराश व्यक्ति के रूप में हुआ। पाकिस्तान बनने के 13 महीने भी न बीते थे कि बुरी तरह बीमार जिन्ना की 11 सितंबर 1948 को मौत हो गई। लेकिन मरने से पहले उन्होंने अपने डाक्टर लेफ्टिनेंट कर्नल इलाही बख्श से गहरी उदासी के आलम में कहा था-‘डॉक्टर पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है।’
डॉक्टर इलाही बख्श ने यह बात अपनी डायरी ( With the Quaid-i-Azam During His Last Days ) में लिखी थी, जिसके हवाले से कई किताबों में इस बात को दर्ज किया गया। लेकिन बाद में पाकिस्तान नें इन किताबों का जिक्र भी अपराध बन जो उसके अस्तित्व की बुनियाद पर सवाल उठाती थीं।
बहरहाल, जिन्ना की ज़िंदगी के ‘हासिल’ से सबक न पाकिस्तान में लिया गया और न हिंदुस्तान में। भारत के नेताओं ने एक सेक्युलर राष्ट्र बनाकर जिन्ना से अलग एक आदर्श की नींव रखी थी। यह एक संकल्प भी था और चुनौती भी।
बांग्लादेश निर्माण ने ‘धर्म को राष्ट्र का आधार’ बताने के सिद्धांत को गलत साबित कर दिया। लेकिन ‘हिंदू राष्ट्र’ का सपना देखने वाले फिर भी जूझ रहे हैं। क्या वे कभी समझेंगे कि वे कितनी बड़ी भूल कर रहे हैं? जिस देश के विकास का वे दावा करते हैं, उसे सांप्रदायिकता की आग में राख करने के बाद बचेगा ही क्या?
भारत में हिंदू और मुसलमान लगभग हज़ार साल से साथ रह रहे थे। इस मेल ने एक साझा तहज़ीब विकसित की थी। लेकिन आज़ादी के आंदोलन को तिलांजलि देकर, अंग्रेज़ों से माफ़ी माँगकर 1927 में छूटे विनायक दामोदर सावरकर कहने लगे कि हिंदू और मुसलमान ‘दो राष्ट्र’ हैं और दोनों साथ नहीं रह सकते। 1937 में अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर ने घोषणा की कि हिंदू और मुसलमान पृथक राष्ट्र हैं।
सावरकर के विचार को सबसे ज़्यादा समर्थन मिला मोहम्मद अली जिन्ना से जिनको इससे ‘भारत में ही स्वायत्त मुस्लिम राज्य’ के बजाय ‘अलग इस्लामी देश’ बनाने का वैचारिक आधार मिल गया। 1940 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में मुसलमानों के लिए ‘अलग होमलैंड’ का प्रस्ताव पारित हुआ। ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय आंदोलन’ के ख़िलाफ़ एकजुट हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की निकटता इतनी बढ़ी कि जब 1942 में गांधी के आह्वान पर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ ‘करो या मरो’ का नारा गूँज रहा था तो दोनों मिलकर बंगाल और नार्थ वेस्ट फ्रंटियर में सरकार चला रहे थे। दिलचस्प बात है कि आरएसएस और बीजेपी के प्रात:स्मरणीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल की उस सरकार के वित्तमंत्री थे और उन्होंने सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज को बंगाल में घुसने न देने के लिए अंग्रेज़ आक़ाओं के सामने भारी भरकम योजना पेश की थी।
बहरहाल बात जिन्ना की करें, जिनकी 1938 में एएमयू छात्रसंघ की मानद सदस्यता की वजह से लटक रही तस्वीर इन दिनों विवाद का मुद्दा बन गई है या इसे मुद्दा बनाया जा रहा है। न यह तस्वीर आज लगाई गई है और न यूपी और केंद्र में पहले रही बीजेपी सरकारों के समय इस पर आपत्ति जताई गई थी। वैसे भी, जिन्ना को इतिहास से निकालना नामुमकिन है। इतिहास की गैलरी में तोड़फोड़ की कोशिश हमेशा हास्यास्पद होती है। इतिहास से सिर्फ़ सबक लिया जा सकता है ताकि भविष्य में फिर वे ग़लतियाँ न हों जो इतिहास में हुईं।
इसमें शक नहीं कि आज जिन्ना की छवि एक कट्टरवादी नेता की है जिसने भारत विभाजन कराने का ‘गुनाह’ किया, लेकिन शुरुआत में जिन्ना की छवि एकदम उलट थी। वे प्रखर राष्ट्रवादी माने जाते थे और भारत कोकिला सरोजिनी नायडू तो उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक कहती थीं। वे गोपाल कृष्ण गोखले के शिष्य थे और कहा जाता है कि गोखले के कहने पर ही उन्होंने 1913 में लंदन में मुस्लिम लीग की सदस्यता ले ली। मकसद था मुस्लिम लीग को कांग्रेस के करीब लाकर राष्ट्रीय आंदोलन को गति देना। गोखले का कहना था कि ‘जिन्ना में वास्तविक गुण हैं कि और वे सभी तरह के संकीर्ण पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, जो उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का श्रेष्ठ प्रवर्तक बनाएंगे.’
यह इतिहास की विडंबना ही है कि ऐसा सेक्युलर नेता मज़हबी राष्ट्र बनाने के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन’ जैसे खूनी खेल तक पहुँचा। उसके बाद पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के उनके ख्वाब का कोई अर्थ नहीं रहा। नफ़रत की बुनियाद पर बने राष्ट्र का वही हो सकता था जो वहाँ हो रहा है। राष्ट्र निर्माण किन्हीं आदर्शों पर होता है जुगाड़ से नहीं। लोगों में नफ़रत भर कर कोई शांति का चमन कैसे बना सकता है! देश बनाना और छल-छद्म के सहारे मुकद्दमा जीतना, दो बाते हैं।
पाकिस्तान जिन्ना के लिए एक मुकद्दमा ही था जिसे जीतकर भी वे हार गए। जिन्ना की तस्वीर मिटाने का सच्चा अर्थ सिर्फ़ यही हो सकता है कि धर्म आधारित राजनिति पूरे भारतीय महाद्वीप से विदा हो। इस तस्वीर को हटाने से जिन्ना की रूह को भी आराम मिलेगा। उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल का यही सुधार है।
डॉ.पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक और इतिहास के शोधार्थी हैं।