महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गाँधी का निधन 22 फ़रवरी 1944 को हुआ था। वे जेल में थीं। महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देने वाले नेता जी सुभाषचंद्र बोस उन्हें पूरे भारत की माँ की तरह देखते थे। परदेश में आज़ाद हिंद फ़ौज को संगठित करके अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध अभियान छेड़ने की योजनाओं के बीच जब उन्हें यह सूचना मिली तो वे बहुत व्यथित हुए। उन्होंने इस मौत को शहादत कहा। पेश है, नेता जी सुभाष का शोक संदेश–
“श्रीमती कस्तूरबा गांधी नहीं रहीं। 74 वर्ष की आयु में पूना में अंग्रेजों के कारागार में उनकी मृत्यु हुई।
कस्तूरबा की मृत्यु पर देश के अड़तीस करोड़ अस्सी लाख और विदेशों में रहने वाले मेरे देशवासियों के गहरे शोक में मैं उनके साथ शामिल हूं।
उनकी मृत्यु दुखद परिस्थितियों में हुई।
लेकिन एक ग़ुलाम देश के वासी के लिए कोई भी मौत इतनी सम्मानजनक और इतनी गौरवशाली नहीं हो सकती. हिन्दुस्तान को एक निजी क्षति हुई है।
डेढ़ साल पहले जब महात्मा गांधी पूना में बंदी बनाए गए तो उसके बाद से उनके साथ की वह दूसरी कैदी हैं, जिनकी मृत्यु उनकी आंखों के सामने हुई.
पहले कैदी महादेव देसाई थे, जो उनके आजीवन सहकर्मी और निजी सचिव थे। यह दूसरी व्यक्तिगत क्षति है जो महात्मा गांधी ने अपने इस कारावास के दौरान झेला है।
इस महान महिला को जो हिन्दुस्तानियों के लिए मां की तरह थी, मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
और इस शोक की घड़ी में मैं गांधीजी के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करता हूं।
मेरा यह सौभाग्य था कि मैं अनेक बार श्रीमती कस्तूरबा के संपर्क में आया और इन कुछ शब्दों से मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा।
वे भारतीय स्त्रीत्व का आदर्श थीं, शक्तिशाली, धैर्यवान, शांत और आत्मनिर्भर।
कस्तूरबा हिन्दुस्तान की उन लाखों बेटियों के लिए एक प्रेरणास्रोत थीं जिनके साथ वे रहती थीं और जिनसे वे अपनी मातृभूमि के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मिली थीं।
दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के बाद से ही वे अपने महान पति के साथ परीक्षाओं और कष्टों में शामिल थीं और यह सामीप्य तीस साल तक चला।
अनेक बार जेल जाने के कारण उनका स्वास्थ्य प्रभावित हुआ लेकिन अपने चौहत्तरवे वर्ष में भी उन्हें जेल जाने से जरा भी डर न लगा।
महात्मा गाँधी ने जब भी सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया, उस संघर्ष में कस्तूरबा पहली पंक्ति में उनके साथ खड़ी थीं।
हिन्दुस्तान की बेटियों के लिए एक चमकते हुए उदाहरण के रूप में और हिन्दुस्तान के बेटों के लिए एक चुनौती के रूप में कि वे भी हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई में अपनी बहनों से पीछे नहीं रहीं।
कस्तूरबा एक शहीद की मौत मरी हैं। चार महीने से अधिक समय से वे हृदयरोग से पीड़ित थीं।
लेकिन हिन्दुस्तानी राष्ट्र की इस अपील को कि मानवता के नाते कस्तूरबा को खराब स्वास्थ्य के आधार पर जेल से छोड़ दिया जाए, हृदयहीन अंग्रेज सरकार ने अनसुना कर दिया.
शायद अंग्रेज यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि महात्मा गाँधी को मानसिक पीड़ा पहुंचा कर वे उनके शरीर और आत्मा को तोड़ सकते थे और उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कर सकते थे।
इन पशुओं के लिए मैं केवल अपनी घृणा व्यक्त कर सकता हूं जो दावा तो आजादी, न्याय और नैतिकता का करते हैं लेकिन असल में ऐसी निर्मम हत्या के दोषी हैं।
वे हिन्दुस्तानियों को समझ नहीं पाए हैं। महात्मा गाँधी या हिन्दुस्तानी राष्ट्र को अंग्रेज़ चाहे कितनी भी मानसिक पीड़ा या शारीरिक कष्ट दें, या देने की क्षमता रखें, वे कभी भी गाँधीजी को अपने अडिग निर्णय से एक इंच भी पीछे नहीं हटा पाएँगे।
महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़ने को कहा और एक आधुनिक युद्ध की विभीषिकाओं से इस देश को बचाने के लिए कहा।
अंग्रेजों ने इसका ढिठाई और बदतमीजी से जवाब दिया और गांधीजी को एक सामान्य अपराधी की तरह जेल में ठूंस दिया.
वे और उनकी महान पत्नी जेल में मर जाने को तैयार थे लेकिन एक परतंत्र देश में जेल से बाहर आने को तैयार नहीं थे।
अंग्रेजों ने यह तय कर लिया था कि कस्तूरबा जेल में अपने पति की आंखों के सामने हृदयरोग से दम तोड़ें।
उनकी यह अपराधियों जैसी इच्छा पूरी हुई है, यह मौत हत्या से कम नहीं है।
लेकिन देश और विदेशों में रहने वाले हम हिन्दुस्तानियों के लिए श्रीमती कस्तूरबा की दुखद मृत्यु एक भयानक चेतावनी है कि अंग्रेज एक-एक करके हमारे नेताओं को मारने का ह्रदयहीन निश्चय कर चुके हैं।
जब तक अंग्रेज हिन्दुस्तान में हैं, हमारे देश के प्रति उनके अत्याचार होते रहेंगे।
केवल एक ही तरीका है जिससे हिन्दुस्तान के बेटे और बेटियां श्रीमती कस्तूरबा गांधी की मौत का बदला ले सकते हैं, और वह यह है कि अंग्रेजी साम्राज्य को हिन्दुस्तान से पूरी तरह नष्ट कर दें।
पूर्वी एशिया में रहने वाले हिन्दुस्तानियों के कंधों पर यह एक विशेष उत्तरदायित्व है, जिन्होंने हिन्दुस्तान के अंग्रेज शासकों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ दिया है।
यहां रहने वाले सभी बहनों का भी उस उत्तरदायित्व में भाग है।
दुख की इस घड़ी में हम एक बार फिर उस पवित्र शपथ को दोहराते हैं कि हम अपना सशस्त्र संघर्ष तब तक जारी रखेंगे, जब तक अंतिम अंग्रेज को भारत से भगा नहीं दिया जाता।”
(नेताजी संपूर्ण वांग्मय, पृ. 177,178 )