‘जन गण मन’ का विरोध ! तो टैगोर की नहीं कल्याण सिंह की सुनोगे मौलाना !

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पंकज श्रीवास्तव

 

उत्तर प्रदेश में पहली बार किसी सरकार ने मदरसों के लिए स्वतंत्रता दिवस मनाने, राष्ट्रगान गाने और उसकी वीडियग्राफ़ी कराने का निर्देश दिया। इस आदेश से यह ध्वनि निकलती है कि मदरसों में स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाया जाता।

हक़ीक़त बिलुकल अलग है। मदरसों में यह समारोह धूम-धाम से मनाया जाता रहा है। ऐतराज़ ‘वंदे मातरम्’ को लेकर रहा है और इस विवाद का सिरा आज़ादी के पहले तक जाता है। राष्ट्रगान यानी ‘जन गण मन’ पर राष्ट्रव्यापी सहमति रही है। अजीब बात ये है कि योगी सरकार के निर्देश में ‘राष्ट्रगान’ यानी जन-गण-मन गाने का ज़िक्र था  जिस पर विवाद की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन हैरतअंगेज़ ढंग से बरेलवी सम्प्रदाय के कुछ मैलानाओं ने इस पर ऐतराज़ जता दिया। (ना जताते तो योगी सरकार का निर्देश बेमानी हो जाता। वीडियोग्राफ़ी का आदेश तो सरकार के लिए उलटा ही पड़ा है। )

तो मौलानाओं की वजह से इस बार कई मदरसों में स्वतंत्रता दिवस तो मनाया गया लेकिन राष्ट्रगान नहीं गाया गया। इस सिलसिले में मौलानाओं ने जो कहा वह आश्चर्यनजक रूप से सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की बात है जो उन्होंने राजस्थान का राज्यपाल बनने के कुछ दिन बाद कही थी। कल्याण सिंह ने राष्ट्रगान में ‘अधिनायक’ शब्द को लेकर आपत्ति जताई थी और इसे हटाने की माँग की थी। विवाद होने पर उनके समर्थकों ने ज़ोर-शोर से कहा था कि अधिनायक से मुराद ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम से है रवींद्रनाथ टैगोर ने उनके स्वागत के लिए ही जन-गण-मन की रचना की थी।

बहरहाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग हमेशा से ही इस तरह की सुरसुरी छोड़ते रहे हैं, जिसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मौलानाओं को क्या सूझी कि वे इस आग में घी डालें। वंदे मातरम पर ऐतराज़ की वजह तो समझी जा सकती है। इसमें शक नहीं कि बंकिम चंद्र के उपन्यास ‘आनंद मठ’ में मुसलमानों के ख़िलाफ़ भीषण नफ़रत है और इसी में शामिल ‘वंदे मातरम्’ गीत भी देवी की ही अराधना है।  इसीलिए इस गीत को राष्ट्रगान नहीं बनाया गया  यानी राष्ट्र के बाध्यकारी प्रतीकों में इसका शुमार नहीं है।  राष्ट्रगान बनाया गया ‘जन गण मन’ को जो पूरे देश को जोड़ने वाला है। ‘वंदे मातरम’ के केवल पहले बंद को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया जहाँ प्रकृति चित्रण है। इसमें शक नहीं कि एक नारे बतौर ‘वंदे मातरम्’ की स्वतंत्रता आंदोलन में महान भूमिका थी, लेकिन संदर्भ और विवाद को देखते हुए संविधान सभा ने ऐसा ही करना उचित समझा।

फिर अचानक 2017 में ऐसा क्या हुआ कि मौलाना ‘वंदे मातरम्’ और ‘जन गण मन’ के फ़र्क़ को भूल गए ? क्या यह महज़ संयोग है या किसी व्यापक डिज़ायन का हिस्सा ?

मौलानाओं ने दो-तीन बातों पर आपत्ति जताई है-

भाग्यविधाता केवल अल्लाह हो सकता है !

अधिनायक की जय बोली जा रही है !

अधिनायक कोई और नहीं ब्रिटिश सम्राट है !

ऐसा लगता है कि मौलाना लोग, योगी शैली की राजनीति में अपने लिए एक केंद्रीय भूमिका की संभावना देख रहे हैं, जो  आधुनिकीकऱण का विमर्श बढ़ने से लगातार छीझती है।  नहीं तो उनसे यह उम्मीद की जाती है कि किसी फ़तवेबाज़ी से पहले वे इस कविता की समझने की कोशिश करते।

पहले भी यह सवाल पूछा जाता रहा है कि राष्ट्रगान में किस अधिनायक की बात की गयी है। एक तबका साफतौर पर मानता है कि यह अधिनायक और कोई नहीं इंग्लैंड के सम्राट जार्ज पंचम हैं जो 1911 में भारत आये थे और कलकत्ता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उनके स्वागत में ही ‘जन-गण-मन’ गाया गया। सोशल मीडया के प्रसार के साथ यह प्रचार और भी तेज़ हो गया है।

तो क्या सचमुच भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वालों ने अंग्रेज सम्राट का गुणगान करने वाले गीत को राष्ट्रगान का दर्जा दे दिया ? क्या नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कविगुरु और जलियांवाला बाग कांड के बाद
नाइटहुड की उपाधि लौटाने वाले रवींद्रनाथ टैगोर ने जॉर्ज पंचम की स्तुति की थी ? सोशल मीडिया के तमाम वीरबालक पूरी ताकत से इसका जवाब “हाँ’ में देते हैं, जबकि इस पर खुद टैगोर का स्पष्टीकरण मौजूद है।
उनके हिसाब से राष्ट्रगान में अधिनायक शब्द, राष्ट्र की जनता, उसका सामूहिक विवेक या फिर वह सर्वशक्तिमान है जो सदियों से भारत के रथचक्र को आगे बढ़ा रहा है। मूल रूप से संस्कृतनिष्ठ बांग्ला में लिखे गये इस पांच पदों वाले इस गीत का तीसरा पद ग़ौर करने लायक है-

पतन-अभ्युदय-वन्धुर पन्था, युग युग धावित यात्री।

हे चिरसारथि, तव रथचक्रे मुखरित पथ दिनरात्रि।

दारुण विप्लव-माझे तव शंखध्वनि बाजे संकटदुःखत्राता।

जनगणपथपरिचायक जय हे भारतभाग्यविधाता!

जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।

इस बंद में एक भीषण विप्लव की कामना कर रहे  टैगोर  भाग्यविधाता के रूप में कम से कम जार्ज पंचम की बात नहीं कर सकते। न अंग्रेज सम्राट की कल्पना भारत के ‘चिरसारथी’ के रूप में की जा सकती है। जाहिर है, टैगोर ऐसे आरोप सेबेहद आहत थे। वे इसका जवाब देना भी अपना अपमान समझते थे। 19 मार्च 1939 को उन्होंने ‘पूर्वाशा’ में लिखा–

‘अगर मैं उन लोगों को जवाब दूंगा, जो समझते है कि मैं मनुष्यता के इतिहास के शाश्वत सारथी के रूप में जॉर्ज चतुर्थ या पंचम की प्रशंसा में गीत लिखने की अपार मूर्खता कर सकता हूँ, तो मैं अपना ही अपमान करूंगा।’

टैगोर की मन:स्थिति का कुछ अंदाज़ 10 नवंबर 1937 को पुलिन बिहारी सेन को लिखे उनके पत्र से भी पता चलता है। उन्होंने लिखा-

“ मेरे एक दोस्त, जो सरकार के उच्च अधिकारी थे, ने मुझसे जॉर्ज पंचम के स्वागत में गीत लिखने की गुजारिश की थी। इस प्रस्ताव से मैं अचरज में पड़ गया और मेरे हृदय में उथल-पुथल मच गयी। इसकी प्रतिक्रिया में मैंने ‘जन-गण-मन’ में भारत के उस भाग्यविधाता की विजय की घोषणा की जो युगों-युगों से, उतार-चढ़ाव भरे उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए भारत के रथ की लगाम को मजबूती से थामे हुए है। ‘नियति का वह देवता’, ‘भारत की सामूहिक चेतना का स्तुतिगायक’, ‘सार्वकालिक पथप्रदर्शक’ कभी भी जॉर्ज पंचम, जॉर्ज षष्ठम् या कोई अन्य जॉर्ज नहीं हो सकता। यह बात मेरे उस दोस्त ने भी समझी थी। सम्राट के प्रति उसका आदर हद से ज्यादा था, लेकिन उसमें कॉमन सेंस की कमी न थी।“

टैगोर  इस पत्र में 1911 की याद कर रहे हैं जब जॉर्ज पंचम का भारत आगमन हुआ था। इसी के साथ 1905 में हुए बंगाल के विभाजन के फैसले को रद्द करनेका ऐलान भी हुआ था। बंगाल के विभाजन के बाद स्वदेशी आंदोलन के रूप में एक बवंडर पैदा हुआ था। 1857 की क्रांति की असफलता के बाद यह पहला बड़ा आलोड़न था जिसने पूरे देश को हिला दिया था। आखिरकार अंग्रेजों को झुकना पड़ा था। उस समय कांग्रेस मूलत: मध्यवर्ग की पार्टी थी जो कुछ संवैधानिक उपायों के जरिये भारतीयों के प्रति उदारता भर की मांग कर रही थी। ऐसे में अचरज नहीं कि बंगाल विभाजन रद्द करने के फैसले के लिए सम्राट के प्रति आभार प्रकट करने का फैसला हुआ।

27 जुलाई 1911 को इस अधिवेशन में सम्राट की प्रशंसा मे जो गीत गाया गया था वह दरअसल राजभुजादत्त चौधरी का लिखा “बादशाह हमारा” था। लेकिन चूंकि अधिवेशन की शुरुआत में जन-गण-मन भी गाया गया था इसलिए दूसरे दिन कुछ अंग्रेजी अखबारों की रिपोर्ट में छपा कि सम्राट की प्रशंसा में टैगोर का लिखा गीत गाया गया। भ्रम की शुरुआत यहीं से हुई।

तो जिनके पास कॉमनसेंस की कमी है वे इस बात पर सहज ही यक़ीन कर लेते हैं कि ‘जन गण मन’ ब्रिटने के राजा के स्वागत में रचा गया, लेकिन जो लोग इस भ्रम को लगातार बढ़ा रहे हैं, उनके पास कॉमनसेंस की कमी नहीं है। उनके पास बेहद ख़तरनाक सेंस है जो भारत नाम के विचार के टुकड़े-टुकड़े करने के लिए कॉमनसेंस रहित लोगों का इस्तेमाल कर रहा है।

बरेलवी मौलानाओं का भी इस खेल में शामिल हो जाना बताता है कि असल खिलाड़ी किस हद तक क़ामयाब हो रहे हैं।