बियाट्रीज़ आंटी को पत्र
आकिटोज़, पेरू, जून 1, 1952
… एक अपराध कुबूल करता हूँ। नरमुंड के शिकारियों वगैरह के बारे में जो मैंने आपको लिखा था, वह झूठ निकला।. दुर्भाग्य से अमेज़न इतनी खतरनाक जगह नहीं निकली – इसलिए आप के लिए झुर्रीदार खोपड़ी का तोहफा जो सोच रखा था, वह नहीं ला पाऊंगा।संक्षिप्त में, हो सके तो अपने इस कच्ची उम्र से पीड़ित प्यारे भांजे को माफ़ कर देना जो ऐसी ऊल-जलूल योजना बना रहा था। मैं अपने शहीदोचित गुण दिखाने को भी आतुर था।
पिता को पत्र
आकिटोज़, पेरू, जून 4, 1952
… यहाँ बड़ी तादाद में बीमारियां हैं जो जंगल में पोषण के साधनों की कमी से जन्मे मेटाबोलिक विकारों से होती हैं। हम निजी तौर से इससे चिंतित नहीं हैं, क्यूंकि ऐसा नहीं है कि ये बीमारियां एक हफ्ते तक विटामिन न मिलने से हो जाएँगी। हद ही हो गयी तो हम ज़्यादा से ज़्यादा इतने दिनों तक भूखे रहेंगे, अगर हम नदी के अंदरूनी इलाकों में जाने का फैसला करते हैं तो…
माँ को पत्र
ग्वायकिल, एक्वाडोर, अक्टूबर 21, 1953
… तुम्हारा दिया सूट – तुम्हारा शाहकार, तुम्हारे सपनों का मोती – गिरवी की दूकान में वीरगति को प्राप्त हुआ। साथ ही मेरे सामान की बाकी फालतू चीज़ें भी – जो अब काफी कम हो चुकी हैं। हम तीनों की आर्थिक स्थिति की बेहतरी के लिए, जो अब सुधर गई है (उफ़!)…
माँ को पत्र
ग्वातेमाला सिटी, दिसंबर 28, 1953
… हम मनागुआ पहुंचे जहाँ मुझे पापा का बेवकूफी भरा तार मिला – वह हमेशा यही करते हैं। मुझे लगता था कि वह अब तक समझ गए होंगे कि अगर मैं मर भी रहा हूँ तब भी उनसे पैसे नहीं मांगूंगा। और किसी दिन मेरा पत्र नहीं भी मिले तो धीरज रखना क्यूंकि मेरे पास कभी- कभी डाक टिकट नहीं होती है, पर यह समझ लो कि मैं बिलकुल ठीक हूँ और हमेशा कोई न कोई रास्ता निकाल लूंगा। अगर कभी तुम्हें बेचैनी हो, तो जो पैसे तार भेजने पर खर्च करने की सोचती हो, उससे शराब पी लेना या कुछ और करना, पर ऐसे तार का मैं अब जवाब नहीं दूंगा…
पिता को पत्र
ग्वातेमाला, जनवरी 15, 1954
… मैं जन स्वास्थ्य मंत्री से मिलने गया। उनसे नौकरी मांगी, और यह भी दरख़ास्त की कि वह साफ़ जवाब दें – हाँ या ना।वह मुझसे काफी विनम्रता से पेश आए। मेरे बारे में सारी जानकारी ली, और मुझे दो – तीन दिन बाथ आने को कहा कल ये दिन पूरे हुए और मंत्री जी ने मुझे निराश नहीं किया।उन्होंने मुझे साफ़-साफ़ जवाब दिया: “नहीं”…
बियाट्रीज़ आंटी को पत्र
ग्वातेमाला, फ़रवरी 12, 1954
…मेरी बेहद प्यारी, सदा चहेती, और प्रशंसा की कमी की मारी आंटी।आपके पहले के दो पत्रों की कड़ी को पूरा करता हुआ पिछला पत्र पा कर मैं बेहद खुश हुआ। पहले दो में से एक ही मुझ तक पहुंचा था, जिसका मतलब है कि डाक ऑफिस के किसी जनतांत्रिक मुलाज़िम ने ज़रूर आपकी पूँजी का उचित पुनर्विभाजन पहले ही कर लिया था. मुझे और पैसे न भेजें। आपको इसके लिए काफी हाथ पैर मारने पड़ते हैं, और मुझे तो यहाँ डॉलर सड़क पर ही पड़े मिल जाते हैं – इतने कि बार -बार इन्हें झुक कर उठाने से पीठ में दर्द हो जाता है!अब तो मैं जहां-तहाँ पड़े दस में से एक डॉलर को ही उठाता हूँ, वह भी इसलिए कि सार्वजनिक सफाई रहे – क्यूंकि ज़मीन पर फैला और हवा में उड़ता इतने कागज़ खतरनाक हो सकते हैं…
तीता इन्फान्ते को पत्र
मेक्सिको, नवंबर 29, 1954
… मैं काफी बता चुका।अब बात समाप्त करते हुए तुम्हें बताता हूँ कि मै यहाँ के चौक के फोटो खींच कर और यहाँ से गुजरने वाले “चे” [आर्जेन्टीनी] लोगों पर लातिनी न्यूज़ एजेंसी के लिए रिपोर्ट लिख कर रोज़ी कमाता हूँ। इससे जीने लायक पैसे हमेशा नहीं मिलते- मेरी भेड़ियों जैसी भूख को शांत करने के लिए तो बिलकुल नहीं, पर आसार हैं कि मेरी स्थिति सुधरेगी। अगर नहीं भी सुधरी तो इससे बदतर तो नहीं होगी, यही एक दिलासा है।मेरी आर्थिक समस्या इतनी महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह तो शाश्वत है, पर मुझे मेक्सिको में साइंटिस्ट के तौर पर जो सराहना मिली है, उससे मुझे अपनी डॉक्टरी पढ़ाई को ले कर आशाएं बंधी हैं, प्रेरणा मिली है कि मैं यहाँ के अस्पताल में पागलों की तरह एलर्जी पर काम करूँ, मुफ्त में…
बियाट्रीज़ आंटी को पत्र
मेक्सिको, अप्रैल 9, 1955
…आपने सुविख्यात नौकरियां करने के सूझाव मुझे कई पत्रों में दिए है, उनके बारे में यही कह सकता हूँ – थोड़ी गम्भीरता के साथ- कि मेरी घुमक्कड़ आत्मा, मेरी बारम्बार की अस्थिरता और दूसरी तमाम खामियों के बावजूद, मेरी आस्थाएं गहरी और स्पष्ट हैं। ये मुझे किसी भी ऐसी नौकरी करने से रोकती हैं ,जैसी कि आपने बताई हैं। इसका मतलब होगा कि मैं सबसे निचले दर्ज़े के चोरों की गुफा में रहकर काम करूं। उनकी नौकरी करूं, जो मानव स्वास्थ की खरीदफरोख्त करते हैं, जिसका मैं खुद को रक्षक मानता हूँ और जिस काम को योग्य लोगों को ही करना चाहिए।पहले जवाब नहीं दे पाया था क्योंकि यहाँ चल रहे पैन-अमेरिकी खेलों में मसरूफ था, पर फिर भी मेरा उत्तर वही है:’ मैं गरीब जरूर हूँ, पर मुझमें भी आत्मसम्मान है । कहा जाता है कि चोरों में भी आत्मसम्मान होता है …’
मां को पत्र
मेक्सिको, नए युग का पच्चीसवां दिन*
[*यह पत्र चे की पुत्री हिल्डा के जन्म फ़रवरी 15, 1956 के कुछ दिन बाद लिखा गया]
मा़ं हम दोनों अब कुछ उम्रदार हो गए हैं। अगर तुम खुद को एक फल समझती हो, तो हम थोड़े पक चुके हैं। यह बच्ची गरचे बदसूरत है, पर उसको एक नज़र देख कर ही जान जाओगी कि वह अपनी उम्र की सभी बच्चियो से कितनी अलग है। जब यह भूखी होती है तो रोती जरूर है।जब देखो,तब खुद पर मूत देती है। रोशनी से परेशान होती है और हमेशा सोती रहती है – पर कुछ है जो इसे फौरन हर एक नन्हे शिशु से इसे अलग करता है: इसके पापा का नाम एर्नेस्तो गेवारा है।
माँ को पत्र
मेक्सिको, अप्रैल 13, 1956
प्यारी मां, मेरी लिखने की आदत छूट गई थी।फिर मैंने खुद को आश्वस्त किया कि बुएनस आइरिस के ऊंचे तबके की खबर पाने का यही एक तरीका है..अब मैं इस नन्ही बदमाश के बारे में बताता हूँ। मैं इस के साथ इतना खुश हूँ, मेरी कम्युनिस्ट आत्मा ख़ुशी से झूम रही है क्योंकि यह बिलकुल माओ त्से तुंग जैसी दिखती है।इसके सिर में कम बाल हैं। इसकी आंखों से दयालुता झलकती हैं और इसकी ठोड़ी फूली हुई है। अभी यह सिर्फ़ पांच किलो की है, पर इसे कुछ समय दीजिये। बाकी बच्चों की अपेक्षा यह काफी बिगड़ी हुई है। इसकी दादी के मुताबिक जैसे मैं खाता था, वैसे ही यह भी खाती है।यह तब तक बिना सांस लिए दूध पीती रहती है, जब तक कि इसकी नाक से से दूध न निकलने लग जाए…
माता-पिता को पत्र
मेक्सिको, जुलाई 6, 1956
कार्सेल दे ला गोबेरनासियोन [मिगेल शुल्ट्ज़ जेल]
प्यारे बुज़ुर्गों, आपका पत्र मुझे अपनी नई और आनंदमय हवेली पर मिला जिसे ‘मिगेल शुल्ट्ज़’ कहा जाता है। यहाँ पेटिट मिलने आये थे,जिन्होंने आपकी चिंताओं के बारे में बताया।जो हुआ उसका आपको कुछ अंदाज़ा लगे, इसलिए पूरी कहानी बताता हूँ। कुछ समय पहले – अब तो काफी समय हो चुका – मुझे क्यूबा के एक जवान लीडर ने अपने आंदोलन में शामिल होने का न्यौता दियाएक हथियारबंद आंदोलन में शामिल होने के लिए,उनकी जन्मभूमि को आज़ाद कराने के लिए। मैंने बेशक इसे स्वीकार कर लिया।पिछले कुछ महीनों तक मैंने खुद को प्रोफेसर बताने की आड़ में काम किया पर असल में मैं उन लोगों के शारीरिक प्रशिक्षण में जुटा हुआ था जो एक दिन फिर से क्यूबा की धरती पर कदम रखेंगे।२१ जून को (मेक्सिको सिटी में घर से एक महीना बाहर रहने के बाद, और शहर से लगे एक खुले खेत में रहते हुए) फिडेल अपने साथियों के एक गुट के साथ पकड़ा गया।उसके घर पर पुलिस को हमारा पता मिल गया, इसलिए हम सब जाल में फंस गए। मेरे पास कुछ कागज़ात थे जिनसे ज्ञात होता था कि मैं रूसी भाषा का छात्र हूं। इतना इस संगठन की एक ज़रूरी कड़ी मुझे मानने के लिए काफी थे और ये न्यूज़ एजेंसियां- जिन्हें पापा बहुत पसंद करते हैं- सारी दुनिया में चिंघाड़ने लगीं…।
(अनुवाद अंकुर)
प्रख्यात कवि और लेखक विष्णु नागर के फ़ेसबुक से साभार।