गांधी और आंबेडकर भारतीय इतिहास के दो ऐसे महानायक हैं, जिन्हें उस समय की परिस्थिति ने एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया। किन्तु दोनों ने भारत के नवनिर्माण में ऐतिहासिक भूमिका अदा की है। दोनों अपने मिशन के साथ चार दशक तक भारत की राजनीति के केंद्र में बने रहे। भारत के शोषित-वंचित तबके को समाज के केंद्र में लाने के लिए दोनों अपने-अपने तरीके से प्रयत्नशील रहे। आज देश नये किस्म के संकट के दौर से गुजर रहा है, ऐसे समय में इन दोनों महापुरुषों के योगदान को नये सिरे से समझने की जरूरत है। इसी परिप्रेक्ष्य में बाबा साहब के पौत्र प्रकाश आंबेडकर ने महात्मा गांधी के शहादत दिवस (30 जनवरी, 2018) के मौके पर गांधीजी द्वारा स्थापित ऐतिहासिक सेवाग्राम आश्रम में बतौर मुख्य वक्ता यह वक्तव्य दिया था। आज आंबेडकर जयंती पर यह भाषण उतना ही प्रासंगिक है जितना तीन महीने पहले था। उन्होंने अपना यह भाषण मराठी में दिया था, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है- संपादक
प्रकाश अंबेडकर
मैं जिस बात को कहने जा रहा हूँ शायद वह कुछ लोगों को अच्छी लगे और बहुत सारे लोगों को मेरी बातें बुरी भी लग सकती है। क्योंकि इतिहास हर चीज का गवाह होता है और इतिहास इस बात का भी गवाह है- बाबा साहब हों, महात्मा गांधी हों दोनों का अपना-अपना मिशन था। उस मिशन को पूरा करने हेतु दोनों अपने-अपने तरीके से चलते हैं। और उन तरीकों में फर्क भी जान पड़ता है, जिसे मैं कहुँगा कि उस वक्त कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थीं– जिसमें दोनों आमने-सामने खड़े थे। आज 60-70 साल बाद जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं और यह सोचते हैं कि दोनों एक साथ होते तो क्या हुआ होता! जो भूमिका उन दोनों ने उस समय ली, अगर वह नहीं ली होती तब क्या परिस्थिति होती! दोनों की भूमिका को समझने के लिए यह जानना बेहद जरूरी है। मेरी मान्यता है कि दोनों की भूमिका उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप और ऐतिहासिक थी। इस बात को उस समय के लोगों ने अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभावों के रूप में व्यक्त किया है। लेकिन असल बात यह है कि उस वक्त अगर इन दोनों ने वह भूमिका नहीं ली होती तो क्या हुआ होता?
फिलहाल की परिस्थिति को देखें तो हमलोगों का जो झगड़ा है, वह पुराना है। इसे मैं नया झगड़ा नहीं मानता। उस समय भी हिन्दू महासभा थी, आरएसएस बन चुका था। साधु-संतों के संगठन भी मौजूद थे। उस समय इन संगठनों की जो विचारधारा थी, वह आज भी वैसी ही है। उसमें कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। उन संगठनों के जो ‘ठेकेदार’ हैं, मैं जानबूझकर ठेकेदार शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ। क्योंकि ठेकेदार की ही यह मंशा होती है कि पूरी व्यवस्था उसके नियंत्रण में रहे। वह ठेकेदार ही होता है, जो पूरी व्यवस्था को अपने कब्जे में लेना चाहता है। उस समय की व्यवस्था एक तरह से इन्हीं ठेकेदारों के कब्जे में थी। उस व्यवस्था को उन ठेकेदारों के कब्जे से निकालकर आम आदमी की व्यवस्था बनाने की कोशिश गांधी-अंबेडकर कर रहे थे। एक तरह से देखें तो बाबा साहब का रास्ता थोड़ा आसान नजर आता है। वह आसान इसलिए था क्योंकि उस वक्त अस्पृश्यों -अछूतों, जो गाँव के बाहर रहने वाले लोग थे, उनपर उस तरह से इन ठेकेदारों का कब्जा नहीं था, जिस प्रकार का कब्जा गांव के अंदर के लोगों पर था। प्रत्यक्ष तौर पर भी हम देखें तो उसे एक नाम दिया जा सकता था, एक पहचान दी जा सकती थी और उनका एक आंदोलन भी खड़ा किया जा सकता था। लेकिन आज भी एक ऐसा वर्ग है, जिसको हम शक्ल नहीं दे पा रहे हैं, आज हम उनको ओबीसी वर्ग कहते हैं। यह भी एक वर्ग है, जो था तो उस व्यवस्था के बाहर, किन्तु गाँव के अंदर और ठेकेदारों के पूरी तरह से कब्जे में था। इस प्रकार दोनों वर्ग में से एक ‘गाँव के अंदर’ था और दूसरा ‘गाँव के बाहर’। फिर भी ये दोनों व्यवस्था से बाहर का ही थे और जब तक इन दोनों वर्गों में चेतना नहीं आ जाती, जागरूकता नहीं आ जाती तब तक कल की आजादी का अर्थ इन्हें समझ में आना मुश्किल था। तब यह सवाल मुंह बाये सामने खड़ा था कि आनेवाली आजादी क्या इन गुलामों के हाथों में होगी या फिर ठेकेदारों के हाथ में होगी? ठीक उसी समय अस्पृश्यों के सवालों को लेकर बाबा साहब आंदोलन में उतरते हैं। दूसरी ओर यह सवाल था कि गाँव में रहते हुए भी वंचित की स्थिति में रहने वाले इस वर्ग को आंदोलन में कैसे उतारें? इन्हें आंदोलन में शामिल करने हेतु यह जरूरी था कि इनको समाज के ठेकेदारों के विरोध में ही उतारा जाय। लेकिन उस समय की परिस्थिति में यह काम एकाएक नहीं हो सकता था। और तब यह आवश्यक हो जाता है कि इनको उतारने के लिए ठेकेदारों को सहलाते हुए आगे बढ़ा जाए। इस तरह की धारा महात्मा गांधी ने उस वक्त चलाई थी जो गांधी का बहुमूल्य योगदान है। जिस समस्या से आज भी हम जूझ रहे हैं, किन्तु उसका समाधान नहीं मिल पा रहा है, किन्तु गांधी ने उसी समय इसका एक हद तक हल निकाल लिया था।
भारत के मध्य वर्ग और मध्य जातियों पर धार्मिक आडंबरों- कर्मकाण्डों का दबाव डालकर उन्हें अपने गिरफ्त में रखने की साजिश चली आ रही है, उससे आज भी छुटकारा नहीं मिल पाया है। यही हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल है, जिसके साथ हम आज तक संघर्षरत हैं। ऐसे में इस वर्ग को इन कर्मकाण्डों/आडंबरों से मुक्त कर इनमें चेतना निर्माण करने हेतु या इसे दूसरे शब्दों में कहें तो हमें नये मानव को गढ़ने की प्रक्रिया के अंतर्गत नये नेतृत्व का निर्माण करना होगा। इस आशय से संबंधित जो कुछ भी प्रयोग गांधीजी द्वारा किए गए, वह हमारे लिए आज भी काफी मायने रखते हैं। लेकिन इन्हीं प्रयोगों को लेकर– गांधी और अंबेडकर के बीच मतभेदों को उछाला जाता है।
वस्तुतः उस वक्त के हालात पर नजर डालें तो गिने-चुने लोगों के हाथ में ही आजादी के आंदोलन की बागडोर थी। यह बागडोर जन सामान्य के हाथों में कैसे आएगी, इसको लेकर अंबेडकर ने अपने आंदोलन की दिशा निर्धारित की। उस वक्त अंबेडकर ने यही सवाल उठाया था कि आजादी के आंदोलन में हमारी भागीदारी क्या है? जब आप सहभागी लोकतंत्र की बात कर रहे हैं तो उसमें हमारा सहभाग क्या है? इस बात को लेकर उस समय अंबेडकर का संघर्ष लगातार जारी रहा और आज भी यही मुद्दा बहस के केंद्र में बना हुआ है, जो आज भी विवादास्पद है। अगर यह विवाद नहीं होता तो भारत के राजनीति के केंद्र में बाबा साहब और महात्मा गांधी दोनों एक-साथ हो सकते थे! यह बात ज्यादा मायने रखता है।
मुझे ऐसा लगता है कि 1920 के आसपास देश के स्वतंत्रता आंदोलन पर जब हम नजर डालते हैं तब यह परिदृश्य उभर कर सामने आता है कि आजादी आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाली कांग्रेस धार्मिकता के जकड़न से मुक्त होकर आजादी के आंदोलन की बागडोर भारत के मध्य वर्ग और निम्न वर्ग के हाथों में आ जाती है। यही भारत का उस वक्त का राजनीतिक इतिहास है। इसी के परिणामस्वरूप आज हम यहाँ तक पहुँच पाए हैं। अगर इस दृष्टिकोण से उस राजनीतिक इतिहास को देखा जाए तो हमें पता चलता है कि उस वक्त से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंबेडकर और गांधी ने अपनी जगह नहीं छोड़ी बल्कि हरदम स्वतंत्रता संग्राम के केन्द्र में डटे रहे तथा एक-दूसरे को संबल प्रदान करते रहे। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़े हुए, बावजूद इसके संवाद की घड़ी में दोनों एक साथ भी दिखाई देते हैं।
हमें यह समझना होगा कि अंग्रेज़ खतरनाक किस्म के कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने पूरे विश्व पर राज किया और पूरे विश्व को लूटा। उनके उपनिवेश रहे विश्व के लगभग आधे देशों में मैं घूमकर आया हूँ। मैंने यह देखा कि उस समय भारत में जितना विकास का काम हुआ है उतना विकास विश्व के किसी भी अन्य उपनिवेश में नहीं हुआ था। यह अंग्रेजी राज के भारत की विशेषता है। अगर आप कहेंगे कि अंग्रेज़ धूर्त थे तो मैं कहूँगा हां वे धूर्त होंगे। हो सकता है कि उन्होंने भविष्य की सोच रखते हुए कि आनेवाले समय में दुनिया की व्यवस्था में भारत का प्रभाव बढ़ेगा, इसका अंदाजा उस समय में लगा लिया था। इससे जुड़ा हुआ एक वाकया बताता हूँ -एक बार मैं डरबन कान्फ्रेन्स में गया था तब मैंने वहाँ पर इस बात को रखा था कि अंग्रेज़ ने जितने भी उपनिवेश देशों को लूटा है, उसे उसका हर्जाना देना होगा। इसकी अगुवाई भी मैंने ही की थी। इस बात को लेकर भारत की तत्कालीन सरकार ने मुझसे पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं? मैंने कहा हर्जाना मांग रहा हूँ, और यह उनके साथ (अंग्रेज़ के साथ) की बात है। तो सरकार ने मुझसे यह कहा कि आप नहीं जा सकते और इसका यह कारण बताया कि अंग्रेजों ने हमें लूटा ही नहीं है। मैंने पूछा कि हमें लूटा नहीं है, ऐसा आप कैसे कह सकते हैं? तो इसके जवाब में उन्होंने कहा कि यूरोपीय देशों ने हमें लूटा नहीं बल्कि ये सारे देश आज हम पर निर्भर हैं। इसलिए हम इनका नेतृत्व कर सकते हैं। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि अंग्रेज़ धूर्त थे, सही समय पर (1937 में) यहाँ से वापस जाने की इच्छा जाहिर की थी। मेरे कहने का यही तात्पर्य है कि क्या हम उसी इतिहास में अटके रहेंगे? आखिर कब तक हम इसी राजनीति में अटके रहेंगे? जिस रास्ते पर महात्मा फुले, महात्मा गांधी और महात्मा अंबेडकर चले उस रास्ते पर चलकर इसे नैतिकता के साथ जोड़ेंगे अथवा नहीं? यह आज का प्रमुख सवाल है। अगर हमें नैतिक राजनीति की ओर जाना है तब हमें समान अवसर पर ध्यान देना होगा, जो सर्वसमावेषक हो। इसे नजरअंदाज कर हम आगे नहीं बढ़ सकते। साइमन कमीशन से लेकर बाबासाहब तक सभी ने यह कहा कि यहाँ आरक्षण होना चाहिए। इस बात का समर्थन अगर उस समय में गांधीजी करते तो शायद ही स्वतंत्रता आंदोलन में उनका नेतृत्व मान्य किया गया होता, इस बात पर मुझे संदेह है। क्योंकि जिस तरह से मध्य जातियों में से गांधी का व्यक्तित्व उभरा था, अगर गांधी आरक्षण को समर्थन देते तो उसी समय उनका नेतृत्व समाप्त हो चुका होता। इस अवसर का फायदा उठाकर, ठेकेदारों द्वारा यह साजिश की जा सकती थी कि आगे से बहुजन नेतृत्व उभरकर न आए। इसके चलते निम्न जातियों का नेतृत्व भी वहीं खत्म हो जाता। बहरहाल संघर्ष हुआ, कड़ा संघर्ष हुआ, संघर्ष नहीं हुआ ऐसा मैं नहीं कहूँगा, संघर्ष बड़े पैमाने पर हुआ, परंतु इस संघर्ष में से जो बाहर निकला उससे आरक्षण की मूल अवधारणा को जरा-सा भी धक्का नहीं पहुँचा। अर्थात आरक्षण की संकल्पना को कोई क्षति नहीं हुई, वह जैसे की तैसे बनी रही। यह अलग बात है कि उसके क्रियान्वयन का तरीका दोषपूर्ण था। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि पूना पैकट के दौरान आरक्षण की अवधारणा के मूल तत्व गांधी-अंबेडकर के विवादों के बावजूद जस के तस बने रहे। इसके क्रियान्वयन पर दोनों ने आपसी समझौता किया। मेरा सवाल यह है कि उस समय में अगर गांधी इसका विरोध नहीं करते तो इस बात की क्या गारंटी थी कि कोई दूसरा इसका विरोध नहीं करता? सच पूछिये तो इस बात की कोई गारंटी नहीं थी। इस बात की गारंटी को अगर जाँचना-परखना है तो उस समय के हिन्दू महासभा के इतिहास को हमें समझना पड़ेगा। हिन्दू महासभा के उस समय के प्रमुख व्यक्तियों में से एक मुंजे को ही देख लिजिए, उसका कहना था कि ‘कोई एक ऐसा आदमी जो बहुजनों में से है और उसने हम सभी सवर्णों की लीडरशिप को ध्वस्त कर दिया है। जिसने सड़क के माध्यम से गाँव के जजमानी प्रथा के शोषितों के हाथों में गांव को नेतृत्व प्रदान किया। उनका यह नेतृत्व हमलोगों को ध्वस्त कर देगा। हमारी संकल्पना को नष्ट कर देगा। वह हमारे वर्चस्व को, मनुस्मृति को ध्वस्त कर रहा है।’ उस समय मुंजे जैसों की यह राय रही थी। इस पूरी परिस्थिति को सामने रखकर जब हम सोचते हैं तो पिछले 70 साल में जो भी परिघटनाएँ हुई उसे यथासमय लोगों ने उसपर अपने जो भी मत प्रकट किए हैं उसे आज के समय में समझने से कोई फायदा नहीं। लेकिन आज हमें यह सोचना होगा कि उस समय में जो भी हुआ, जिसके द्वारा हुआ अगर वह नहीं हुआ होता, तब क्या हुआ होता? शायद उनकी जगह कुछ और ही होता।
मैं फिर से एक बार इतिहास की ओर देखता हूँ, हाल में भीमा कोरेगांव के शहीदों के अभिवादन के लिए आए लोगों को बुरी तरह से मारा-पीटा गया। ब्रिटिशों ने अछूतों को अपनी सेना में भर्ती तो करवाया लेकिन जैसे ही पेशवाई पर ब्रिटिशों ने विजय प्राप्त की, वैसे ही सेना में अछूतों की भर्ती बंद कर दी गई। हमें इस इतिहास को गौर से देखना होगा– जिन लोगों ने ब्रिटीशों को सत्ता स्थापित करने में मदद की उन्हीं लोगों को उन्होंने दरकिनार किया और अपने विरोधी रहे पेशवाओं को प्रधानता दी। इस इतिहास को हमें नये सिरे से देखना-समझना होगा। गलती से अगर यह नेतृत्व हिन्दू महासभा के हाथों में चला जाता और वे ब्रिटिशों को यह आश्वासन देते कि आप यहाँ 60 साल और राज करिए उसके बाद निकल जाइये। तब क्या अंग्रेज़ इन लोगों के इस आश्वासन पर विश्वास दर्शाते? यह भी सोचने वाली बात है। वे किसको प्रधानता देते और किसके साथ ईमानदार रहते? ऐसे लोगों के प्रति जो नि:शस्त्र हैं, जिनके पास कोई आर्थिक सत्ता नहीं और न ही कोई धार्मिक सत्ता है, या फिर ऐसे लोगों के प्रति जिनके पास सामाजिक-आर्थिक- धार्मिक-राजनीतिक सत्ता पहले से मौजूद है! इस पहलू पर भी सोचा जाना चाहिए।
गांधी-अंबेडकर के यह सब कुछ करने के पीछे एकमात्र उद्देश्य जनसामान्य को सत्ता में सहभागी करना ही था। कभी-कभी इतिहास के कुछ व्यक्तित्व एक-दूसरे के विरोधी देखने को मिलते हैं। परंतु उनका विरोध भी किसी साध्य की प्राप्ति के लिए ही होता है। इसे हमें समझना होगा। इसलिए मेरा मानना है कि हमारे बीच संवाद बना रहना चाहिए। आज भी हमें कुछ ऐसे निर्णय लेने होंगे जो संवाद के जरिये ही हो सकता है। हाल-फिलहाल की स्थिति को जब हम देखते हैं और उस स्थिति में अगर हमें यह लगता है कि यहाँ की सत्ता बहुजनों के हाथों में होनी चाहिए। तब हमें यह समझना होगा कि इस देश के आर्थिक स्त्रोत किसके कब्जे में है? महात्मा गांधी ने ट्रस्ट्रीशिप की अवधारणा दी थी। उसमें उनका मानना था कि ट्रस्टीशिप के अंतर्गत साधनों पर किसी एक का कब्जा न होकर जिनके पास आर्थिक संसाधन है, उन्हें इसका ‘ट्रस्टी’ घोषित किया जाय। यानी वह अपने आपको मालिक न समझकर ट्रस्टी माने। दूसरी तरफ बाबा साहब का यह मानना था कि देश में जितना संसाधन है, वह कुछ व्यक्तियों के हाथ न रहकर सरकारी नियंत्रण में रहे। मैं यहाँ यह कहूँगा कि भले ही ये दोनों व्यक्तियों के बीच का विरोधाभास प्रतीत होता हो। किन्तु साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार नहीं होना चाहिए, इस बात को लेकर दोनों में एक तरह से सहमति देखी जा सकती है। क्योंकि सरकार के नियंत्रण की चीजों को जनता को मांगने में सहूलियत होती है। गांधी की अवधारणा के अनुसार ट्रस्ट बनने के बाद संसाधनों पर अपने आप ही सबका अधिकार हो जाता है। कुल मिलाकर संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार के दोनों खिलाफ हैं। आने वाली व्यवस्था में साधनों का बँटवारा कैसा होगा? इसको लेकर जो योजना थी, उसमें एक का मानना था कि संसाधन सार्वजनिक होना चाहिए। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एकमत थे कि संपत्ति व्यक्तिगत नहीं होनी चाहिए।
आज के समय में इसको हम समझें तो अंबेडकर उस वक्त कहा करते थे कि हमें संपत्ति को ‘सेठ’ और ‘पुरोहितवाद’ की जकड़न से मुक्त कर सार्वजनिक संपत्ति में तब्दील कर देना चाहिए । वहीं गांधी मानते थे कि सेठ की जो अवधारणा है वह ट्रस्टीशिप में बदलनी चाहिए। ऐसे में जब हम इन दोनों महापुरूषों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करके सामाजिक मुद्दे के रूप में उसे भुनाने की कोशिश कर रहे होते हैं, तब हमें यह ध्यान रखना होगा कि दोनों ने अपनी जगह को नहीं छोड़ा और अंत तक वे राजनीति के केन्द्र में बने रहे। जिनके लिए वे लड़ रहे थे उन वर्गों के साथ एकनिष्ठ बने रहकर, उन्हें यहाँ की व्यवस्था में मालिक बनाने के लिए, व्यवस्था में समुचित जगह बनाने से लेकर उसपर बैठाने तक की पुरजोर कोशिश उन दोनों ने की।
वैसे भी हम देखते हैं कि तत्कालीन भारत में शूद्र, अतिशूद्र किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में भागीदार नहीं थे। न ही वे किसी प्रशासन का ही हिस्सा थे। एक तरह से दोनों इस अधिकार से वंचित थे। और ऐसे में उन लोगों को इस व्यवस्था का हिस्सा बनाने, उसका मालिक बनाने की पुरजोर कोशिश में लगे महात्मा गांधी पर इस मुहिम को रोकने के लिए एक नहीं तीन-तीन बार जानलेवा हमले तक हुए थे।
मुझे यह लगता है कि यहाँ की मूल सामाजिक संरचना वर्चस्ववादी प्रकृति की थी। जिसमें ‘अन्य’ के लिए जगह बनाने के लिए किया गया यह आंदोलन था। इसकी पूर्ति के लिए जिन भी तौर-तरीकों का उपयोग वे कर सकते थे, उन्होंने किया। अगर आज हम इसे टटोलेंगे तो उसमें से कुछेक चीजें अप्रासांगिक लगेगी और कुछ प्रासंगिक। बदलते वक्त के साथ अगर हम इसे टटोलेंगे तो यह प्रतिगामी भी लग सकता है और कुछ हद तक यह प्रासांगिक भी है। ऐसे में हम यह निष्कर्ष निकालने लगते हैं कि इस प्रतिगामी व्यवस्था में ये लोग फिट नहीं बैठते। तब मुझे यह लगता है कि हमें उस समय की व्यवस्था से ज्यादा उन लोगों के कार्य करने के केन्द्र बिन्दु पर ज्यादा फोकस करना पड़ेगा। मुझे लगता है कि उनका केन्द्र बिन्दु यही था कि वे यहाँ की वर्णवादी, वर्चस्ववादी, निषेधात्मक व्यवस्था में बहुसंख्यक लोगों के लिए जगह बनाकर उनको उसमें स्थान दिलाना चाहते थे और यह काम उस समय में हुआ है ऐसा मैं मानता हूँ।
अंतत: वर्तमान परिस्थिति पर नजर डालते हुए मैं इतना ही कहूँगा कि धर्म के नाम पर जो झगड़ा जारी है उसे स्पष्टता के साथ समझने में हम नाकाम रहे, जबकि गांधी-अंबेडकर ने इसे सफलतापूर्वक समझा था। मेरी मान्यता है कि धर्म को व्यक्ति की नीजता तक ही सीमित होनी चाहिए। लंबे समय से यह विवाद का विषय रहा है कि धर्म को व्यक्ति तक सीमित होना चाहिए अथवा पूरे देश का एक धर्म होना चाहिए! देश का एक धर्म हो- इसकी मांग भी समय-समय पर उठती रही है। और कई लोग आज भी यह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि देश का एक धर्म हो अथवा नहीं। राजनीति का धर्म से क्या रिश्ता हो? जिस दिन हम यह फैसला कर पायेंगे उस दिन देश में नए किस्म की राजनीति और व्यवस्था का आगाज होगा, ऐसा मुझे लगता है। देश में आज भी कुछ ऐसे वर्ग हैं जिन्हें वर्चस्ववादी-शोषणकारी व्यवस्था फायदेमंद लगती है, इस कारण वे उसके प्रचार-प्रचार में जुटे हुए हैं। फिलहाल ऐसे ही लोगों की सरकार बनी है। यानी वे सत्ता के केंद्र में आ गए हैं। धर्म प्रत्येक मनुष्य के लिए जरूरी है अथवा नहीं, इसका निर्धारण व्यक्ति को करने की आजादी होनी चाहिए। अगर मुझसे यह पूछा जाएगा कि क्या धर्म राज्य के लिए जरूरी है? तब मेरा जवाब होगा कि बिलकुल नहीं। यदि आप सोच रहे हैं कि क्या देश को धर्म की जरूरत है? तो इसके जवाब में भी मैं कहूँगा कि बिलकुल नहीं। क्योंकि कोई जब यह कहता है कि देश को किसी खास धर्म की जरूरत है, तब यह सवाल पैदा होता है कि कौन से धर्म की संहिता देश में लागू की जाएगी? ऐसे में देश के अंदर विवाद खड़ा हो जाता है और अनेक समूह पक्ष-विपक्ष में खड़े हो जाते हैं, जो स्वाभाविक भी है। जहां तक मुझे लगता है कि इस देश के अंदर देश का एक धर्म होना चाहिए- यह एजेंडा केवल आरएसएस का ही था। उसके पहले तक देश में लगभग एक तरह से शांति ही थी। पूर्व में आरएसएस इसका एकमात्र ठेकेदार था लेकिन अब धर्म की राजनीति के कई ठेकेदार हो चुके हैं और वो अपनी धार्मिक नीतियों को देश पर थोंपने की कोशिश कर रहे हैं। जब इस तरह से वे अपनी धर्म की नीतियां बनाकर दूसरों पर थोंपने की कोशिश कर रहे हैं, तब आपसी लड़ाई शुरू हो रही है। पूर्व में जब धर्म की राजनीति चल रही थी तब यही बात उठी थी कि हिन्दू धर्म को देश का धर्म होना चाहिए। शुरूआत में लोगों को लुभाने के लिए इन्होंने बाकी धर्म को अपने में समावेषित करने, कुछ धर्म को नियंत्रण में रखे जाने व पाबंदी लगाने की बात की। साम, दाम, दंड-भेद की कूटनीति इसमें शामिल थी। परंतु जब वे ऐसा कर पाने में नाकाम रहे और ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया तब ये अलग-तरह से रिएक्ट/व्यवहार करने लगे। तब यह बात उठने लगी कि ये लोग कौन से हिन्दू धर्म की नीतियों को लागू करने वाले हैं? तदुपरांत अपनी नीतियों को थोंपने के लिए अलग से शक्ति का निर्माण किया जाने लगा- जैसा कि मध्य पूर्व के देशों में भी हमें देखने को मिलता है। मध्यपूर्व के देशों में इसी किस्म की शक्तियों को बढ़ावा दिया जाने लगा है। ठीक उसी तरह की यहाँ भी शुरूआत हो चुकी है। इसका सबसे बड़ा खामियाजा यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था को भुगतना पड़ेगा। और लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को चोट पहुंचाने की वजह से देश का प्रशासनिक ढ़ाँचा चरमरा जाएगा।
जिसके हाथ में देश की जनता ने इस देश की बागडोर सौंपी है, आज जब वही इस लड़ाई में शामिल है तब ऐसी स्थिति में इस देश की शांति खतरे में पड़ना स्वाभाविक ही है। सोवियत रूस का जब विघटन हुआ तो उसमें एक ध्रुवीय व्यवस्था की जगह बहुध्रुवीय व्यवस्था का निर्माण हुआ। इसके पूर्व जब रसिया बहुध्रुवीय से एकध्रुवीय में तब्दील हुआ और सोवियत संघ अस्तित्व में आया था- इस पूरी परिघटना में सबसे ज्यादा नुकसान नृजातीय अल्पसंख्यकों को ही हुआ। इन नृजातीय अल्पसंख्यकों में यह झगड़ा शुरू हुआ कि अब हमारा बेहतर रक्षक कौन है- रूस या अमेरिका। अपने रक्षक की खोज में उन्होंने अपना इतिहास ढूंढना शुरू किया। वे अपनी संस्कृति को खोजने लगे, अपनी भाषा को खोजने लगे। तब उन्होंने यही कहना शुरू किया कि हमारी संस्कृति, भाषा तथा हमारा अल्पसंख्यकत्व खतरे में है। इसी मुद्दे को आगे कर उन्होंने लड़ाई छेड़ दी। यह लड़ाई तब तक जारी रही जब तक संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे कबूल करते हुए वैश्विक एजेंडे के तौर पर सभी प्रकार के भेदभावों को खत्म किये जाने को स्वीकृति न दे दी। तब जाकर इन नृजातीय अल्पसंख्यकों में शांति कायम हुई। आजादी के बाद जिस तरह की व्यवस्था हमने भारत में बनाई, उसमें शोषित-वंचितों व अल्पसंख्यकों का शुरू से ही ध्यान रखा गया था। किन्तु आज जिस तरह से धर्म की राजनीति यहाँ शुरू हो गई है, उसने दोबारा अल्पसंख्यकत्व चेतना को जगाया है। नतीजतन आज हर अल्पसंख्यक समूह से तालुक रखने वाला व्यक्ति अपने समुदाय के लिए देश की राजनीति में हिस्सेदारी की मांग कर रहा है। वह अपने धर्म की राजनीति के लिए भी सामने आ रहा है।
आमतौर पर ‘हिन्दू’ शब्द के उच्चारण में ही सभी को सम्मिलित कर लिया जाता है। जबकि इस बात को हमें नहीं भूलना चाहिए कि जितनों को इसमें शामिल किया जाता है, उनकी अपनी एक अलग पहचान है। इस देश में प्रत्येक जाति अपने आपमें एक राष्ट्र है। हर एक जाति में राष्ट्र के तत्व शामिल हैं। असल सवाल यह है कि हमारे राष्ट्र का स्वरूप क्या है? राष्ट्र का स्वरूप यह है कि उसके पास अपनी एक अलग पहचान, अपना कानून, अपनी संस्कृति तथा अपनी एक अलग प्रशासनिक व्यवस्था होती है। क्या हमें ये चार चीजें प्रत्येक जाति में मिलती हैं अथवा नहीं? यह अलग बात है कि कई चीजों का अब प्रतिस्थापन हो चुका है। किन्तु अतीत में ये सारी चीजें हर जाति में मौजूद रही हैं- इसलिए यहाँ की प्रत्येक जाति अपने आपमें एक राष्ट्र है। कुछ लोग इस बात को दोबारा उजागर कर रहे हैं। हिन्दू समाज के प्रत्येक तबके द्वारा या आजकल के फ्रिंज संगठन, जो अपनी बात मनवाने के लिए लोगों पर अपने विचार थोंपने लगे हैं। उनका यह मानना है कि जो व्यवस्था चल रही है, उसे हम नहीं मानेंगे और उससे इतर अपनी व्यवस्था बनायेंगे। मैं यहाँ एक व्यवस्था के भीतर दूसरी व्यवस्था की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं यहाँ उस व्यवस्था के समांतर नई व्यवस्था बनाने का प्रयास करने वालों के बारे में बात कर रहा हूँ। इस तरह के जो नये संगठन हैं, वे देश में यह माहौल बना रहे हैं कि हमें नए विधान की आवश्यकता है। मुझे लगता है यह सबसे बड़ा धोखा है।
भारत में जिस समय राष्ट्रीयता की भावना आई उस समय किसी को इस बात का इल्म नहीं था कि इसका पूरा स्वरूप क्या होगा। फिर भी प्रक्रिया में रहते हुए इतना तो तय कर लिया गया था कि धर्म की राजनीति को कबूल नहीं किया जाएगा। जैसा कि पूर्व भी मैंने कहा है कि अंग्रेज़ बड़े ही धूर्त थे, उन्होंने पूरी दुनिया को लूटा और नमूने के तौर पर एक ऐसे देश को छोड़ा है, जो यह कहता फिर रहा है कि हमें अंग्रेजों ने नहीं लूटा बल्कि उन्होंने तो हमारा विकास ही किया है। आज फिर से देश में उसी विकास के नाम पर राजनीति चरम पर है जिससे हमें बचना होगा। आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में धर्म के लिए कोई जगह नहीं है। राष्ट्र को धर्म की कोई जरूरत नहीं है, आनेवाली पीढ़ियों के लिए यह पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुका है।
(संकलन एवं संपादन- डॉ. मुकेश कुमार; मराठी से हिन्दी अनुवाद- गजानन एस. निलामे)