गांधीजी के नाम शहीद सुखदेव की ‘एक खुली चिट्ठी’ और उसके जवाब में गांधीजी का पत्र

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गांधी जी के नाम शहीद सुखदेव की ‘एक खुली चिट्ठी’ और उसके जवाब में गांधी जी का पत्र जो ‘हिन्दी नवजीवन’, 30 अप्रैल 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था. ये दोनों पत्र सुखदेव के भाई मथरादास थापर की पुस्तक ‘अमर शहीद सुखदेव’ में संकलित हैं. 

प्रस्‍तुति वरिष्‍ठ पत्रकार आनंदस्‍वरूप वर्मा की है।


शहीद सुखदेव की खुली चिट्ठी

परम कृपालु महात्मा जी

ताजा खबरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा कर देखने का आखिरी मौका देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएं की हैं। वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होने वाला काम नहीं है। भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुवा लोगों को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है।

माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता नहीं होगा। मैं मानता हूं कि सब बुद्धिमान लोग बिलकुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले मकसूद पर पहुंच गए हैं। संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बंधी हुई है। उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध विराम है जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है। इस विचार के साथ ही समझौते और युद्धविराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती है और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है।

किसी भी प्रकार का युद्ध विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्तें ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुवा लोगों का है। लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिय आंदोलन बंद रखना उचित समझा है तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है। इसी तरह ‘‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’’ के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श जनसत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है। यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है। उनका ध्येय जब तक प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बंधे हुए हैं। परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्धनीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे। क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है। कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन का रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है। ऐसी दशा में क्रांतिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए। परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया। निरीह भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्व नहीं होता, हो नहीं सकता।

आपने समझौते के बाद अपना आंदोलन बंद किया है और फलस्वरूप आपके सभी कैदी रिहा हुए हैं। पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 ईसवी से जेलों में पड़े हुए गदर पार्टी के बीसों कैदी सजा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं। मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाए पड़े हैं। यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है। देवगढ़, काकोरी, मछुआ बाजार और लाहौर षड़यंत्र के कैदी अब तक जेल की चाहरदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं। लाहौर, दिल्ली, चटगांव, बंबई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधा दर्जन से ज्यादा षड़यंत्र के मामले चल रहे हैं। बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते फिरते हैं और उनमें कई तो स्त्रियां हैं। सचमुच आधा दर्जन से अधिक कैदी फांसी पर लटकने की राह देख रहे हैं। इन सबका क्या? लाहौर षड़यंत्र केस के सजायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं। उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है। सच पूछा जाए तो उनकी सजा घटाने की अपेक्षा उनके फांसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है।

यह सब होते हुए भी आप उन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं। वे ऐसा क्यों करें? आपने किसी निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है। ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है। यदि ऐसी बात नहीं है तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते। अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धि की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था। मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं। मैं आपको कहता हूं कि वस्तु स्थिति ठीक इसकी उलटी है। वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं उनका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है और, क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्व का मानते हैं हालांकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है।

उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए। अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है। ऐसी दशा में उनके दल में मतभेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करने वाली होगी।
इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्रांतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए – उनमें से कई जेलों में हैं – और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएं बंद रखिए। कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से कोई एक रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए। अगर आप उनकी मदद न कर सकें तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें। उन्हें अलग रहने दें। वे अपनी हिफाजत खुद ही अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं। वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलने वाला है। लोक समूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं और वह दिन दूर नहीं है जब ये जनसमूह को अपने झंडे तले जनसत्तावादी प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे।

अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों तो उनका दृष्टि बिंदु समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसील से चर्चा कर लीजिए।

आशा है आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे।

आपका 
अनेकों में से एक


महात्मा गांधी का जवाब

‘अनेकों में से एक’ का लिखा हुआ पत्र स्वर्गीय सुखदेव का पत्र है। श्री सुखदेव भगत सिंह के साथी थे। यह पत्र उनकी मृत्यु के बाद मुझे दिया गया था। समयाभाव के कारण मैं इसे जल्द ही प्रकाशित न कर सका। बिना किसी परिवर्तन के ही वह अन्यत्र दिया गया है।

लेखक ‘अनेकों में से एक’ नहीं है। राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए फांसी को गले लगाने वाले अनेक नहीं होते। राजनैतिक खून चाहे जितने निंद्य हों, तो भी जिस देशप्रेम और साहस के कारण ऐसे भयानक काम किए जाते हैं, उनकी कद्र किए बिना नहीं रहा जा सकता। और हम आशा रखें कि राजनैतिक खूनियों का संप्रदाय बढ़ नहीं रहा है। यदि भारतवर्ष का प्रयोग सफल हुआ, और होना ही चाहिए, तो राजनैतिक खूनियों का पेशा सदा के लिए बंद हो जाएगा। मैं स्वयं तो इसी श्रद्धा से काम कर रहा हूं।

लेखक यह कह कर मेरे साथ अन्याय करते हैं कि क्रांतिकारियों से उनका आंदोलन बंद कर देने की भावनापूर्ण प्रार्थनाएं करने के सिवा मैंने और कुछ नहीं किया है। उलटे, मेरा दावा तो यह है कि मैंने उनके सामने नग्न सत्य रखा है, जिसका इन स्तंभों में भी कई बार जिक्र हो चुका है, और तो भी फिर उसे दोहराया जा सकता हैः

1. क्रांतिवादी आंदोलन ने हमें हमारे ध्येय के समीप नहीं पहुँचाया।
2. उसने देश के फौजी खर्च में वृद्धि करवाई।
3. उसने बिना किसी भी प्रकार का लाभ पहुंचाए सरकार के लिए प्रति हिंसा के कारण पैदा किए हैं।
4. जब-जब क्रांतिवादी खून हुए हैं तब-तब कुछ समय के लिए उन-उन स्थानों के लोग नैतिक बल खो बैठे हैं।
5. उसने जनसमूह की जागृति में कुछ भी हाथ नहीं बंटाया।
6. लोगों पर उसका जो दोहरा बुरा असर पड़ा है, वह यह है कि आखिरकार उन्हें अधिक खर्च का भार और सरकारी क्रोध के अप्रत्यक्ष फल भोगने पड़े हैं।
7. क्रांतिवादी खून भारत भूमि में फल-फूल नहीं सकते, क्योंकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतीय परंपरा राजनैतिक हिंसा के विकास के लिए प्रतिकूल है।
8. अगर क्रांतिवादी लोकसमूह को अपनी पद्धति की ओर आकर्षित करना चाहते हों, तो उनके लोगों में फैलने और स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
9. अगर हिंसावाद कभी लोकप्रिय हुआ भी, तो जैसा दूसरे देशों में हुआ है, वह उलटकर हमारा ही संहार किए बिना न रहेगा।
10. इसके विपरीत दूसरी पद्धति अर्थात अहिंसा की शक्ति का स्पष्ट प्रदर्शन क्रांतिवादी देख चुके हैं। उनकी छिटपुट हिंसा के और अहिंसा के उपासक कहलाने वालों की समय-असमय की हिंसा के रहते हुए भी अहिंसा टिकी रही है।
11. जब मैं क्रांतिवादियों से कहता हूं कि उनके आंदोलन से अहिंसा के आंदोलन को कुछ भी लाभ नहीं पहुंचा है, यही नहीं, उलटे उसने इस आंदोलन को नुकसान पहुंचाया है तो उन्हें मेरी बात को मंजूर करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, मैं यूं कहूंगा कि अगर मुझे पूरा-पूरा शांत वातावरण मिला होता, तो हम अब तक अपने ध्येय को पहुंच चुके होते।

मैं दावे के साथ कहता हूं कि यह नग्न सत्य है, भाव प्रधान विनती नहीं। पर प्रस्तुत लेखक तो क्रांतिकारियों से मेरी प्रकट प्रार्थनाओं पर एतराज करते हैं और कहते हैं कि इस तरह मैं उनके आंदोलन को कुचल डालने में नौकरशाही की मदद करता हूं। पर नौकरशाही को उस आंदोलन का मुकाबला करने के लिए मेरी मदद की जरा भी जरूरत नहीं है। वह तो क्रांतिवादियों की तरह ही मेरे विरूद्ध भी अपनी हस्ती के लिए लड़ रही है। वह हिंसक आंदोलन की अपेक्षा अहिंसक आंदोलन में अधिक खतरा देखती है। हिंसक आंदोलन का मुकाबला करना वह जानती है। अहिंसा के सामने उसकी हिम्मत पस्त हो जाती है। यह अहिंसा तो पहले ही उसकी नींव को झकझोर चुकी है।

दूसरे, राजनैतिक खून करने वाले अपनी भयानक प्रवृत्ति का आरंभ करने से पहले ही उसकी कीमत कूत लेते हैं। यह संभव ही नहीं कि मेरे किसी भी काम से उनका भविष्य अधिक खराब हो सकता है।

और, क्रांतिकारी दल को गुप्त रीति से काम करना पड़ता है, ऐसी दशा में उसके गुप्तवास करने वाले सदस्यों को प्रकट रूप से प्रार्थना करने के सिवा मेरे सामने मार्ग ही खुला नहीं है। साथ ही इतना कह देता हूं कि मेरी प्रकट प्रार्थनाएं एकदम व्यर्थ नहीं हुई हैं। भूतकाल के बहुतेरे क्रांतिकारी आज मेरे साथी बने हैं।

इस खुली चिट्ठी में यह शिकायत है कि सत्याग्रही कैदियों के सिवा दूसरे कैदी नहीं छोड़े गए। इन दूसरे कैदियों के छुटकारे का आग्रह करना क्यों अशक्य था, इसके कारणों को मैं इन पृष्ठों में समझा चुका हूं। मैं स्वयं तो उनमें से हर एक का छुटकारा चाहता हूं। उन्हें छुड़ाने की मैं भरसक कोशिश करने वाला हूं। मैं जानता हूं कि उनमें से कई तो बहुत पहले ही छूट जाने चाहिए थे। महासभा ने इस संबंध में ठहराव किया है। कार्य समिति ने श्री नरीमान को ऐसे सब कैदियों की नामावली तैयार करने का काम सौंपा है। उन्हें सब नामों के मिलते ही उन कैदियों को छुड़ाने के लिए कार्यवाही की जाएगी। पर जो बाहर हैं, उन्हें क्रांतिकारी हत्यांए बंद करके इसमें मदद करनी चाहिए। दोनों काम साथ-साथ नहीं किए जा सकते। हां, ऐसे राजनीतिक कैदी जरूर है, जिनकी मुक्ति किसी भी हालत में होनी ही चाहिए। मैं तो सब किसी को, जिनका इन बातों से संबंध है, यही आश्वासन दे सकता हूं कि इस ढिलाई का कारण इच्छा का अभाव नहीं है, बल्कि शक्ति की कमी है। यह याद रहे कि अगर कुछ ही महीनों में अंतिम सुलह हुई, तो उस वक्त तमाम राजनीतिक कैदी जरूर ही रिहा होंगे। अगर सुलह नहीं हुई, तो जो दूसरे राजनीतिक कैदियों को छुड़ाने की कोशिश में लगे हैं, वे खुद ही जेलों में जा बैठेंगे।

मोहनदास करमचंद गांधी