आज के हिंदी अख़बारों के संपादकीय: 24 मार्च, 2018

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नवभारत टाइम्स

प्रदूषण के विरुद्ध

दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने वर्ष 2018-19 के अपने बजट को ‘ग्रीन बजट’ का रूप देकर जो नई पहलकदमी की है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। पहली बार भारत की किसी सरकार ने प्रदूषण की जानलेवा समस्या पर अपनी शक्ति भर पैसा लगाया है। यह इस बात का संकेत है कि केजरीवाल सरकार प्रदूषण को बात-बहादुरी तक सीमित रखने के बजाय से बड़ी सामाजिक-आर्थिक चुनौती मानती है और इससे ठोस तरीके से निपटना चाहती है। दिल्ली का प्रदूषण विश्वव्यापी चिंता का विषय बन चला है। बीते दिसंबर में दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 की मात्रा 320.9 माइक्रोमीटर प्रति घनमीटर दर्ज की गई, जो आपात स्थिति के मानक से भी कुछ ऊपर थी। इसी तरह पीएम 10 की मात्रा 496 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज की गई, आपात स्थिति के करीब है। अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ यहां तक कह चुके हैं कि दिल्ली रहने लायक शहर नहीं रह गया है। जाहिर है, दिल्ली की जिम्मेदारी संभाल रही सरकार का यह सबसे बड़ा फ़र्ज़ है कि वह प्रदूषण पर काबू कर के इस शहर को रहने लायक बनाए। इसी को ध्यान में रखकर ग्रीन बजट में दिल्ली सरकार के चार विभागों पर्यावरण, ट्रांसपोर्ट, पावर और पीडब्ल्यूडी से जुड़ी 26 योजनाओं को शामिल किया गया है और इनके जरिए प्रदूषण नियंत्रण का अभियान शुरू किया जा रहा है। सरकार ने प्रस्ताव किया है कि जो लोग सीएनजी फिटेड कार खरीदेंगे उन्हें रजिस्ट्रेशन चार्ज में 50 पर्सेंट की छूट मिलेगी। दिल्ली के रेस्टोरेंट्स अगर कोयले वाले तंदूर की जगह इलेक्ट्रिक या गैस तंदूर काम में लाते हैं तो सरकार उन्हें प्रति तंदूर 5 हजार रुपये तक की सब्सिडी देगी। 10 केवीए या इससे अधिक क्षमता की डीजल जेनरेटर की जगह इलेक्ट्रिक जेनरेटर का इस्तेमाल करने पर सरकार की तरफ से इसके लिए 30 हजार रुपये तक की सब्सिडी दी जाएगी। इंडस्ट्रियल एरिया में पाइपेड नेचरल गैस का इस्तेमाल करने पर एक लाख रुपये की मदद सरकार की ओर से मिलेगी। दिल्ली देश का पहला ऐसा राज्य बनने जा रहा है, जहां जनवरी से लेकर दिसंबर तक पूरे साल प्रदूषण का रीयल टाइम डाटा जुटाया जाएगा। सरकार ने एक हजार लो फ्लोर इलेक्ट्रिक बसें लाने का लक्ष्य भी रखा है। शहर में हरित इलाके बढ़ाए जाएंगे। इलेक्ट्रिक वीइकल पॉलिसी भी बनाई जा रही है। बहरहाल, दिल्ली सरकार की अपनी कुछ सीमाएं भी हैं। उसकी कई परियोजनाएं उप-राज्यपाल की मंजूरी पर निर्भर करेंगी। बावजूद इसके, उसने प्रदूषण से लड़ने की जो इच्छा शक्ति दिखाई है, वह बाकी सरकारों के लिए एक मिसाल है। दिल्ली सरकार को अपनी योजना पर अमल में दृढ़ता दिखानी होगी, हालांकि शहर वासियों के सहयोग से एक आंदोलन का रुप भी दिया जा सकता है।


जनसत्ता

राहत का लाभ

शुक्रवार को आया दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला आम आदमी पार्टी के लिए जितनी बड़ी राहत है, निर्वाचन आयोग के लिए उतना ही बड़ा झटका। यह अलग बात है कि आयोग ने इसे अपने लिए कोई झटका मानने से इनकार किया है। यह प्रतिक्रिया झेंप मिटाने की कोशिश के अलावा और क्या कही जा सकती है? आयोग ने आप के बीस विधायकों को, उनके खिलाफ लाभ के पद के आरोप को सही मानते हुए, विधानसभा की सदस्यता के अायोग्य ठहराया था, और उसके निर्णय को राष्ट्रपति ने भी अपनी मंजूरी प्रदान की थी, जबकि अदालत ने उनकी सदस्यता बहाल कर दी है। अलबत्ता साथ ही अदालत ने आयोग से कहा है कि वह इन विधायकों का पक्ष सुने और मामले पर फिर से विचार करे। अदालत के इस फैसले को दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सच्चाई की जीत करार दिया है। यह सही है कि इस फैसले के चलते, संबंधित मामले में, निर्वाचन आयोग की निर्णय-प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा है। लेकिन इस फैसले को आप या केजरीवाल की नैतिक जीत समझना सही नहीं होगा। दिल्ली उच्च न्यायालय ने संसदीय सचिव के तौर पर संबंधित विधायकों की नियुक्ति को सही या जायज नहीं ठहराया है, बल्कि उसके फैसले का निचोड़ यह है कि आयोग ने उचित निर्णय प्रक्रिया की अनदेखी की। आयोग द्वारा सदस्यता के अयोग्य ठहराए गए विधायकों ने भी इसी बिना पर आयोग के फैसले को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी कि उसने उनका पक्ष सुने बगैर ही अपना फैसला सुना दिया, जो कि न्याय के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है।

अब आयोग को उन विधायकों का पक्ष सुनना ही होगा। पर क्या आयोग वही फैसला दोबारा सुना सकेगा? कहना मुश्किल है। पर यह गौरतलब है कि सदस्यता खारिज करने की केंद्र की तरफ से जारी अधिसूचना पर रोक लगाने की इन विधायकों की अपील इसी जनवरी में दिल्ली उच्च न्यायालय ने खारिज कर दी थी। अलबत्ता निर्वाचन आयोग को यह निर्देश जरूर दिया था कि वह उपचुनावों की घोषणा करने जैसा कोई कदम न उठाए। आम आदमी पार्टी 2015 में दूसरी बार सत्ता में आई, दिल्ली की सत्तर सदस्यीय विधानसभा में सड़सठ सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ। दूसरी बार सत्ता में आए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया। इनमें से एक विधायक ने बाद में इस्तीफा दे दिया। इन विधायकों को संसदीय सचिव बनाने की क्या जरूरत थी? इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब केजरीवाल कभी नहीं दे सके।

विवाद उठने और कानूनी रूप से घिरने पर आम आदमी पार्टी एक तरफ आयोग पर निशाना साधती रही और दूसरी तरफ अदालत का दरवाजा खटखटाती रही। दिल्ली उच्च न्यायालय ने आप की ही अपील पर 2016 में सात फरवरी से रोजाना सुनवाई की थी, और फिर सितंबर में, संसदीय सचिव के तौर पर विधायकों की नियुक्तियों के खिलाफ फैसला सुनाया था। तो क्या अदालत के तब के फैसले और ताजा फैसले में कोई अंतर्विरोध है? या, उन नियुक्तियों को गलत मानते हुए भी, उन्हें सदस्यता खारिज करने का आधार नहीं बनाया जा सकता? क्या आयोग प्रार्थी विधायकों का पक्ष सुनने के बाद, पहले के अपने फैसले को दोहरा सकेगा? इन सवालों के जवाब तो बाद में ही मिलेंगे, पर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का संदेश साफ है, कि निर्वाचन आयोग को अपनी निर्णय पक्रिया में और भी पारदर्शी होने की जरूरत है।


हिन्दुस्तान

व्यापार युद्ध की ओर

तो क्या मान लिया जाए कि अमेरिका और चीन की व्यापारिक तनातनी ट्रेड वार का रूप ले चुकी है और अब इसके दूरगामी वैश्विक नतीजों की उल्टी गिनती का समय आ गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बीते कुछ समय से जैसी घुड़की दिखा रहे थे, उसे आगे बढ़ाते हुए उन्होंने चीन के आयात पर 60 अरब डॉलर का टैरिफ लगाने की घोषणा की, तो चीन ने भी अमेरिका के 128 उत्पादों से शुल्क रियायतें हटाने की प्रक्रिया शुरू कर खुले ट्रेड वार का एलान ही कर दिया। अमेरिकी टैरिफ का असर अगर स्टील और एल्युमिनियम पर पड़ेगा, जिसका चीन बहुत बड़ा निर्यातक है, तो अमेरिकी उत्पादों पर रियायत हटाना अमेरिकी बाजार के लिए बड़ा झटका साबित होगा।

अमेरिका-चीन के ताजा टकराव को वैश्विक व्यापार युद्ध की शुरुआत कहना मुफीद होगा। देखने में भले ही यह परस्पर हैसियत बताने की लड़ाई लगे, लेकिन इसके वैश्विक रूप लेने के नतीजे गंभीर होंगे। यह अंतत: बेरोजगारी बढ़ाने, आर्थिक रफ्तार में मंदी और व्यापारिक साझीदारों के रिश्ते बिगाड़ने वाला साबित होगा, क्योंकि भूलना नहीं चाहिए कि ट्रेड वार एक तरह से संबद्ध देशों द्वारा अपने उद्योग बचाने के प्रयास से उपजा संरक्षणवाद है, जिसका असर अंतत: दूसरे देशों या उत्पाद विशेष के निर्यातक देश पर सीधे पड़ता है। ट्रंप इसी संरक्षणवाद के पोषक बने दिखाई दिए हैं। वह अपने स्वदेशी के फॉर्मूले पर इतना मुग्ध हैं कि अक्सर दीर्घकालिक हित भी नहीं देख पाते। वीजा में कटौती से भारतीयों को रोजगार में झटका देने के नाम पर अपने ही आईटी उद्योग की जड़ में मट्ठा डालना भी ऐसा ही कदम था, जब वह असली हित भूल जाते हैं। ताजा कदम का असर चीन-अमेरिका से अलग तमाम देशों पर पड़ने जा रहा है, क्योंकि इनके द्विपक्षीय व्यापार निवेश संबंधों की बुनावट वैश्विक आपूर्ति चेन से जुड़ी है और ऐसी किसी तनातनी का अन्य देशों की कंपनियों और उपभोक्ताओं पर सीधा असर पड़ेगा।

स्वाभाविक है कि दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच का यह युद्ध उन द्विपक्षीय ही नहीं, बहुपक्षीय बाजार व्यवस्थाओं को चुनौती दे रहा है, जो 1990 के बाद से वैश्विक बाजारों को नियंत्रित करती आई हैं। यही कारण है कि ट्रंप की सोच और काम को लेकर अब अमेरिका में ही खुलकर उंगलियां उठने लगी हैं। माना जाने लगा है कि वह अपनी जिद पर चलते हैं, जो अक्सर घातक साबित हो रही है। अमेरिका के भीतर-बाहर चल रही इन बहसों पर गौर करने की जरूरत है।

ट्रंप ने अर्थव्यवस्था की मजबूती के नाम पर जैसा कदम उठाया है, सवाल उठने लगे हैं कि जिन भी देशों के साथ अमेरिका व्यापारिक घाटा झेल रहा है, उन पर उसकी इस नीति का सीधा असर पड़ेगा। यानी यदि यह निष्कर्ष निकाला जाए कि जिस तरह एशिया के लगभग सभी देश अमेरिका को अच्छा-खासा निर्यात करते हैं, तो मुनाफे के नाम पर उन्हें भी किसी भी वक्त, ऐसे ही नतीजों के लिए तैयार रहना चाहिए। शायद यह सवाल ऐसे तमाम देशों के लिए खतरे की घंटी भी हो। अच्छी बात यह है कि भारतीय स्टील कंपनियों पर फिलहाल अमेरिकी फैसले का कोई सीधा असर नहीं पड़ने जा रहा, क्योंकि उनके कुल निर्यात में अमेरिकी बाजार की हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है। हां, इसके कुछ छिपे हुए खतरे भी होंगे, जो समय के साथ सामने आएंगे।


अमर उजाला

इस राहत का मतलब

लाभ का पद मामले में आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की सदस्यता फौरी तौर पर बहाल करने का दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला जहां आप के लिए बड़ी राहत के रूप में आया है, वहीं इससे चुनाव आयोग की सबसे ज्यादा किरकिरी हुई है, जिसने तब उन विधायकों का पक्ष सुने बगैर ही उनकी सदस्यता रद्द करने का एकतरफा फैसला ले लिया था। चुनाव आयोग के उस फैसले को राष्ट्रपति ने स्वाभाविक ही मंजूरी दे दी थी। लेकिन इन सबको एक तरफ कर अदालत ने इन विधायकों की सदस्यता बहाल रखी है, तो इसका ठोस संदेश है। वह संदेश यह है कि आप के उन विधायकों को अयोग्य ठहराने में जल्दबाजी की गई, जिसके लिए खुद केंद्र सरकार कोई कम जिम्मेदार नहीं है। इसके अलावा एक सांविधानिक संस्था के तौर पर चुनाव आयोग की स्वायत्तता का सवाल तो अपनी जगह है ही। अदालत ने यह फैसला लेते हुए दो बातें कही हैं : एक यह कि लाभ का पद परिभाषित नहीं है। और दूसरा यह कि चुनाव आयोग ने फैसला लेते हुए उन विधायकों का पक्ष नहीं सुना, जो प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है। इसलिए अदालत ने चुनाव आयोग को इस मामले की दोबारा सुनवाई के लिए कहा है, जिसमें उन विधायकों की बात भी सुनी जाए। बेशक यह फौरी राहत ही है, लेकिन आप के लिए इसका राजनीतिक महत्व बहुत ज्यादा है। यह फैसला तब आया है, जब पार्टी माफी मांगने के मुद्दे पर, जो उसकी लाचारी को ही सामने रखता है, भीतरी कलह से जूझ रही है। लेकिन बजट पेश करने के तुरंत बाद, जिसमें उसने पर्यावरण को बहुत महत्व दिया है, उसके विधायकों की सदस्यता बहाल करने के फैसले से जनता में यह छवि बनेगी कि आप गंभीरता से काम करना चाहती है, लेकिन उसे परेशान करने की साजिश लगातार चल रही है। बल्कि अदालत के फैसले के बाद आप की आक्रामकता बताती है कि वह इसे मुद्दा बनाएगी, जिसका उसे दिल्ली में चुनावी फायदा मिल सकता है। अलबत्ता अदालत के फैसले को राजनीतिक लाभ-हानि से परे जाकर भी देखना चाहिए। मसलन, ऐसा क्यों है कि दिल्ली में लाभ का पद मामले में विधायकों की सदस्यता जाती है, लेकिन दूसरे कुछ राज्यों में ऐसे लाभार्थियों की सदस्यता बची है? समय आ गया है कि लाभ के पद को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए।


राजस्थान पत्रिका

पैसा फेंक तमाशा

देश का उच्च सदन यानी राज्यसभा ‘पैसा फेंको तमाशा देखो’ की राह पर चल पड़ा लगता है। चुनाव को लेकर एसोसियेशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्स की रिपोर्ट से तो ऐसा ही खुलासा हुआ है। राज्यसभा में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जिनकी योग्यता सिर्फ और सिर्फ पैसे से आंकी जाती है। पैसे वाले लोग पहले भी राज्यसभा की शोभा बढ़ाते रहे हैं लेकिन अब उम्मीदवारी तय होने में पैसे की भूमिका अहम हो चली है। खास कर उन सीटों पर जहां जीत का बहुमत निर्दलीय अथवा छोटे दलों के जरिए जुटाना होता है। एडीआर की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि राज्यसभा के हुए चुनाव में 87 फीसदी प्रत्याशी करोड़पति थे। इनमें पांच प्रत्याशी तो ऐसे थे जिनकी संपत्ति ढाई सौ करोड़ से लेकर चार हजार करोड़ तक आंकी गई हैं। इन तथ्यों से यही साबित होता है कि राजनीति सिर्फ पैसे वालों के इर्द-गिर्द सिमटती जा रही है। राज्यसभा के लिए मनोनीत होने वाले सांसदों का कद भी पहले जैसा नजर नहीं आता। एक जमाने में राज्यसभा के लिए मनोनीत लोगों की सूची में जाकिर हुसैन, मैथिलीशरण गुप्त, भगवतीचरण वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, अमृता प्रीतम और मृणाल सेन सरीखे नाम होते थे। आज मनोनीत लोगों में शुमार अधिकांश सांसद ऐसे होते हैं जो छह साल के कार्यकाल में शायद ही कभी बोलते हों। राज्यसभा चुनाव शक्ति प्रदर्शन के रूप में तब्दील होता जा रहा है। पिछले साल गुजरात में राज्यसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस नेता अहमद पटेल को हराने-जिताने को लेकर चला ‘नाटक’ देश भूला नहीं है। उत्तर प्रदेश में कल हुए राज्यसभा चुनाव में जोड़-तोड़ का यही खेल फिर से दोहराया गया। इसमें धनबल से लेकर सत्ताबल का जमकर दुरुपयोग किया गया।


 दैनिक भास्कर

फेसबुक की चोरी व लोकतंत्र के पहरेदारों की गुहार

फेसबुक विवाद ने एक बात साबित कर दी है कि ईमानदारी और सच्चाई के शोर के बीच नई प्रौद्योगिकी के सहारे चोर अपना काम करते रहते हैं। कई बार तो इसमें चोर मचाए शोर की भी ध्वनि आती है। इस बीच जनता कुछ जान ही नहीं पाती कि सही कौन है और गलत कौन है। जब तक सच का पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। यह बात कभी अमेरिकी चुनाव और तो कभी ब्रेग्जि़ट के जनमतसंग्रह से साबित होती है। भारत के 2014 के आम चुनाव और 2018 के गुजरात चुनाव की सच्चाई तो अभी सामने आनी है लेकिन, इसे महज भाजपा बनाम कांग्रेस और कैंब्रिज एनालिटिका की फेसबुक से सांठगांठ के रूप में देखना मामले को सीमित करना है। इससे पहले 2011 के अन्ना आंदोलन के दौरान इन माध्यमों का कितना न्यायपूर्ण प्रयोग हुआ यह भी विचार का विषय है। अच्छी बात यह है कि आंकड़ों की चोरी की बात स्वयं फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग ने स्वीकार की है। उनकी यह स्वीकारोक्ति भारत के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद की धमकी के बाद आई है, इसलिए यह माना जा सकता है कि उनकी चिंता में भारत के 25 करोड़ फेसबुक यूज़र शामिल हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव में रूस के हस्तक्षेप की जांच चल रही है और उसमें यह बात उभर रही है कि कैंब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक के सदस्यों को प्रलोभन देकर उनका डेटा इकट्‌ठा किया और फिर उनकी राय बदलने के लिए फर्जी खबरों, विज्ञापनों और ब्लागों का सिलसिला शुरू कर दिया। इस बीच जकरबर्ग को अगले वर्ष ब्राजील, अमेरिका और भारत में होने वाले आम चुनावों में अपनी साख मिटने और नाक कटने की चिंता सता रही है। वे इसे रोकने के लिए आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस का भी इस्तेमाल कर रहे हैं। नई सूचना प्रौद्योगिकी ने लोकतंत्र में जनमत के समक्ष बहला-फुसला और ठग लिए जाने की चुनौती प्रस्तुत की है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस अभियान में लोकतांत्रिक चुनाव एक युद्ध की तरह हो गए हैं, जहां लोकतांत्रिक संस्थाओं का इस्तेमाल करते हुए बेहतर मानव समाज बनाने का लक्ष्य खो गया है और सत्ता पाने का लक्ष्य सर्वोपरि हो चला है। इसीलिए पार्टियां और सरकारें तभी कार्रवाई करती हैं जब उनका निहित स्वार्थ आहत होता है। आवश्यकता है कि चर्चा और कार्रवाई नागरिकों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के अस्तित्व को ध्यान में रखकर की जाए।


दैनिक जागरण

ठहरी हुई संसद

संसद का एक अन्य दिन हंगामे की भेंट चढ़ने के साथ ही एक और सप्ताह बिना किसी खास कामकाज के निकल गया। कहना कठिन है कि अगले सप्ताह स्थितियों में कुछ परिवर्तन होगा, क्योंकि विपक्ष के साथ सत्तापक्ष की भी दिलचस्पी इसमें नहीं नजर आती कि संसद चले। यह ठीक है कि वित्त विधेयक पारित हो गया है और सरकार के एजेंडे में कोई महत्वपूर्ण विधेयक नहीं दिख रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह संसद को चलाने के प्रति सचेत न दिखे। समझना कठिन है कि सरकार विपक्ष के साथ कोई समझ-बूझ कायम क्यों नहीं करती? आखिर इसका क्या मतलब कि जब 15 दिन हंगामे में बर्बाद हो गए तब संसदीय कार्यमंत्री को विपक्षी नेताओं से मेल-मुलाकात करने की याद आई? आखिर यह काम पहले क्यों नहीं हो सकता था? यह सही है कि अगर विपक्षी दलों के सांसद सदन कूप में नारेबाजी करने को आतुर रहें और सदन अव्यवस्था से ग्रस्त बना रहे तो संसद का चलना मुश्किल है, लेकिन सत्तापक्ष इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि संसद चलाने की जिम्मेदारी उसकी ही है और इस जिम्मेदारी का निर्वहन तब हो पाता है जब विपक्ष की मांगों-मुद्दों के प्रति लचीला रवैया अपनाया जाता है। सत्तापक्ष को यह आभास होना चाहिए कि उसके प्रति ऐसी धारणा बनना ठीक नहीं कि वह विपक्ष को सुनने-समझने के लिए तैयार ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्तापक्ष अविश्वास प्रस्ताव से बचना चाह रहा है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि तेलुगु देसम पार्टी के राजग से बाहर होने और शिवसेना के ढुलमुल रवैये के बाद सरकार के नीति-नियंता यह सोच सकते हैं कि चुनावी वर्ष में उसके संख्याबल में कमी दिखना ठीक नहीं, लेकिन इस चिंता में संसदीय तौर-तरीकों को ताक पर नहीं रखा जा सकता।1विपक्षी दल संसद चलाने के प्रति बेपरवाह हो सकते हैं, लेकिन सरकार को भी ऐसे ही रवैये का परिचय देने से बचना चाहिए। आखिर सरकार संसद चलाने के मामले में अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करके उन विपक्षी दलों को बेनकाब करने का काम क्यों नहीं करती जो किस्म-किस्म के मसलों पर अपनी चिंता भी जताते हैं और सदन चलने की नौबत भी नहीं आने देते? यदि विपक्षी दल सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने को लेकर सचमुच गंभीर हैं तो फिर वे लोकसभा में ऐसे हालात क्यों नहीं बनने देते कि कार्यवाही आगे बढ़ सके? क्या कारण है कि लोकसभा अध्यक्ष को बार-बार यह कहना पड़ रहा है कि सदन व्यवस्थित हो तो वे अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष वाले सांसदों की गिनती करें? तेलुगु देसम पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस की ओर से अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस देने के बाद कांग्रेस की ओर से भी ऐसी ही नोटिस दे दी गई है। इसके साथ ही यह साफ हो गया कि अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में तय संख्या में सांसद हैं। अब अगर विपक्षी दल अविश्वास प्रस्ताव को लेकर गंभीर हैं तो फिर उन्हें सत्तापक्ष को यह कहने का मौका नहीं देना चाहिए कि सदन व्यवस्थित हो तो उनकी नोटिस पर चर्चा हो। पता नहीं लोकसभा किस राह जाएगी, लेकिन यह जानना कठिन है कि राज्यसभा क्यों हंगामे से जूझ रही है?