‘विचार ही अब द्रोह’: सुभाष गाताड़े की नई पुस्‍तक की प्रस्‍तावना


मीडियाविजिल इस पुस्‍तक के लोकार्पण से पहले रोज़ाना अपने पाठकों के लिए इसके कुछ अहम अंश लेखक की अनुमति से प्रकाशित करेगा


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पांच दिन बाद शुरू हो रहे दिल्‍ली के विश्‍व पुस्‍तक मेले में इस वर्ष आ रही हिंदी की किताबों में वामपंथी एक्टिविस्‍ट एवं लेखक सुभाष गाताड़े की नई पुस्‍तक ‘’चार्वाक के वारिस: समाज, संस्कृति और सियासत पर प्रश्नवाचक’’ एक अहम प्रकाशन है जिसमें 2014 में भारत में हुए सत्‍ता परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में टटोला गया है। मीडियाविजिल इस पुस्‍तक के लोकार्पण से पहले रोज़ाना अपने पाठकों के लिए इसके कुछ अहम अंश लेखक की अनुमति से प्रकाशित करेगा। इस क्रम में आज पुस्‍तक की प्रस्‍तावना ‘’विचार ही अब द्रोह’’ आपके सामने प्रस्‍तुत है जिससे आपको इस पुस्‍तक की सामग्री के बारे में मोटामोटी समझ बनाने में मदद मिलेगी और परिप्रेक्ष्‍य निर्माण हो सकेगा- (संपादक)  

कार्ल मार्क्‍स की दूसरी जन्मशती दुनिया भर में मनायी जा रही है।

दिलचस्प है कि विगत लगभग एक सौ पैंतीस सालों में जबसे उनका इन्तक़ाल हुआ, कई कई बार ऐसे मौके आए जब पूंजीवादी मीडिया में यह ऐलान कर दिया कि ‘मार्क्‍स इज डेड’ अर्थात ‘मार्क्‍स मर गया’; अलबत्ता, यह मार्क्‍स की प्रत्यक्ष मौत की बात नहीं थी बल्कि मानवमुक्ति के उस फलसफे के अप्रासंगिक होने की उनकी दिली ख्वाहिश को जुबां दिया जाना था, जो उनके नाम के साथ जाना जाता है। याद किया जा सकता है कि सोवियत रूस का विघटन होने के बाद और जिन दिनों पूंजीवाद की ‘अंतिम जीत’ के दावे कुछ अधिक जोर से उठने लगे थे, पूर्व सोवियत रूस के एक गणराज्य में बाकायदा एक पोस्टर मार्क्‍स की तस्वीर के साथ ‘‘मोस्ट वाटेंड’’ के नारे के साथ छपा था।

यह अलग बात है कि हर बार इस भविष्यवाणी को झुठला कर अग्निपक्षी/फिनिक्स की तरह मार्क्‍स राख से बार बार ‘नया जीवन’ लेकर उपस्थित होते रहे हैं। आलम तो यहां तक आ पहुंचा है कि 1999 में- अर्थात सोवियत रूस के विघटन के लगभग नौ साल बाद- बीबीसी के आनलाइन सर्वेक्षण में मार्क्‍स को सहस्त्राब्दी का सबसे बड़ा विचारक कहा गया था।

आखिर ऐसी क्या बात रही है कि मार्क्‍स आज भी करोड़ो करोड़ लोगों के लिए उम्मीद का पर्याय बन कर उपस्थित है। मार्क्‍स का विचार क्यों उन्हें ‘‘अपने दिल के साथ एक कविता के तौर पर गुफ्तगू करता और मन को ऐसी छवियों एवं विचारों के साथ आप्लावित करता दिखता है जो बिल्कुल नयी हैं।’’ किस तरह वह ‘‘हमारे इर्दगिर्द हो रहे बदलावों के दिग्भ्रमित करनेवाले, विचलित करनेवाले, उत्तेजित करनेवाले असली कारणों की तरफ हमारी आंखें खोलता है, और हमारा मौजूदा यथार्थ जिन संभावनाओं से भरा है उनको उजागर करता है।’’

मार्क्‍स के अंतिम संस्कार के वक्त़ उनके सखा और अभिन्न साथी फ्रेडरिक एंगेल्स ने चंद लफ्ज़ों में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की थी, वह इस पर रौशनी डालती दिखती है, जब ‘दुनिया के इस सबसे महान चिन्तक’ ने अंतिम सांस ली थी। विश्व के लड़ाकू सर्वहारा और इतिहास के विज्ञान को हुई इस ‘अपरिमित हानि’ को रेखांकित करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया था कि ‘जिस तरह डार्विन ने जैविक दुनिया के विकास के नियम तलाशे’ उसी तरह ‘मार्क्‍स ने मानवीय इतिहास के नियमों की खोज की: यह सरल सी बात जो विचारधारा की अतिवृद्धि के चलते छिप जाती रही है कि राजनीति, कला, विज्ञान या धर्म करने के लिए सबसे पहले जरूरी होता है इन्सानियत खाने पीने का जुगाड़ करे और इसलिए फौरी भौतिक जरूरतों का उत्पादन, और किन्हीं लोगों द्वारा किसी विशिष्ट दौर में हासिल किया आर्थिक विकास, उस बुनियाद का निर्माण करता है जिसमें राज्य की संस्थाएं, कानूनी अवधारणाएं, कला यहां तक कि धर्म पर अपने विचार विकसित होते हैं।’’

एंगेल्स की यह छोटी सी तकरीर जब नए सिरे से पलट रहा था तब एक और बात फिर रेखांकित हुई कि किस तरह पूंजीवादी हुकूमत- फिर चाहे निरंकुशवादी हो या गणतंत्रवादी- सभी ने मार्क्‍स को ‘‘अपने वक्त़ के सबसे घृणित’’ और ‘’सबसे बदनाम शख्स’’ के तौर पर चित्रित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, और किस तरह ऐसे ‘‘कुत्साप्रचार’’ को ‘मकड़े के जाले’ की तरह झटकते हुए मार्क्‍स अपने काम में, अपनी वैचारिक मुहिम में जुटे रहे थे, व्यवस्था के कर्णधारों को असहज करनेवाले अपने ‘खतरनाक’ विचारों को आगे बढ़ाने में मुब्तिला रहे थे।

मार्क्‍स की द्वितीय जन्मशती पर तमाम लोगों ने लिखा है।

नोबेल पुरस्कर विजेता अमर्त्‍य सेन ने इस बहाने एक खूबसूरत तथ्य को रेखांकित किया कि उनके चिन्तन ने किस तरह समूचे बौद्धिक जगत को इस कदर रूपांतरित कर दिया है- फिर चाहे सामाजिक समझदारी के अनिवार्य हिस्से के तौर पर वर्गीय विश्लेषण की पद्धति हो या जरूरतों एवं हाड़तोड मेहनत के बीच की विषमता के बहाने प्रगट होती लोगों के नैतिक हकदारी के बुनियाद के विरोधाभास हों- और ऐसे कई प्रभाव इतने सर्वव्यापी हैं, जिनका हमारे रोजमर्रा के विश्लेषण में प्रयुक्त अवधारणाओं एवं सम्बन्धों पर इस कदर असर पड़ा है कि हम जानते भी नहीं कि उनकी जड़ कहां है? ‘गार्डियन’ में एक विश्लेषक स्टुअर्ट जेफरी ‘दो सदी बाद भी मार्क्‍स क्यों अधिक क्रांतिकारी लगते हैं’ इसे स्पष्ट करते हुए उनकी ‘‘वस्तु की अंधभक्ति’ /कमॉडिटी फेटिशिज्‍़म/ की अवधारणा को आज के लिए बेहद प्रासंगिक कहा है। मालूम हो कि इस शब्द के बहाने मार्क्‍स ने पूंजीवाद के तहत कामगारों द्वारा उन्हीं के द्वारा निर्मित सामान्य वस्तुएं किस तरह उनके लिए ही अजनबी बन जाती हैं, इसको बयां किया था। उत्पादन में कायम सामाजिक सम्बन्धों को, लोगों के आपसी रिश्ते के तौर पर समझने के बजाय, पैसे और वस्तुओं के बीच के आर्थिक सम्बन्ध के तौर पर समझने की परिघटना के तौर पर रखा था और बताया था कि जिस तरह कुछ धर्मों में कुछ वस्तुएं – उसके माननेवालों के लिए – अलौकिक ताकत ग्रहण करती हैं, वही हाल पूंजीवाद में वस्तुओं का होता है जो जादुई ताकत हासिल करती हैं।

मार्क्‍स से आप सहमत-असहमत हो सकते हैं, मगर हमारे वक्त़ में वह इस वजह से और भी मौजूं दिखते हैं कि वह अपने विचारों के लिए बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अड़िग रहने और उनके लिए संघर्ष करते रहने की बेहद शानदार नज़ीर पेश करते हैं। इतिहास गवाह है कि इस महान विचारक को किस तरह यूरोप के आधा दर्जन मुल्कों ने अपने यहां से खदेड़ा था, किस तरह उनमें से अधिकतर में प्रवेश के दरवाजे उनके लिए हमेशा बन्द रहे और किस तरह उन्होंने तीस साल तक लंदन में शरण पायी और ‘सर के बल खड़ी दुनिया को पैरों पर खड़ा करने के’ वैचारिक औजारों को गढ़ने में मुब्तिला रहे थे।

हमारा वक्त़, एक ऐसा वक्त़ जब विचार को ही द्रोह साबित किया जा रहा है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिशों की बात पुरानी पड़ गयी है, फिलवक्त़ विचारों पर ही स्याह छायाएं मंडराती दिख रही हैं, उसी पर अधिकाधिक बंदिशें लगती दिख रही हैं।

विचारों के खिलाफ चल रहा यह युद्ध दरअसल कई छटाओं को लिए हुए है। आप कह सकते हैं कि एक स्पेक्ट्रम की तरह पसरा है। हर वो स्थान, हर वह माध्यम जो विचारों के मुक्त प्रवाह को सुगम बना दें, मनुष्य के दिमाग को ‘‘तर्क करने का साहस’’ करने के लिए प्रेरित कर सके, उसे बाधित करने के लिए – फिर वह चाहे शिक्षा संस्थान हों, पाठयपुस्तकें/किताबें हो या सार्वजनिक दायरे में व्याप्त खुलापन हो- राज्यसत्ता के इदारें ही नहीं, ऐसी जमातें भी सक्रिय हैं जो ‘एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति’ के तहत आगे बढ़ रही हैं।

तर्क की मुखालिफ, विचारों की विरोधी ताकतों द्वारा यह जो मुहिम छेड़ी गयी है उसके एक छोर पर अगर हम चलती पिस्तौल की गोलियों को देख सकते हैं जो कभी किसी दाभोलकर,तो किसी कलबुर्गी के कपाल को भेदती जाती दिखती है तो उसके दूसरे छोर पर हम कलम या विचार के हिमायतियों, विचार जगत में विचरण करनेवाले बुद्धिजीवियों, विद्वानों को तरह तरह से प्रताडित, अपमानित करने जैसी स्थितियों को भी देख सकते है।

यह सोशल मीडिया के विस्तार का कमाल है कि सार्वजनिक विमर्श उस विडम्बनापूर्ण स्थिति में पहुंचा है कि आज असली लोग आज कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं हैं और आलम यह है कि छद्म नामों से जितना भी जहर उगला जा सके इस पर कोई रोक नहीं है। दुनिया के किसी भी कोने में, खास समुदायों को निशाना बना कर, महज फर्जी ख़बरों के सहारे चन्द लमहों में आग लगायी जा सकती है।

विचार जब जनसमुदाय द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, तब वे एक भौतिक शक्ति बन जाते है। कितनी दुरूस्त बात कही थी मार्क्‍स ने। अलबत्ता यह बिल्कुल विपरीत अन्दाज़ में हमारे सामने नमूदार हो रही है। जनसमुदाय उद्वेलित भी है, आन्दोलित भी है, एक भौतिक ताकत के तौर पर संगठित रूप में उपस्थित भी है, फरक बस इतना ही है कि उसके जेहन में मानवमुक्ति का फलसफा नहीं बल्कि ‘हम’ और ‘वे’ की वह सियासत है, जिसमें धर्मसत्ता, पूंजीसत्ता और राज्यसत्ता के अपवित्र कहे जा सकनेवाले गठबंधन के लिए लाल कालीन बिछी है। और यह सिलसिला महज दक्षिण एशिया के इस हिस्से तक सीमित नहीं है।

लाजिम है ऐसे माहौल में हर उस शख्स, हर उस समूह, हर उस संगठन की जिम्मेदारी सौगुना बढ़ गयी है जो धर्म एवं राजनीति के खतरनाक घोल के परिणामों को समझ रहा है, जो पूंजी की लूट को सुगम बनाने के लिए नितनवीन बन रहे इस तंत्र से बाख़बर है और उसे भेदने की जरूरत को महसूस कर रहा है और जो विचारों की अहमियत जानता है, जो उन्हें जुबां देने की जरूरत समझता है, जो जानता है कि विचारों को नए सिरे से और नयी अन्तर्वस्तु के साथ भौतिक ताकत अगर बनना है ताकि मानवमुक्ति की बातें एजेण्डा पर आएं तो उसके लिए हरेक को बकौल युवा मार्क्‍स ‘महान ऊंचा लक्ष्य’ तय करना होगा और उसके लिए चुनना होगा ‘उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम’ ताकि ‘आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और अभिमान में’ जिया जा सके, ‘असली इन्सान की तरह’ जिया जा सके।

प्रस्तुत किताब इन्हीं सरोकारों को मद्देनज़र रखते हुए लिखी गयी है। अलबत्ता उसका फोकस बहुत सीमित है। वह भारत के समाज, संस्कृति और सियासत से रूबरू होने की एक कोशिश है।

निश्चित तौर पर 2014 के बाद भारतीय राजनीति में जिस किस्म का उलटफेर दिखाई दिया है, जिस तरह हिन्दुत्व की दक्षिणपंथी ताकतों को बढ़त मिली है और उसके बाद जितनी तेज गति से भारत की राजनीति, समाज एवं संस्क्रति में बदलाव दिखाई देने लगे हैं – जिसका कभी किसी ने तसव्वुर तक नहीं किया था – वह हमारी चिन्ता का प्रमुख विषय है, लेकिन किताब महज उसी मसले पर केन्द्रित नहीं है। अपने समाज, संस्कृति और सियासत/राजनीति का प्रश्नवाचक इसे इसलिए कह रहे हैं ताकि इसके जरिए दरअसल पड़ताल करने की कोशिश की जाए कि इस किस्म की अतार्किक, असमावेशी, असहिष्णु एवं असमानतामूलक राजनीति के दबदबे को क्या सिर्फ उनकी संगठन क्षमता एवं दीर्घकालिक कार्रवाइयों की सफलता का नतीजा माना जा सकता है या ऐसे रूपांतरण की जड़ें भारतीय समाज, संस्कृति में पहले से मौजूद रही हैं। किताब के दूसरे भाग में भारत की जाति समस्या तथा उसके उन्मूलन के रास्ते की चुनौतियों की चर्चा की गयी है तो तीसरे भाग में हम बहुसंख्यकवाद की चुनौती से रूबरू हो रहे हैं तथा यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि उपनिवेशवाद के दिनों में उभरी राजनीतिक आज़ादी एवं सामाजिक मुक्ति की धारा में इस खतरे का कितना एहसास था और उसके दूसरे अध्याय में सामाजिक मुक्ति के प्रतीकों को यथास्थितिवादी ताकतों द्वारा समाहित किए जाने के सिलसिले पर रौशनी डाली गयी है। किताब के चौथे भाग में डॉ. दाभोलकर के हिंदी में प्रकाशित तीन किताबों की समीक्षा प्रस्तुत की गयी है।

किताब क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले और उनकी अनन्य सहयोगिनी फातिमा शेख को समर्पित की गयी है। भारत में जब से उत्पीड़ितों की दावेदारी का आन्दोलन अस्सी नब्बे के दशक में सुर्खियां बना है, तब से सावित्रीबाई फुले-ज्योतिबा फुले और उनकी धारा के अन्य सामाजिक क्रांतिकारियों से पूरा देश वाकिफ हो चला है। विडम्बना ही है कि इस फेहरिस्‍त में फातिमा शेख अभी तक कभी स्थान नहीं पा सकी है।

मालूम हो कि 1848 में जब पुणे में दलित लड़कियों के लिए पहले स्कूल की नींव भिडे के मकान में ज्योतिबा फुले ने रखी तब अध्यापन के लिए उनकी अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले ही नहीं थी बल्कि उनकी अनन्य सहयोगी फातिमा शेख भी साथ थीं और महज फातिमा शेख ही नहीं, उनका पूरा परिवार इस मुहिम में अभिन्न रूप से जुड़ा था। इसका एक सबूत यही मिलता है जब ज्योतिबा फुले के इन सामाजिक कामों के चलते उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया था, तब इस युवा दम्पति के लिए फातिमा शेख के भाई उस्मान शेख ने अपने घर के दरवाजे खोल दिए थे।

हमें लगता है कि आज के इस दौर में जब बहुसंख्यकवाद का चिन्तन सियासत में ही नहीं बल्कि समाज में भी अपनी जगह बना चुका है, ऐसे समय में इस तथ्य को दोहराना जरूरी है कि 19वीं सदी के मध्य में जब सामाजिक मुक्ति की लौ जलायी गयी थी, तब उसमें फातिमा शेख- उस्मान शेख जैसे इतिहास के पन्नों से गायब कर दिए गए लोग भी अग्रणी कतारों में चल रहे थे।

अन्त में, यह किताब आप के हाथों में आने के पीछे वामपंथी आन्दोलन के तीन दशक से अधिक समय के साथी स्वदेश कुमार के मित्रवत दबाव का योगदान रहा है। मैं उनका तथा ‘आथर्स प्राइड’ के युवा साथी आदित्य का तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, जिन्होंने इस दौरान बहुत धैर्य का परिचय दिया।

सुभाष गाताड़े मशहूर वामपंथी एक्टिविस्‍ट और लेखक-पत्रकार हैं