आज से ठीक 200 साल पहले भीमा कोरेगाँव में हुआ युद्ध भारत में अंग्रेज़ी राज की स्थापना के लिहाज़ से निर्णायक साबित हुआ था। 1 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की एक छोटी से टुकड़ी ने क़रीब 28000 सैनिकों वाली पेशवा सेना के दर्प को मिट्टी में मिलाकर मराठा साम्राज्य को पेंशन लेकर बिठूर में कयाम करने को मजबूर कर दिया था। ख़ास बात यह थी कि यह शौर्य उन महार सैनिकों का था जिनके लिए पेशवाशाही में गले में मटका और कमर में झाड़ू बाँधना अनिवार्य था। ऐसा इसलिए कि वे सड़क पर न थूककर मटके में थूकें और अपने पैरों की छाप झाड़ू से मिटाते चलें। पेशवाशाही शूद्रों के लिए विराट शोक के सिवाय कुछ भी नहीं थी। सिर्फ़ सेवा के लिए मजबूर किए गए शूद्रों को अंग्रेज़ों ने सैनिक का दर्जा दिया और कोरेगाँव युद्ध में महार सैनिकों ने जैसे सदियों के अपमान का बदला ले लिया । 1 जनवरी को हर साल कोरेगाँव में मेला लगता है, लेकिन शूद्रो के शौर्य की यह महागाथा पाठ्यक्रमों से ग़ायब है। उलटा, बाजीराव-मस्तानी जैसी फ़िल्मों के ज़रिए मराठा साम्राज्य की भव्यता और वीरता का पाठ पिलाने का कारोबार जारी है। पढ़िए, सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों पर विचारोत्तेजक बहसें चलाने वाले प्रख्यात बुद्धिजीवी और लेखक कँवल भारती की यह महत्वपूर्ण टिप्पणी- संपादक
कोरेगांव युद्ध के दो सौ साल
कँवल भारती
डा. बाबासाहेब आंबेडकर लिखते हैं—
“भारत को अंग्रेजों ने 1757 और 1818 के बीच जीता था. 1757 का युद्ध ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच लड़ा गया था. इसमें कम्पनी सेना की जीत हुई थी. इतिहास में इस लड़ाई को प्लासी की लड़ाई के नाम से जाना जाता है. इसी लड़ाई से ब्रिटिश ने पहली क्षेत्रीय विजय हासिल की थी. दूसरी अंतिम लड़ाई, जिसमें ब्रिटिश ने एक और क्षेत्रीय विजय प्राप्त की थी, 1818 में हुई थी. इस लड़ाई को कोरेगांव की लड़ाई कहा जाता है. यह वह लड़ाई थी, जिसने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित किया था. यह यूरोप में भारी उथल-पुथल का समय था. यह नेपोलियन युद्धों का भी समय था, जिसका अंतिम युद्ध 1815 में वॉटरलू में लड़ा गया था.
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इन दोनों लड़ाइयों में ईस्ट इंडिया कम्पनी की जीत भारतीय सेना की सहायता से हुई थी. लेकिन सवाल यह है कि वे भारतीय कौन थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में शामिल होकर भारत को जीतने में अंग्रेजों की मदद की थी. मैं बताना चाहता हूँ कि वे लोग भारत के अछूत थे.
जिन दो लड़ाइयों में भारत के अछूतों ने अंग्रेजों की मदद की थी, उनमें प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले लोग दुसाध थे, और दुसाध अछूत जाति है. जो लोग कोरेगांव की लड़ाई में लड़े थे, वे महार थे, और महार भी अछूत जाति है. इस प्रकार पहली और अंतिम दोनों लड़ाइयों में लड़ने वाले लोग अछूत थे, जिन्होंने अंग्रेजों की ओर से लड़कर अंग्रेजी सत्ता को कायम करने में मदद की थी.
अछूतों ने न केवल अंग्रेजों को भारत को जीतने में सक्षम बनाया, बल्कि अंग्रेजों को बनाये रखने में भी सक्षम बनाया. 1857 का गदर भारत में ब्रिटिश शासन को नष्ट करने का प्रयास था. यह अंग्रेजों को भगाने और भारत को फिर से जीतने का प्रयास था. सेना में इस बगावत का नेतृत्व बंगाल सेना कर रही थी. किन्तु बम्बई और मद्रास की सेनाएं वफादार बनी रहीं थीं. इन सेनाओं की सहायता से ही गदर को दबाया गया था. बम्बई और मद्रास की दोनों सेनाएं मुख्यतया अछूतों को भर्ती करके बनाई गई थीं. बम्बई सेना में महार और मद्रास सेना में परिया अछूतों को भर्ती किया गया था. इसलिए यह कहना सही है कि अछूतों ने न केवल भारत को जीतने में अंग्रेजों की मदद की थी, बल्कि उन्हें भारत में बनाये रखने में भी मदद की थी.”
मैं संघ परिवार के उन लोगों से, और उन हिन्दुओं से, जो जातिव्यवस्था को संसार की सबसे श्रेष्ठ व्यवस्था मानते हैं, कहना चाहता हूँ कि उनकी वर्णव्यवस्था ने जिन लोगों को अछूत बनाया और अधिकारों से वंचित रखा, उन्हीं अछूतों में अंग्रेजों ने लड़ाकू प्रवृत्ति देखी, और उन्हें सैनिक बनाकर उनकी सहायता से भारत को जीता. अछूतों ने 1818 में पेशवा शासन को उखाड़ फेंकने के लिए अंग्रेजों की मदद की थी और वहां अंग्रेजों का राज्य कायम हो जाना उनके लिए सबसे बड़ी ख़ुशी थी. यह ख़ुशी इसलिए थी, क्योंकि पेशवाओं ने उनके गले में हांडी और कमर में झाडू बंधवा दी थी. उन्होंने दलित वर्गों पर इतना जुल्म किया था कि अछूतों में पेशवाओं के लिए नफरत के सिवा कुछ नहीं था. यही कारण है कि उन्होंने अंग्रेजों के रूप में अपनी मुक्ति देखी थी.
31 दिसम्बर 1817 को कम्पनी के सैनिकों ने शिरूर से कूच किया था, और रात भर 25 मील चलकर तेलगाँव धामधेरे पहुंचे थे, जहाँ से उन्होंने भीमा नदी के किनारे पेशवा सेना को देखा था. इसी कोरेगांव भीमा में यह महान ऐतिहासिक युद्ध हुआ था.
1 जनवरी 1927 को बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने कोरेगांव जाकर युद्ध में शहीद महार सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी.