अयोध्या विवाद हल हो गया था, लेकिन RSS मंदिर नहीं सत्ता चाहता था!


वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह की एक बेहद जरूरी किताब जो अयोध्या विवाद को बेपर्ता करती है।


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अयोध्या विवाद सुलझाने में सुप्रीम कोर्ट को भी पसीना छूट रहा है। लेकिन एक वक्त ऐसा था जब इस मामले में समझौता हो गया था। फ़ैज़ाबाद में जनमोर्चा अख़बार के संपादक शीतला सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि कैसे वीएचपी नेता अशोक सिंघल एक फार्मूले पर सहमत हो गए थे, लेकिन जब इसकी जानकारी संघप्रमुख बालासाहेब देवरस को हुई तो वे बेहद नाराज़ हुए। उन्होंने सिंघल से समझौते से अलग हो जाने को कहा क्योंकि रामजन्मभूमि पर मंदिर बनाना नहीं, इस बहाने हिंदुओं को संगठित करके राजनीतिक शक्ति में बदलना आरएसएस का मक़सद था। बीती 8 जनवरी को दिल्ली के पुस्तक मेले में इस किताब ‘अयोध्या: रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का सच’ का विमोचन हुआ। 87 बरस के शीतला सिंह का स्वागत करने के लिए उनके तमाम मित्र और प्रशंसक वहाँ मौजूद थे। इस बेहद जरूरी किताब और जनपक्षधर पत्रकारिता में शीतला सिंह के बारे में लिखा है पत्रकार कल्लोल चक्रवर्ती ने जिसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं- संपादक

अयोध्या विवाद और शीतला सिंह

करीब दो दशक पुरानी बात होगी। द पायोनियर में ‘न्यूजमेकर’ कॉलम में एक पत्रकार की शख्सियत ने आकर्षित किया था। उसमें बताया गया था कि फैजाबाद में शीतला सिंह नाम के एक पत्रकार जनमोर्चा का, जो सहकारिता के मॉडल पर निकलने वाला अखबार है, संपादन करते हैं और घूम-घूमकर अखबार बेचते भी हैं। मंदिर आंदोलन के दौरान जनमोर्चा की साहसी और ईमानदार पत्रकारिता से मैं उसके बाद ही परिचित हुआ।

जिस दौर में मीडिया बहुत जल्दी लोगों को चर्चित बना डालता है, और जब ईमानदार पत्रकारिता की आयु तुलनात्मक रूप से कम होती गई है, तब यह सोचकर भी आश्चर्य होता है कि शीतला सिंह ने इस पेशे में लगभग छह दशक बिताए हैं और सत्तासी की इस उम्र में भी वह उतने ही स्वतंत्रचेता और पत्रकारिता के मूल्यों के वाहक हैं। वह संपादकों की उस दुर्लभ पीढ़ी से हैं, जो नियमित तौर पर संपादकीय लिखते हैं।

जनमोर्चा ने हिंदी पत्रकारिता को किस तरह समृद्ध किया है, इसके तीन उदाहरण देना चाहूंगा। आपातकाल के दौर में इसने पत्रकारीय मूल्यों का निर्वाह किया, नतीजतन लखनऊ स्थित इसके कार्यालय में ताला लगाकर तमाम लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था, ताकि इसका प्रकाशन ही रुक जाए।

गुमनामी बाबा का प्रकरण तो फैजाबाद के एक छोटे-से अखबार का स्टंट था, जो इसके जरिये जनमोर्चा से आगे निकलना चाहता था। तब जनमोर्चा ने अपने पत्रकारीय मूल्यों का निर्वाह करते हुए सच्चाई को सामने लाने का काम किया। शीतला सिंह ने कोलकाता जाकर सुभाष चंद्र बोस के परिजनों से मिलकर इस रहस्य से पर्दा उठाया। जनमोर्चा के पत्रकार आजाद हिंद फौज की खुफिया इकाई के प्रमुख पवित्रमोहन राय से मिले, जिन्होंने बताया कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं हो सकते। खुद शीतला सिंह ने इस मामले पर कई लेख लिखकर धुंध साफ की।

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में जनमोर्चा ने जो स्टैंड लिया, वह तो पत्रकारीय मूल्यों के निर्वाह का सर्वोत्कृष्ट नमूना है। फैजाबाद से इस तरह की पत्रकारिता करना कितने जोखिम का काम रहा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

पिछले दिनों शीतला सिंह की किताब ‘अयोध्या-राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का सच’ प्रकाशित हुई और दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में इसका लोकार्पण भी हुआ। शीतला सिंह अयोध्या मुद्दे पर सबसे आधिकारिक, वस्तुनिष्ठ और प्रामाणिक पत्रकारों में हैं, तो इसलिए नहीं कि वह फैजाबाद में रहकर जनमोर्चा अखबार निकालते हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने इस मुद्दे को उसकी शुरुआत से देखा, इस विवाद को हल करने के एक बेहद महत्वाकांक्षी और ईमानदार प्रयास से जुड़े और इस संदर्भ में राजीव गांधी, बूटा सिंह और नरसिंह राव के साथ उनकी कई बैठकें हुईं। निर्भीक और ईमानदार पत्रकारिता का अभियान उन्होंने तब भी जारी रखा, जब पत्रकारिता के बड़े हिस्से को आस्था के आगे समर्पण करते देर नहीं लगी।

गौर करने की बात है कि 1990 में जब पत्रकारिता राम मंदिर के मुद्दे पर ध्रुवीकृत होती जा रही थी, तब सहकारिता के मॉडल पर निकलने वाला हिंदी का एक अखबार उस पत्रकारिता को चुनौती दे रहा था। हिंदी छोड़िए, अंग्रेजी पत्रकारिता भी तब उस रास्ते पर चल पड़ी थी। ‘द हिंदू’ जैसा अखबार भी तब भ्रमित खबरें देने लगा था, और जनमोर्चा की शिकायत के बाद हिंदू ने वहां अपना संवाददाता बदला।

शीतला सिंह ने अयोध्या की विवादित इमारत में रामलला के ‘प्रकट होने’ के बारे में तो पर्याप्त रोशनी डाली ही है, इसका भी विस्तार से जिक्र किया है कि उस समय कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा किस तरह हिंदुत्ववादी मानसिकता से ग्रस्त था। आजादी के बाद कांग्रेस छोड़ देने वाले आचार्य नरेंद्र देव फैजाबाद के उपचुनाव में खड़े हुए थे और उन्हें हराने के लिए कांग्रेस ने राम जन्मभूमि का कार्ड खेला था। कांग्रेस ने आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ न केवल एक चितपावन ब्राह्मण बाबा राघवदास को खड़ा किया था, बल्कि उस चुनाव को राम-रावण की लड़ाई बताया था।

तब गोविंद वल्लभ पंत की उस राजनीति के साथ अनेक कांग्रेसी नेताओं के साथ तत्कालीन जिलाधीश भी थे। लेखक बताते हैं कि बाद में अनेक नौकरशाहों ने राजनीति की इस बहती गंगा में हाथ धोए। लेकिन उसी दौर में एक स्थानीय कांग्रेसी अक्षय ब्रह्मचारी ने कांग्रेस की उस राजनीति का खुला विरोध किया था। बाद में विवादित परिसर का ताला खोलने का काम भी कांग्रेस ने ही किया था। 1982 से ही अयोध्या को महत्व देने के धार्मिक प्रयास कांग्रेस की ओर से आरंभ हो गए थ।

यह तथ्य है कि राम जन्मभूमि आंदोलन को अपने सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम के रूप में संचालित करने वाली विश्व हिंदू परिषद 23 मार्च 1983 तक इस मुद्दे से पूरी तरह अनभिज्ञ थी। बल्कि राम जन्मभूमि मुद्दे की तरफ सत्ता राजनीति का ध्यान पहली बार आकृष्ट कराने वाले भी एक खांटी कांग्रेसी नेता दाउदयाल खन्ना ही थे। इन्होंने ही इंदिरा गांधी को अयोध्या, मथुरा और काशी के मंदिरों को मुक्त कराने का प्रस्ताव रख था। लेकिन ताला खुलने के अगले दिन से ही विश्व हिंदू परिषद की सक्रियता अयोध्या में बढ़ गई थी। बाकी का काम कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री काल में हुआ।

एक बेहद अनुभवी पत्रकार-संपादक की यह किताब अयोध्या मुद्दे को उसकी समग्रता में सच्चाई के साथ सामने लाती है। टेलीविजन पत्रकार विनोद दुआ ने वर्षों पहले शीतला सिंह से अयोध्या मुद्दे पर किताब लिखने के लिए कहा था, और यह भी कहा था कि आप रॉयल्टी की चिंता मत कीजिए। लेकिन शीतला सिंह ने तब किताब लिखने की जल्दबाजी नहीं दिखाई। हालांकि अयोध्या विवाद से जुड़े तमाम तथ्य उनके पास थे ही, जिसके आधार पर उन्होंने पांडुलिपि तैयार की।

वह चाहते थे कि दिल्ली का कोई प्रकाशक इसे छापे। इस संदर्भ में एक बार इन पंक्तियों के लेखक से भी उन्होंने जिक्र किया था। लेकिन फैजाबाद में रहते हुए दिल्ली की पत्रकारिता को आईना दिखाना और बात है, फैजाबाद के शीतला सिंह की पांडुलिपि को दिल्ली के स्वनामधन्य प्रकाशकों द्वारा हाथो-हाथ लेना और बात। इसलिए यह किताब आखिरकार फैजाबाद के उस कोशल पब्लिशिंग हाउस से छपकर आई, जिसने कुछ साल पहले शीतला सिंह की पत्रकारिता पर एक अद्भुत किताब छापी थी। जिस वक्त अयोध्या का मुद्दा एक बार फिर प्रासंगिक है, तब शीतला सिंह की यह किताब स्वाभाविक ही अपेक्षित चर्चा की मांग करती है।

पुस्तक विमोचन के अवसर पर सबसे बाएँ शीतला सिंह, वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी, तीसरे सज्जन का नाम पता नहीं और सबसे दाएँ समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा

पुस्तक विमोचन के अवसर पर बाएँ से वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, टोपी वाले सज्जन का नाम मालूम नहीं, विभूति नारायण राय, शेषनारायण सिंह, शीतला सिंह और रामशरण जोशी

कल्लोल चक्रवर्ती वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं। यह लेख उनकी फ़ेसबुक दीवार से साभार।