कोविड 19 ने जहाँ पूरी दुनिया में कहर बरपा कर रखा है वहीं कई देशों के शासक इस महामारी के बहाने अपने-अपने संकीर्ण लक्ष्य साधने में लगे हैं. कई देशों में अलग-अलग तरीकों से प्रजातान्त्रिक अधिकारों को सीमित किया जा रहा है, जिसके विरोध में अमरीका में एक अभियान शुरू हुआ है, जो उस ‘दमघोंटू’ सांस्कृतिक माहौल का विरोध कर रहा है, जिसके चलते वर्चस्वशाली विचारधारा से सहमत होने पर जोर दिया जा रहा, स्वतंत्र बहस पर पहरे लगाये जा रहे हैं और मत विभिन्नता के प्रति सहिष्णुता को कमज़ोर किया जा रहा है. यह सब भारत में भी हो रहा है. सांप्रदायिक शक्तियों ने पहले कोरोना के प्रसार के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया और अब पाठ्यक्रम को ‘हल्का’ करने के नाम पर भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं से सम्बंधित अध्यायों को पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है.
ऐसा बताया जा रहा है कि संघवाद, नागरिकता, राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, विधिक सहायता और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से सम्बंधित सामग्री पुस्तकों से हटाई जा रही है. सांप्रदायिक शक्तियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र हमेशा से बहुत महत्वपूर्ण रहा है. वे लगातार यह दावा करतीं आ रहीं हैं कि पाठ्यक्रमों का ‘भारतीयकरण’ किया जाना चाहिए क्योंकि उनके निर्माण में वामपंथियों के भूमिका के चलते उन पर मैकाले, मार्क्स और मोहम्मद का प्रभाव है. पाठ्यक्रमों के भारतीयकरण का पहला प्रयास सन 1998 में किया गया था. तत्कालीन एनडीए सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने पाठ्यक्रमों में बदलाव किये थे, जिन्हें ‘शिक्षा के भगवाकरण’ का नाम दिया गया था. उस समय दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक ताकतों का मुख्य फोकस सामाजिक विज्ञानों पर था. पाठ्यक्रमों में पौरोहित्य और ज्योतिष जैसे विषय और किताबों में जाति व्यवस्था और हिटलर मार्का राष्ट्रवाद का बचाव करने वाले अध्याय जोड़े गए थे.
सन 2004 में एनडीए सरकार के सत्ता से बाहर होने के बाद आई यूपीए सरकार ने इनमें से कुछ विकृतियों को ठीक करने का प्रयास किया. सन 2014 के बाद से, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले आरएसएस के अनुषांगिक संगठन अति सक्रिय है. उनकी कोशिश है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से, पाठ्यक्रमों में हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे के अनुरूप परिवर्तन किये जाएं. संघ परिवार का एक सदस्य है ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’. वह चाहता है कि किताबों में से अंग्रेजी और उर्दू के शब्द हटा दिए जाएं. उसकी यह भी मांग है कि राष्ट्रवाद पर रबीन्द्रनाथ टैगोर के विचार, एमएफ हुसैन की आत्मकथा के अंश और मुस्लिम राजाओं की उदारता के उदाहरणों सहित वे सभी हिस्से किताबों से बाहर कर दिए जाएं जिनमें भाजपा को हिन्दू पार्टी बताया गया है, डॉ मनमोहन सिंह द्वारा सिक्ख-विरोधी दंगों के लिए माफ़ी मांगने का संदर्भ दिया गया है और गुजरात के 2002 के दंगों में हुए भारी खून-खराबे की चर्चा की गई है. वे इसे पाठ्यक्रम का ‘भारतीयकरण’ करना मानते हैं.
संघ का जाल बहुत बड़ा है. उसके एक प्रचारक दीनानाथ बत्रा ने ‘शिक्षा बचाओ अभियान समिति’ का गठन किया है जो विभिन्न प्रकाशकों पर दबाव डालती रही है कि वे उन किताबों का प्रकाशन बंद कर दें जो संघ की विचारधारा से मेल नहीं खाते.
हम सबको याद है कि इन्हीं शक्तियों ने वेंडी डोनिगेर की पुस्तक ‘द हिन्दू’ पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की थी क्योंकि वह प्राचीन भारत को दलितों और स्त्रियों के सरोकारों के परिप्रेक्ष्य से देखती है. बत्रा ने स्कूलों के लिए नौ किताबों का एक सेट प्रकाशित किया है, जिनमें भारत के इतिहास को आरएसएस के चश्मे से देखा गया है और समाज विज्ञानों की संघी समझ को प्रस्तुत किया गया है. इन पुस्तकों का गुजरती में अनुवाद हो चुका है और राज्य के स्कूलों में इन किताबों की हजारों प्रतियाँ खपा दी गयीं हैं.
भारतीय राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों से सम्बंधित अध्यायों को पाठ्यक्रमों से हटाने का हालिया निर्णय इसी दिशा में एक और कदम है. ये वे शब्द हैं जो हिन्दू राष्ट्रवादियों को बेचैन और असहज कर देते हैं. वे लम्बे समय से धर्मनिरपेक्षता को बदनाम करते आये हैं. सन 2015 के गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर सरकार की ओर से जारी विज्ञापन में संविधान की जो उद्देशियका प्रकाशित की गई थी उसमें से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द गायब था. पिछले कुछ दशकों में राममंदिर आन्दोलन के जोर पकड़ने के समांतर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नकारने के सतत प्रयास किये जा रहे हैं. कई आरएसएस चिन्तक और भाजपा नेता इसी कारण संविधान में परिवर्तन किये जाने की मांग करते रहे हैं.
धर्मनिरपेक्षता, भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना का अविभाज्य हिस्सा है. धार्मिक और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के हामी कई छात्र नेताओं पर हमले करते रहे हैं. भारतीय राष्ट्रवाद के अध्ययन से हमें पता चलता है कि हमारा स्वाधीनता आन्दोलन कितना विविधवर्णी और बहुवादी था. भारत का स्वाधीनता संग्राम, भारतीय राष्ट्रवाद के मूल्यों में रचा-बसा था और यही कारण है कि हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायवादी हमारे औपनिवेशिक आकाओं के विरुद्ध इस महासंग्राम से दूर रहे. इसी महासंग्राम से विविधवर्णी भारत उपजा.
चूँकि हमारे देश में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं इसलिए नागरिकता से सम्बंधित अध्यायों को हटाने की बात कही जा रही है. संघवाद, भारत के राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे का आधार है. जैसे-जैसे तानाशाही प्रवृत्तियां बढ़तीं जाएंगी वैसे-वैसे संघवाद कमज़ोर होता जायेगा. और इसलिए, संघवाद के बारे में सामग्री को पाठ्यपुस्तकों से हटाया जा रहा है. सत्ता का विकेन्द्रीकरण, प्रजातंत्र की मूल आत्मा है. सच्चा प्रजातंत्र वही है जिसमें सत्ता आम नागरिकों के हाथों तक पहुंचे. स्थानीय स्वशासन संस्थाएं यही करतीं हैं. शक्तियों और अधिकारों को केंद्र और राज्य सरकारों, शहरी स्वशासन संस्थाओं और पंचायतों के बीच बांटा गया है. संघवाद और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से सम्बंधित अध्यायों को हटाने का निर्णय, शासक दल की सोच और विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है.
हम प्रस्तावित परिवर्तनों के सभी निहितार्थों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं परन्तु मानवाधिकारों से सम्बंधित अध्याय हटाने के निर्णय के एक पहलू पर नज़र डालना ज़रूरी है. मानवाधिकार और मानवीय गरिमा एक-दूसरे से जुड़े हैं. भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई मानवाधिकार घोषणापत्रों पर हस्ताक्षर किये हैं. अब जो संकेत मिल रहे हैं उनसे ऐसा लगता है कि आगे चल कर अधिकार केवल कुछ कुलीनों के लिए होंगे और विशाल वंचित वर्ग को केवल उसके कर्तव्यों पर ध्यान देने के लिए कहा जायेगा.
कुल मिलाकर, कोरोना के इस त्रासदी के बहाने सरकार शिक्षा के क्षेत्र में शासक दल का एजेंडा आगे बढ़ाने पर अमादा दिखती है. पाठ्यक्रमों के उन हिस्सों को हटाया जा रहा है जो शासक दल को भाते नहीं हैं. इसके अलावा, सरकार पाठ्यक्रमों का ‘भारतीयकरण’ करने की संघ परिवार की मांग को भी तवज्जो दे रही है. अगर सब कुछ ऐसा ही चलता रहा है तो हो सकता है कि हमारे बच्चे अब यह पढ़ें कि रामायण और महाभारत में वर्णित घटनाक्रम सचमुच घटा था और प्राचीन भारत में स्टेमसेल तकनीकी से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक सब कुछ था. और हां, यह भी कि हमारे पूर्वज हवाईजहाजों में सैर करते थे और आणविक हथियारों का प्रयोग करते थे.
(हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)
राम पुनियानी , आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर, बायोमेडिकल साइंस के विद्वान और चर्चित समाजविज्ञानी हैं। वे लंबे समय से समाज में सांप्रदायिक सौहार्द पर लेखन और एक्टिविज़्म कर रहे हैं।