रिपबलिक टीवी के मालिक और एंकर अर्नब गोस्वामी तथा टीआरपी रेटिंग करने वाली एजेंसी बार्क के पूर्व प्रमुख पार्थो दास गुप्ता के बीच व्हाट्सऐप्प चैट के लीक हिस्से से संबंधित एक खबर आज द टेलीग्राफ में तीसरे दिन पहले पन्ने पर है। लीक होने के बाद पहले दिन यह खबर द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर नहीं थी जबकि अंग्रेजी के जो अखबार मैं देखता हूं उनमें टाइम्स ऑफ इंडिया को छोड़कर बाकी में पहले पन्ने पर थी। द टेलीग्राफ ने दूसरे दिन इसे पहले पन्ने पर लिया जब बाकी अखबारों के लिए यह पुराना या बासी हो चुका था। उसके बाद से यह रोज पहले पहन्ने पर छप रहा है। अपवाद वह दिन रहा जब ममता बनर्जी की नंदी ग्राम की रैली की खबर थी। बाकी मीडिया में इस खबर का हाल आप अपने अखबार से समझिए पर यह खबर है क्या उसे आज आप इस टिप्पणी से समझ जाएंगे।
द टेलीग्राफ में आज पहले पन्ने पर चैट के ‘जज को खरीद लेने’ जैसी बातों की चर्चा है। लोयालुहान देश और गोदी मीडिया के जमाने में अर्नब के चैट का यह हिस्सा बेहद महत्वपूर्ण है। सोशल मीडिया में तो इसकी पर्याप्त चर्चा है पर अखबारों में 500 पन्ने के इस लीक की चर्चा बहुत ही मामूली रही। अब तब ‘तांडव’ को मुद्दा बनाने की कोशिश ने रंग नहीं पकड़ा और कोई दूसरा मुद्दा नहीं है तो किसान आंदोलन पर चर्चा चल रही है और अभी तक टस से मस नहीं हो रही सरकार ने नए कानून को डेढ़ साल ठंडे बस्से में रखने का प्रस्ताव दिया है। अजीत अंजुम से बात-चीत में किसान नेता ने इसकी तुलना भैंस का खूंटा हिलाने से की है और कहा है कि खूंटा (काम) ऐसे ही निकलता है। अब हिल गया है, हम चोट करते रहेंगे तो सरकार मान जाएगी। हालांकि, आंदोलन खत्म करने के संबंध में अंत तक वे यही कहते रहे कि फैसला किसान करेंगे। और अखबारों ने किसानों का पक्ष देने के नाम पर यही औपचारिकता की है।
उधर, टेलीविजन चैनलों पर एंकर-एंकारानियां भिन्न दलों के प्रवक्ताओं को भी अर्नब के चैट से दूर, किसान आंदोलन के अपने विषय पर केंद्रित रखने की कोशिश में जान लगा रही हैं। ऐसी हालात में द टेलीग्राफ का कहना है कि अर्नब के चैट में जज को खरीदने जैसा मुद्दा न्यायपालिका के लिए टेस्ट है। पूर्व कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने सवाल उठाया है कि न्यायपालिका इस मुद्दे को नजरअंदाज कर देगी या उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेगी जो न्याय प्रणाली में लोगों के विश्वास को प्रभावित कर रहे हैं। अखबार ने लिखा है कि मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे जब न्यायपालिका की निन्दा करने की संस्कृति की आलोचना कर रहे हैं तब यह सवाल महत्वपूर्ण है। खबर में चैट का पर्याप्त विवरण है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ‘पप्पू’ राहुल गांधी के हमलों का जवाब देने के लिए केंद्रीय मंत्रियों का जखीरा मैदान में उतार देने वाली पार्टी इस मामले में चुप्पी साधे बैठी है। यह दिलचस्प है कि न्यायपालिका और सरकार के गड्डमड्ड रिश्तों तथा कानूनी तरीके से सरकार विरोधियों के सबक सिखाने के ढेरों उदाहरणों के बीच प्रधानमंत्री ने फादर स्टैन स्वामी के मामले में हस्तक्षेप करने से कथित रूप से मना कर दिया है। अखबार ने जमशेदपुर डेटलाइन की एक संबंधित खबर अंदर के पन्ने पर अर्नब के चैट की खबर के साथ ही छापी है। आप जानते हैं कि बुजुर्ग और बीमार मानवाधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी 100 दिन से ज्यादा से जेल में हैं। हाल में किसान नेताओं को नोटिस देने वाली ‘स्वतंत्र’ जांच एजेंसी इस मामले में ‘कार्रवाई’ कर रही है।
यह कम दिलचस्प नहीं है कि पार्टी के नेता दिवंगत अरुण जेटली के बचाव में भी अभी तक आगे नहीं आए हैं। अखबार में इसपर भी एक खबर अंदर के पन्ने पर सात कॉलम में है। इसमें बताया गया है कि प्रधानमंत्री नेरन्द्र मोदी के ‘प्रिय मित्र’ और पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली को ‘सबसे बड़ी नाकामी’ कहने पर अभी तक किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की है। उल्लेखनीय है कि चैट में कई नेताओं और प्रचारक पत्रकारों की चर्चा है और उन्हें ‘बेकार’ से लेकर ‘कचरा’ तक कहा गया है। अरुण जेटली तो नहीं रहे, जो लोग अभी सरकार में बड़े पदों पर हैं वे भी ऐसे चुप हैं जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं हो। सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेडकर को अर्नब ने यूजलेस (अनुपयोगी, बेकार) कहा है। अखबार ने अरुण जेटली से संबंधित भाजपा की राजनीति और मजबूरी के बारे में भी लिखा है पर वह मेरी चर्चा का विषय नहीं है।
अव्वल तो इस चैट के फर्जी होने की संभावना बहुत कम है पर हो भी तो सूचना प्रसारण मंत्री को एक चैनल मालिक ‘यूजलेस’ कहे और मंत्री ना कुछ बोलें ना कुछ करें – और खबर भी नहीं बने तो आप समझ सकते हैं गोदी मीडिया आपको कैसी खबरें दे रहा है। मंत्री जी तो जो हैं सो हैं। यह कम दिलचस्प नहीं है कि राहुल गांधी पर हमला करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करने उतरे जावेडकर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कुछ भी कहने से मना कर दिया। उनका कहना था कि इसका प्रेस कांफ्रेंस से कोई संबंध नहीं है। यहां यह बताना दिलचस्प है कि सूचना और प्रसारण मंत्री जब अपने ऊपर की गई टिप्पणी का ही जवाब इस तर्क पर नहीं दे रहे हैं कि इसका विषय से मतलब नहीं है तब उनकी सरकार जो लोकपाल कानून लागू नहीं कर रही! सूचना के अधिकार कानून का पालन नहीं कर रही! किसानों के लिए तीन कृषि कानून ले आई है। यह सोशल मीडिया पर खूब चर्चा में है।
आज के अखबारों की चर्चा किसानों के आंदोलन पर सरकारी रुख में आई नर्मी की खबर की चर्चा किए बिना पूरी नहीं होगी। दो महीने से चल रहा यह आंदोलन अखबारों में कितनी जगह पाता रहा है, आप जानते हैं। मेरा मानना है कि अब जब 500 पन्ने का अर्नब चैट है तो मौका उसपर चर्चा का था। लेकिन अखबारों में किसान आंदोलन पर सरकार की पेशकश पहले पन्ने पर प्रमुखता से है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह पेशकश भी दो महीने बाद आई है तो बड़ी खबर है लेकिन दो महीने लगने का कारण यही है कि अखबारों ने इसे महत्व नहीं दिया। मीडिया ने जब गालियां सुन लीं, आंदोलन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, 26 जनवरी करीब है तो यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार तैयार तो है ताकि 26 जनवरी को कोई बवाल न हो जाए और हो तो ठीकरा किसानों पर फोड़ने के लिए पर्याप्त आधार रहे।
सरकार अपनी ओर से तमाम उपाय करने के बाद अब जब कृषि कानून को ठंडे बस्ते में डालने के लिए तैयार लग रही है तो मेरे हिसाब से आज मुद्दा यह होना चाहिए था कि जो कानून बिना पूछे, बिना किसी मांग के बना है उसे इतने विरोध के बावजूद वापस लेने में क्या दिक्कत है? किसानों की प्रतिक्रिया भी आज के शीर्षक में नहीं है जबकि यह कल ही आ गयी थी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।