आर.राम
16 फरवरी को वसंत पंचमी के दिन सुहेलदेव जयंती के अवसर पर बहराइच में सुहेलदेव के नाम पर स्मारक का वर्चुअल माध्यम से शिलान्यास करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इतिहास वो नहीं है जो गुलाम बनाने वाले और गुलामी की मानसिकता रखने वालों ने लिखा है बल्कि इतिहास वह है जो लोक कथाओं के रूप मे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता है। इस तरह प्रधानमंत्री ने इतिहास लेखन की प्रक्रियाओं,स्रोतों और ऐतिहासिक प्रामाणिकता को जाँचने वाले सभी मानदंडो को किनारे रख कर जनश्रुति और लोक कथाओं को ही इतिहास का प्रामाणिक स्रोत बता डाला। दूसरे अपने वक्तव्य के जरिये अब तक के समस्त इतिहास लेखन को एक झटके में गुलामी की मानसिकता का इतिहास बता दिया। मुझे नहीं पता कि इतिहासकारों के किसी समूह ने इस बयान के प्रतिक्रिया में कुछ कहा है या नहीं। पर इतना तो तय है कि प्रधानमंत्री के इस बयान में यह संदेश छिपा है कि मोदी सरकार और संघ और बीजेपी जनश्रुतियों के सहारे इतिहास का अपना एक सांप्रदायिक पाठ तैयार करना चाहती है। जिसके जरिये वह अपनी वर्तमान की राजनितिक जरूरतों के हिसाब से सामाजिक ध्रुवीकरण को अंज़ाम दे पाने में सफल हो सके।
अपनी इसी परियोजना के तहत संघ परिवार ने सुहेलदेव बनाम गाज़ी मियां के मिथकीय और लोक प्रचलित कथा को इतिहास बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है। इस कवायद मे अब उत्तर प्रदेश और केंद्र की सरकार खुल कर भागीदार बन गई है। पूर्वांचल में अच्छी खासी संख्या में रहने वाले अति पिछडी राजभर जाति को अपने साथ जोड़े रखने के लिए यह अभियान चलता रहा है। हालांकि मामला इतना सरल भी नहीं है। सरकार सुहेलदेव को राजभर बताने मे लगी है लेकिन उत्तर प्रदेश की एक अन्य प्रभावशाली दलित जाति पासी समुदाय के लोग इन्हे अपना नायक मानते हैं। इसके अलावा राजपूत समुदाय के भी कुछ लोग जनश्रुतियों में व्याप्त सुहेलदेव के शौर्यगाथा को किसी दलित-पिछडी जाति के खाते में जाने नहीं देना चाहते, इसलिए उनका दावा है कि वे राजपूत थे, इसलिए उन्हें राजभर या पासी नहीं बताया जाना चाहिए।
इन विवादों और प्राधनमंत्री और सरकार के दावों से इतर इतिहासकार सुहेलदेव की प्रमाणिकता की पुष्टि नहीं करते। बीबीसी हिंदी मे समीरात्मज मिश्र का एक लेख 16 फरवरी 2021 को प्रकाशित हुआ है जिसमे वे लिखते हैं – “राजा सुहेलदेव के बारे में ऐतिहासिक जानकारी न के बराबर है. माना जाता है कि 11 वीं सदी में महमूद ग़ज़नवी के भारत पर आक्रमण के वक़्त सालार मसूद ग़ाज़ी ने बहराइच पर आक्रमण किया लेकिन वहां के राजा सुहेलदेव से बुरी तरह पराजित हुआ और मारा गया। सालार मसूद ग़ाज़ी की यह कहानी चौदहवीं सदी में अमीर खुसरो की क़िताब एजाज़-ए-खुसरवी और उसके बाद 17वीं सदी में लिखी गई क़िताब मिरात-ए-मसूदी में मिलता है, लेकिन महमूद ग़ज़नवी के समकालीन इतिहासकारों ने न तो सालार मसूद ग़ाज़ी का ज़िक्र किया है, न तो राजा सुहेलदेव का ज़िक्र किया है और न ही बहराइच का ज़िक्र किया है.”
इसी लेख में इलाहाबाद विवि में मध्यकालीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो हेरम्ब चतुर्वेदी का मत दर्ज किया गया है जिसमे वे कहते हैं कि – “मिरात-ए-मसूदी में ज़िक्र ज़रूर मिलता है लेकिन उसे ऐतिहासिक स्रोत नहीं माना जा सकता है. इसकी वजह यह है कि इस तथ्य की कहीं से कोई पुष्टि नहीं हुई है।”
“सुहेलदेव के नाम के न तो कहीं कोई सिक्के मिले हैं, न तो कोई अभिलेख मिला है, न किसी भूमि अनुदान का ज़िक्र है और न ही किसी अन्य स्रोत क। यदि सालार मसूद ग़ाज़ी का यह अभियान इतना अहम और बड़ा होता तो महमूद ग़ज़नवी के समकालीन इतिहासकारों- उतबी और अलबरूनी ने इसका ज़िक्र ज़रूर किया होता।”
लेकिन इतिहास का मनोवांछित पुनर्पाठ करने की हड़बड़ी मे हमारे सत्ताधारी नेताओं को इन तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है। उनके दावों पर सवाल खड़ा करने वाले इतिहासकारों को वे बड़ी आसानी से ‘ गुलामी की मानसिकता ‘ से जकड़े हुए बता कर अपने रास्ते पर आराम से आगे बढ़ सकते हैं। इतिहास के पुनर्पाठ की यह कोशिश नयी नहीं है। लंबे समय से आरएसएस इस काम में लगा हुआ है। जातियों का इतिहास, विशेष कर दलित व पिछडी जातियों के इतिहास लेखन के जरिये वे इस काम को आगे बढ़ाते रहे हैं। यह एक बहुत सीधी सरल परियोजना है जिसके तहत वे हर दलित पिछड़ी जाति को राजपूत या क्षत्रिय सिद्ध करते हैं। उन्हें कहीं न कहीं का राजा बताते हैं। जैसे चमार जाति को वे ‘चंवर वंशीय ‘ क्षत्रिय बताते हैं। फिर वे कहते हैं कि इन राजाओं और उनके समुदायों ने मुस्लिम आक्रमण के बाद इस्लाम स्वीकार करने से मना कर दिया इसलिए मुसलमान शासकों ने उन्हे दंडित करते हुए उनका राज पाट छीन कर उन्हे गंदे काम करने के लिए विवश किया। इन जातियों ने भी गंदा काम करते हुए अछूत बनना स्वीकार किया पर इस्लाम स्वीकार नहीं किया। यह सब बातें संघ के इतिहास लेखक विजय सोनकर शास्त्री ने लिखी हैं। यह सब कुछ किताबों के रूप में उपलब्ध है।
अब इस काल्पनिक सिद्धांत के संघ परिवार के लिए मुख्यतः दो फायदे हैं। पहला तो यह कि अस्पृश्यता का सारा दोष मुसलमानों के सिर डाल दिया जाता है, और वर्ण व्यवस्था को समरस कार्य विभाजन बताया जाता है जिसमें कोई भेदभाव नहीं था। जाति व्यवस्था के निर्माण और उसके अमानवीय व्यवहार के आरोप से हिंदू सनातन धर्म को पूरी तरह बरी कर दिया जाता है। दूसरा यह कि इस बहाने दलित पिछड़े समुदायों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा कर व्यापक हिंदू एकता बनाने मे सफलता मिलती है। अब यदि इस इतिहास दृष्टि पर कोई सवाल उठाये तो वह गुलामी की मानसिकता का घोषित हो जाता है। इसीलिए संघ बार बार 1200 साल की गुलामी का जिक्र करता है।
समस्या यह है कि दलित और पिछड़ी जातियों की अस्मिता और पहचान की राजनैतिक विचार वाले लोग भी संघ परिवार के इस सुनहरे जाल में आसानी से फँस जाते हैं। उन्हे भी खुद के राजा होने का विचार एक आभासी गर्व और छद्म गौरव बोध से भर देता है। फिर वे अपनी वर्तमान समस्यायों और इतिहास के वास्तविक तथ्यों को भूल कर एक अ -वास्तविक और आभासी शत्रु से लड़ने को तैयार हो जाते हैं और सांप्रदायिक राजनीति का आसान चारा बनते हैं।
बहरहाल! मिथकों को इतिहास बनाने की इस सरकारी कोशिश का विरोध इतिहासकार करेंगे या नहीं, यह तो समय बताएगा पर जिन वंचित समुदायों के नाम पर यह सब हो रहा है उन्हे ही आगे आना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि हमें इतिहास में सम्मान इतिहास सम्मत तरीके से मिले और जो ऐतिहासिक रूप से सच है उसपर पर्दा डालने या इतिहास का पुनर्पाठ करने की बजाय आप हमें वर्तमान मे सामाजिक न्याय की गारंटी करें, यही हमारे हित में है।
लेखक सामाजिक प्रश्नों पर सजग-सक्रिय चिंतक हैं।