आज रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के पांच साल पूरे हो गए हैं। मई 2014 के बाद निर्मित कथित ‘न्यू इंडिया ‘ में गुजरात के ऊना कांड से लेकर रोहित की मौत, 2 अप्रैल का भारत बंद, भीमा कोरे गाँव का केस जैसी तमाम ऐसी घटनाएं हैं जिनके जरिये हम आज के भारत में दलितों की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
भारत के राष्ट्रीय जीवन में दलितों वंचितों की आवाज़ इन सालों में क्रमश: कमजोर होती गई है। भारतीय राज्य इन तबकों को न्याय व सुरक्षा प्रदान करने से मुँह फेरता चला गया है। शिक्षा से लेकर सामाजिक, प्रशासनिक व राजनैतिक भागीदारी के मामले में दलित और अधिक कमजोर व उपेक्षित स्थिति में चले गए हैं। आम तौर पर यह देखा गया है कि अपने खिलाफ उत्पीड़न व अत्याचार की शिकायत करने वाले या आंदोलन करने वाले दलितों को ही दंडित किया गया या उन्हें अलग अलग तरीके से प्रताड़ित व परेशान करके चुप रहने पर मजबूर किया गया।
आज यह विचार करने की जरूरत है कि एक लोकतांत्रिक प्रणाली वाले राज्य में वंचित तबके के एक बहुत बड़े हिस्से को न्याय व सुरक्षा से वंचित कर दिया जाय तो राष्ट्र की एकता की भावना को कैसे मजबूत किया जा सकता है।
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक 2019 में दलित उत्पीड़न के मामलों में 7.3% की बढ़ोतरी हुई। साल 2018 में 49793 व 2019 में 45935 दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए। दलितो के खिलाफ होने वाले अत्याचारों मे उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर और मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर है। अब देखते हैं कि इन दर्ज मामलो पर कार्रवाई और सजा की दर क्या है। इससे पता चलेगा कि पुलिस और न्याय तंत्र का रवैया दलितों उत्पीड़न के मामलों मे क्या है। क्योंकि एस सी/ एस टी कानून के तहत मामला दर्ज़ होने के बाद पीड़ित पक्ष के लिए रास्ता इतना आसान नहीं है। केस दर्ज होने के बाद ज्यादातर मामलों में विरोधी पक्ष व स्थानीय पुलिस द्वारा पीड़ितों को डरा-धमका कर या प्रलोभन देकर मामला वापस लेने और समझौता कराने का दबाव बनाया जाता है। अगर पीड़ित पक्ष दबाव के आगे झुकने से इंकार कर दे तो मामले को न्यायालयों में लंबित रखा जाता है। अगर लंबित मामलों का आंकड़ा देखें तो तस्वीर और साफ होती है।
इंडियन एक्स्प्रेस मे जावेद इकबाल वानी और एल.डेविड लाल का एक लेख 27 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित हुआ था। इस लेख में दिये गये आँकड़ों के मुताबिक अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न निवारण कानून के तहत प्रति वर्ष औसतन 80% मामलों मे चार्जशीट दाखिल होती है। जिसमे 2016 में 89.6% मामले लंबित थे। 2017 में 97.2% , 2018 में 92.7%, 2019 में 91.4% मामले कोर्ट मे लंबित थे। इसी तरह दोष सिद्ध या सजा की दर भी बेहद कम है। 2016 में मात्र, 25.7%, 2017 में 23.2% , 2018 में 29.8% और 2019 में मात्र, 32.6% मामलों मे दोषियों के सजा मिल पायी। स्पष्ट है कि दबाव, प्रलोभन या भय के कारण पीड़ित व गवाह पक्ष कमजोर पड़ जाते हैं और दोषी बहुत ही आराम से निर्दोष सिद्ध करार दिये जाते हैं।
क्या इस परिघटना को हम सिर्फ न्याय तंत्र और पुलिस की कमजोरी कह कर छुटकारा पा सकते हैं? हरगिज नहीं। क्योंकि पुलिस व न्याय तंत्र भी उसी विचार का संवाहक बन जाता है जो विचार देश की राजनैतिक सत्ता पर काबिज है। और आज जो विचार देश पर शासन कर रहा है उसकी ताकत और मूल प्रेरणा सनातन हिंदू विचार है जो सिद्धांत व व्यवहार दोनों ही तरीके से दलितों को अस्पृश्य मानता रहा है। और उनकी नजर में दलितों को वर्ण व्यवस्था के अनुरूप ही जीवन जीना श्रेयस्कर है।
दलितों की सामाजिक-राजनैतिक भागीदारी की आकांक्षा व ज्ञान व शिक्षा के क्षेत्र में दावेदारी उनके हिसाब से सामाजिक समरसता के लिए हानिकारक है। यह संदेश सारे देश में बहुत स्पष्ट शब्दों मे दे दिया गया है। भारत सरकार व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसी भी पदाधिकारी ने आज तक वर्ण व्यवस्था के विचार को गलत नहीं ठहराया। वे समय समय पर दलितों के घर भोजन करने और सफाई कर्मचारियों के पाँव धोने की प्रतीकात्मक कार्यवाहियों के जरिये वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को उचित बताने की की कोशिश करते दिखते हैं।
इस दौरान दलितों की शिक्षा सुरक्षा व भागीदारी से संबंधित प्रावधानों को येन केन प्रकारेण कमजोर करने की कोशिश करते हुए वे अपने मूल सामाजिक आधार उच्च वर्णीय हिंदू समाज को यह संदेश देते रहते हैं कि तुम्हारे वर्चस्व की रक्षा हम करते रहेंगे।
आज के इस कॉर्पोरेट सनातन हिंदू विचार ने यह झीना पर्दा भी तार तार कर दिया है। इसी के साथ भारत मे दलित आंदोलन की दयनीय स्थिति भी कम कसूरवार नहीं है दलितों की वर्तमान हालत की। लेकिन दलित आंदोलन की स्थिति पर फिर कभी बात होगी!