आर. राम
26 जनवरी की किसान परेड और लाल किले पर संदिग्ध लोगों के नेतृत्व में हुए हंगामे के बाद बदली हुई परिस्थिति में सरकार ने किसान आंदोलन को खत्म करने के सुनहरे मौके के रूप में देखा। आंदोलन खत्म करने का श्रेय लेने की हड़बड़ी में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पुलिस प्रशासन के सहारे ‘कड़ा एक्शन’ लेने और किसान नेता टिकैत को गिरफ्तार करने के लिए जो कवायद की और उसका जिस तरह डट कर राकेश टिकैत ने सामना किया और अपने लोगों से भावुक अपील की उसने किसान आंदोलन को नया जीवन तो दिया ही साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनैतिक और सामाजिक समीकरण को भी उलट पलट दिया है।
29 जनवरी को मुजफ्फरनगर में हुई महापंचायत में पश्चिमी यूपी के नये सामाजिक समीकरण की इबारत लिख दी गई। बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के पुराने घनिष्ठ सहयोगी गुलाम मुहम्मद जौला की उपस्थिति और पुरानी बातें भुला कर एक होने की उनकी अपील पर जयंत चौधरी और नरेश टिकैत का उन्हें गले लगाना, यह एक ऐसा दृश्य था जो आरएसएस और भाजपा को सपने में भी नहीं सुहायेगा।
इस पंचायत के बाद किसान आंदोलन से लगभग उदासीन बैठे इस क्षेत्र के किसानों की बड़ी संख्या में उबाल आ गया है। लगभग सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि महापंचायत में मौजूद रहे, जिसमें महज 12 घंटे में एक आहवान पर लाखों की भीड़ इकठ्ठा हो गई थी। अगले दिन आज़ाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर भी गाजीपुर बॉर्डर पहुँच गए और राकेश टिकैत को अपना पूरा समर्थन दिया। भीम आर्मी और चंद्रशेखर पश्चिमी यूपी के दलित आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत बने हुए हैं। इधर बसपा प्रमुख मायावती ने भी बजट सत्र के पहले दिन राष्टृपति के अभिभाषण का बहिष्कार कर के सांकेतिक ही सही पर अपना समर्थन जाहिर कर दिया है। दलितों की भावना अब पूरी तरह से किसान आंदोलन के साथ जुड़ गई है।
यह समझना जरूरी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और गुर्जरों का जातिवादी सामंती दबदबा बहुत पहले से रहा है। दलित किसानों व भूमिहीन मजदूरों का सीधा संघर्ष इनसे है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इस किसान आंदोलन के दौरान बनी नई एकता निचले स्तर पर समाज मे क्या कोई सकरात्मक बदलाव कर पायेगी या नहीं?
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन मूल रूप से किसान बनाम कॉर्पोरेट के बीच की लडाई है। लेकिन कृषि क्षेत्र में दलितों का मुख्य सवाल भूमि सुधार और कृषि सेक्टर का लोकतांत्रिकरण है। इसके बिना समाज का जनवादीकरण भी संभव नहीं है। लेकिन कृषि को कॉर्पोरेट हाथों में जाने से बचाने के लिए समस्त खेतिहर समुदाय की एकता जरूरी है, यह बात अब सभी के समझ में आ चुकी है।
इस मामले बहुजन समाज पार्टी का रवैया सबसे निराशाजनक है। बसपा नेता मायावती की किसान आंदोलन को समर्थन देने में बरती जा रही सावधानी और हिचक को साफ देखा जा सकता है। यह तो स्पष्ट है कि भाजपा के कई तरह के दबावों के चलते पिछले कई सालों से विपक्ष के रूप मे बसपा की भूमिका नगण्य हो चुकी है, जिसकी कीमत उनके समर्थक समाज को चुकानी पड़ती रही है। किसान आंदोलन में मायावती की चुप्पी और निष्क्रियता ने बसपा की जरूरत और प्रासंगिकता को भी सवालों के घेरे में ला दिया है।
इस निष्क्रियता का आलम यह है कि मुज्जफरनगर की महा पंचायत में जहाँ सभी राजनैतिक दलों के नेता मौजूद थे वहाँ बसपा की कोई भी उल्लेखनीय भागीदारी नहीं थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश आज भी बसपा का मजबूत गढ है। 2007 के विधानसभा चुनाव मे मायावती को यहाँ से जबरदस्त समर्थन हासिल हुआ था। लेकिन 2013 में भाजपा की विघटनकारी सांप्रदायिक राजनीति के कारण यहाँ की सामाजिक एकता को तार तार करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करा कर सपा और बसपा दोनों को हाशिये पर डाल दिया गया।
जबकि यह भी तथ्य है कि किसानों के बीच भी मायावती की बहुत अच्छी छवि है। 2008 में मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने ही गन्ने की कीमत में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी की थी यह बात आज भी किसान भूला नहीं है।
अगर आज बसपा खुल कर किसान आंदोलन के पक्ष में खड़ी हो जाय तो न सिर्फ किसान आंदोलन को बल मिलेगा बल्कि पश्चिमी यूपी समेत पूरे उत्तर प्रदेश की राजनैतिक फिजा बदल सकती है। लेकिन अगर सत्ता धारी दल के एजेंडे के साथ कदम ताल करते हुए अपने आपको सुरक्षित रखना ही इनका उद्देश्य हुआ तो फिर बसपा जैसी पार्टी की जरूरत ही क्या है?
समाज में हर राजनैतिक शून्य को भरने के लिए नई ताकतों का उभार होता ही रहता है। संघर्ष किसी रहनुमा का इंतज़ार नहीं करता बल्कि अपने अंजाम तक पहुँचने की प्रक्रिया में नया नेतृत्व पैदा करता चलता है। दलित आंदोलन और राजनीति के इस शून्य को कौन भरता है यह देखना बाकी है।
आर.राम. सामाजिक प्रश्नों पर सक्रिय सजग लेखक हैं।