प्रकाश के रे
आदम, नूह, अब्राहम और इस्माइल के जुड़ाव के कारण मक्का का काबा अरबी आस्था का केंद्र है. ऐसा मुहम्मद के जमाने में भी था, परंतु उन्होंने शुरू में नमाज की दिशा काबा के बजाय जेरूसलम तय की क्योंकि तब काबा बहुदेववाद और मूर्तिपूजा की जगह था, जो अब्राहम के आदर्शों से उलट था. इस फैसले का एक मतलब यह भी था कि मुहम्मद ने अहले-किताब के सिलसिले से अपनी परंपरा को जोड़ दिया. इतना ही नहीं, यह उनके अनुयायियों के लिए एक नया अनुभव भी था, जिसमें वे अपने अस्तित्व का विस्तार देख सकते थे. करेन आर्म्सस्ट्रॉन्ग ने रेखांकित किया है कि जब 624 तक यह साफ हो गया कि मदीना और उसके आसपास के इलाके में बसे यहूदी इस्लाम में शामिल नहीं होंगे, नमाज की दिशा को जेरूसलम के बजाय काबा कर दिया गया. अब्राहम से जुड़े काबा से यहूदियों और ईसाइयों का कोई लेना-देना न था. इस तरह से मुस्लिम यह भी घोषित कर रहे थे कि वे अल्लाह के अलावा किसी और के सामने नहीं झुकेंगे. मक्का और काबा से भावनात्मक दूरी पाटने के लिहाज से भी यह कवायद बेहद खास थी.
पर, नमाज का पहला किबला तथा मुहम्मद के इसरा और मेराज के कारण जेरूसलम पवित्र बना रहा. आखिर वह शहर सुलेमान, दाऊद, ईसा जैसे नबियों का भी तो शहर था, जो इस्लाम में बहुत पवित्र और आदरणीय माने जाते हैं. हालांकि कुर’आन में यह जिक्र नहीं है कि कयामत के रोज फैसला जेरूसलम में ही होना है, पर मुस्लिम तबके ने इस बाबत यहूदी और ईसाई मान्यताओं से बहुत सुन रखा था. इस कयामत के लिए भी जेरूसलम को इस्लामी नियंत्रण में लेना जरूरी था.
कमजोर होते रोमन और फारसी साम्राज्य अरबी मुस्लिमों का मुकाबला करने में सक्षम साबित न हुए, हालांकि अरबी टुकड़ियां संसाधनों और युद्ध प्रशिक्षण के मामले में फिसड्डी थीं. पर, जीत के लिए सबसे जरूरी चीज उनके पास थी- उन्माद भरा हौसला. उन साम्राज्यों से संबद्ध रहे कुछ अरबी तबकों के साथ रोमन साम्राज्य के ईसाईपरस्त कट्टरता से त्रस्त कुछ ईसाई समूह और यहूदी समुदाय भी मुस्लिम लश्करों से सहानुभूति रखते थे. इसका भी उन्हें फायदा मिला. बहरहाल, गाजा जीत चुके अरबों को रोकने के लिए रोमन सम्राट हेराक्लियस ने टुकड़ियां तैयार करने का आदेश दिया. उस समय वह सीरिया में ही था. उधर अरबों ने खलीफा अबू बक्र से लड़ाके भेजने का निवेदन किया. अबू बक्र ने इराक में लड़ रहे मुस्लिम सेना के बेहतरीन सेनापति खालिद इब्न वालिद को पैलेस्टीना रवाना किया. खालिद मक्का के प्रभावशाली खानदान से था और मुहम्मद के खिलाफ लड़ चुका था. जब उसने इस्लाम कबूल किया, तो पैगंबर ने उसे ‘इस्लाम की तलवार’ की संज्ञा दी थी. उसके नेतृत्व में अरबों ने दमिश्क समेत सीरिया-पैलेस्टीना के बड़े इलाके को रोमनों से छीन लिया.
इसी बीच अबू बक्र के देहांत के बाद उमर इस्लाम के खलीफा बने. वे खालिद को पसंद नहीं करते थे क्योंकि उस पर लड़ाइयों में लूट का माल बटोरने और अय्याशी के आरोप थे. अब पैलेस्टीना में अबू उबैदा अरबों का नया सेनापति था और खालिद उसका मातहत था. अरबों और रोमनों के बीच निर्णायक लड़ाई यारमुक नदी के आसपास हुई, जो आज के सीरिया, जॉर्डन और इजरायल की सीमा पर स्थित गोलन पहाड़ियों का इलाका है. यहां 20 अगस्त, 636 की लड़ाई में सम्राट हेराक्लियस का भाई भी मारा गया और इसी के साथ इस क्षेत्र में रोमनों का प्रभुत्व समाप्त हो गया. आनन-फानन में हेराक्लियस आखिरी बार जेरूसलम गया और ईसा की सलीब समेत कुछ अन्य पवित्र चीजों को बटोरकर सीरिया से निकल गया. अगले साल जुलाई में इस्लामी सेना ने जेरूसलम की दीवार के बाहर डेरा डाल दिया.
जेरूसलम में ईसाई समुदाय के नेता सोफ्रो
आखिरकार, खली
इस बैठक में जहां सोफ्रोनियस
पहली किस्त: टाइटस की घेराबंदी
दूसरी किस्त: पवित्र मंदिर में आग
तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्म हुआ…
चौथी किस्त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया
पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना
छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा
सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब
आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह
नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई
दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है
ग्यारहवीं किस्त: कर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत
बारहवीं किस्त: क्या ऑगस्टा यूडोकिया बेवफा थी!
तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन
चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना
पंद्रहवीं क़िस्त: जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया
सोलहवीं क़िस्त: जेरूसलम फिर रोमनों के हाथ में
सत्रहवीं क़िस्त: गाज़ा में फिलिस्तीनियों की 37 लाशों पर जेरूसलम के अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन!
अठारहवीं क़िस्त: आज का जेरूसलम: कुछ ज़रूरी तथ्य एवं आंकड़े
उन्नीसवीं क़िस्त: इस्लाम में जेरूसलम: गाजा में इस्लाम