चीन: एक देश के कायापलट की अभूतपूर्व कथा!


जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? अगली किस्त में हम बात शुरू से शूरू करेंगे यानी देखेंगे कि आखिर ये बात कहां से शुरू हुई और फिर कैसे आगे बढ़ी?


सत्येंद्र रंजन सत्येंद्र रंजन
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1848 में प्रकाशित  और कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स लिखित  ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र ‘ने गोलार्ध के हर हिस्से को जितना प्रभावित किया, उतना शायद ही किसी दूसरी किताब ने किया हो (ज़ाहिर है, बात ख़ुदाई किताबों की नहीं, दुनिया के राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तनों से जुड़ी किताबों की हो रही है)। ‘दुनिया की व्याख्या बहुत हुई, ज़रूरत बदलने की है ‘- मार्क्स के इस वाक्य से सूत्र ग्रहण करते हुए तमाम देशों  में  कम्युनिस्ट पार्टियों ने  व्यवस्था परिवर्तन के प्रयोग किये। इन प्रयोगों में आये उतार-चढ़ावों के बीच दुनिया बहुत बदली और कम्युनिस्टों को लेकर एक ज़माने में बना आकर्षण अब कम नज़र आता है। पहली सफल क्रांति वाले देश रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता से बाहर हुए अरसा हो चला है, वहीं लैटिन अमेरिकी देशों में कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक तरीक़े से बदलाव में जुटे हैं जिसकी उन्होंने भारी क़ीमत चुकाई है। बहरहाल, कम्युनिस्ट घोषणा पत्र के प्रकाशन के ठीक सौ बरस बाद  1948 में अफ़ीमचियों के देश कहे जाने वाले चीन में कम्युनिस्ट पार्टी ने माओत्से तुंग के नेतृत्व में  जनक्रांति का कारनामा कर दिखाया। दूसरे तमाम प्रयोगों की तरह चीन का प्रयोग इस अर्थ में भिन्न है कि वहाँ आज तक कम्युनिस्टों को पीछे नहीं जाना पड़ा। चीन उनके नेतृत्व में  आज एक नयी ऊंचाई पर है। उपनिवेशवादियों  द्वारा बेतरह नोचा-खसोटा गया चीन न सिर्फ एक शक्तिशाली देश के रूप में सामने है बल्कि आर्थिक समृद्धि की उसकी रफ़्तार ने पश्चिम को हैरान कर रखा है। 1 जुलाई को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के सौ बरस पूरे हो रहे हैं। इस मौक़े पर  वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन ने चीन के प्रयोग को लेकर मीडिया विजिल के लिए एक ख़ास शृंखला लिखना मंज़ूर किया है।  हम उनके आभारी हैं। उम्मीद है कि हिंदी पाठक इस शृंखला से समृद्ध होंगे- संपादक

 

एक जुलाई 2021 को चीन की कम्युनिस्ट अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करेगी। किसी राजनीतिक दल का 100 साल तक प्रासंगिक बने रहना अपने-आप में एक उपलब्धि है, लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है। दुनिया में आज ऐसी कई पुरानी पार्टियां मौजूद हैं, जो अपने-अपने देशों में प्रासंगिक बनी हुई हैं। अगर स्थापना के क्रम के हिसाब से देशें तों अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी, ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी, अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी, जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ब्रिटेन की लेबर पार्टी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तुलना में खासी पुरानी ठहरती हैं। इनकी अभी अपने-अपने देशों में महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी हुई है। बहुत-सी उपलब्धियां इन पार्टियों के नाम भी हैं। इसके बावजूद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) ने आधुनिक विश्व के राजनीतिक इतिहास में अगर अपनी एक विशेष और अतुलनीय स्थिति बनाई है, तो उसकी वजह यह है कि उसने पिछले सौ साल में चीन जैसे बड़ी आबादी वाले देश का पूरा काया पलट कर दिया है।

आज इस परिवर्तन के आर्थिक परिणामों में सारी दुनिया में गहरी दिलचस्पी देखने को मिल रही है। मगर चीन की ये आर्थिक हैसियत वहां पिछले 100 साल में उभरे एक नए किस्म के राजनीतिक संगठन, और सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में आए बुनियादी बदलावों का ही नतीजा हैं। इस पूरी परिघटना को समझे बिना उसकी आज बनी आर्थिक हैसियत को नहीं समझा जा सकता। इस पूरी कथा पर गौर किए बिना यह नहीं समझा जा सकता कि सिर्फ 70 साल की अवधि में एक युद्ध जर्जर और लुंजपुंज देश दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कैसे बन गया। ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि 1949 में जब चीन में सीपीसी के नेतृत्व में पीपुल्स रिपब्लिक (जनवादी गणराज्य) की स्थापना हुई, तो उसके पहले तक चीन को ‘अफीमचियों और वेश्याओं’ का देश कहा जाता था। सदियों तक राजतंत्र के तहत चली सामंती व्यवस्था और 19वीं एवं 20 सदी में उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी हमलों ने इस प्राचीन की देश की यही हालत कर रखी थी।

वो देश आज कहां हैं? इसी हफ्ते ब्रिटेन में खत्म हुए जी-7 शिखर सम्मेलन में हुई चर्चाओं पर गौर करें, तो इसका अंदाजा खुद लग जाता है। पश्चिमी दुनिया में पिछले एक दशक से जो चर्चाएं चल रही हैं, जी-7 शिखर बैठक उसी का एक सिलसिला थी। जिन देशों ने लगभग 300 साल तक दुनिया के विभिन्न हिस्सों को उपनिवेश बना कर रखा था, जिन्होंने पूरी दुनिया का साम्राज्यवादी शोषण किया, वे आज मिल कर चीन को घेरने की रणनीति बनाने में अपनी पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ‘एशिया की धुरी’ (pivot of Asia) रणनीति से इसकी शुरुआत की थी, जो आज हाई पिच पर पहुंच गई है। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप ने चीन की बढ़ती ताकत को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया था। इसके लिए वहां के ‘ऐस्टैबलिशमेंट’ को दोषी ठहराते हुए उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि वे अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीत गए। 2020 में वे हार जरूर गए, लेकिन मुद्दा इतना गरम रखा कि उनके प्रतिद्वंद्वी जोसेफ आर. बाइडेन को चीन के खिलाफ सख्त से सख्त रुख लेने में उनसे होड़ करनी पड़ी। राष्ट्रपति के रूप में अपने अब तक कार्यकाल में बाइडेन ने चीन को ‘दुनिया की नंबर एक शक्ति ना बनने देने’ को अपना सबसे प्रमुख एजेंडा बना रखा है। हालत यह है कि अमेरिका के इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए घोषित अपने पैकेज को कांग्रेस (संसद) की मंजूरी दिलवाने के लिए उन्हें ये तर्क देना पड़ रहा है कि चीन का मुकाबला करने के लिए ये जरूरी है।

जी-7 की शिखर बैठक में जो बाइडेन का प्रमुख एजेंडा बाकी छह देशों को चीन विरोधी मुहिम में सक्रिय भागीदार बनाने का रहा। इस सिलसिले में पश्चिमी देशों ने पिछले कुछ वर्षों से चीन के शिनजियांग प्रांत में उइघुर मुसलमानों के दमन की एक बनावटी कहानी तैयार की है, जिसको लेकर उन्होंने चीन की बाकी दुनिया में साख खत्म करने का अभियान छेड़ा हुआ है। ये कहानी काफी कुछ 2001 के बाद इराक के ‘व्यापक विनाश के हथियारों’ के खड़े किए गए हौव्वे से मेल खाती है। इस कहानी को चीन में आम तौर पर ‘मानव अधिकारों के हनन’, ‘जबरिया मजदूरी लेने के चलन’ और उसकी ‘तानाशाही व्यवस्था’ के पुराने आरोपों से जोड़ कर पेश किया गया है। ये सारी बातें जी-7 शिखर सम्मेलन में दोहराई गईं। लेकिन जो एक नई बात वहां हुई, वह चीन की वैश्विक इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास परियोजना- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के जवाब में जी-7 की अपनी वैसी ही परियोजना शुरू करने की घोषणा है। इसे बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड यानी वापस बेहतर दुनिया बनाओ नाम दिया गया है। इस परियोजना के लिए कहां से धन आएगा, उसे कौन बनाएगा, और ये कब और किस हद तक बन पाएगी, ये बातें अभी साफ नहीं हैं। फिलहाल, गौर करने की बात यह है कि चीन ने जिस परियोजना को एशिया से यूरोप होते हुए अफ्रीका तक काफी आगे बढ़ा लिया है, अब पश्चिमी देश उसका जवाब वैसी ही परियोजना से देने की जरूरत महसूस कर रहे हैं।

और यह सिर्फ उनका अकेला मोर्चा नहीं है। दुनिया को कोरोना वैक्सीन की सप्लाई में जो रिकॉर्ड चीन ने कायम कर लिया है, उसका मुकाबला करने के लिए भी अब पश्चिम के देश जागे हैं। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि कोरोना महामारी सबसे पहले चीन में फैली। लेकिन चीन ने फुर्ती से उस पर काबू पाने के बाद जिस तरह अपनी अर्थव्यवस्था संभाली उसने सारी दुनिया का ध्यान खींचा। उसके बाद कई (दो बहुचर्चित हैं, लेकिन कुल पांच वैक्सीन पर काम आगे बढ़ा है) कोरोना वैक्सीन विकसित करने के साथ ही दुनिया के लगभग 70 देशों में चीन ने उनकी आपूर्ति की। उसे पश्चिमी कॉरपोरेट मीडिया ने ‘वैक्सीन डिप्लोमैसी’ का नाम दिया। अब उस कथित डिप्लोमैसी का जब पश्चिमी देश मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं, तो वो मीडिया उसे ‘मानवीय मदद’ के रूप में पेश कर रहा है।

सवाल यह है कि औपनिवेशिक शोषण से विकास और समृद्धि का ऊंचा स्तर प्राप्त कर चुके पश्चिमी देश आखिर तीसरी दुनिया के एक देश- जिसे अब भी विकासशील की श्रेणी में रखा जाता है- से इतना भयभीत क्यों हैं? अगर जो बाइडेन समेत पश्चिमी नेताओं के बयानों और पश्चिमी कॉरपोरेट मीडिया में चलने वाली चर्चाओं पर गौर करें, तो इस सवाल का जवाब सामने आने में देर नहीं लगती। वजह यह है कि बीते 300 साल में पहली बार गैर-पश्चिमी और गैर-औपनिवेशिक कोई देश पश्चिम के आर्थिक और कूटनीतिक वर्चस्व को चुनौती देने की हैसियत में उभर कर सामने आया है। अनुमान यह है कि अगले सात साल में वह सकल रूप में (यानी प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से नहीं) दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। दुनिया का मैनुफैक्चरिंग हब यानी प्रमुख केंद्र वह पहले ही बन चुका है। सूचना और संचार तकनीक के कई पहलुओं में उसने पश्चिम को पीछे छोड़ दिया है। यहां ये याद करने की बात है कि 2008 में जब पश्चिमी देशों में आर्थिक मंदी आई और उससे पूरी विश्व अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई थी, तो अपने विशाल निवेश के जरिए उसके असर से चीन ने ही दुनिया को एक हद तक निकाला था। उसकी उसी रणनीति का अगला चरण बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के रूप में सामने आया। दरअसल, यही घटनाक्रम वह मौका बना, जब पश्चिमी दुनिया का ध्यान चीन की बढ़ती हुई हैसियत पर गया। और उसके कुछ ही वर्षों के बाद ‘एशिया की धुरी’ जैसी रणनीतियों की बात सुनाई देने लगी।

तो कुल हकीकत यह है कि चीन की आज ऐसी ताकत या हैसियत बन गई है। और ऐसा हाल के वर्षों में चीन सरकार ने अपनी जनता का अपनी शासन व्यवस्था में भरोसा लगातार मजबूत करते हुए किया है। इस बात की पुष्टि पिछले साल जुलाई में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन से हुई थी। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह रहा निकट भविष्य में कि चीन के लोगों की निगाह में वहां की शासन व्यवस्था की वैधता के संदिग्ध होने की संभावना नहीं है। 2020 में चीन ने अपने यहां चरम गरीबी खत्म करने का एलान किया था। खुद पश्चिमी मीडिया ने इस बात की पुष्टि की है कि पहले चीन के जो इलाके सबसे गरीब थे, अब वहां भी गांवों में जिंदगी काफी बदल गई है। इस बदलाव के साथ बढ़ती गैर-बराबरी जैसी कई समस्याएं भी वहां खड़ी हुई हैं, जिन पर जरूर चर्चा होनी चाहिए। इस लेख शृंखला में हम चीन की मुश्किलों और वहां जारी या नई पैदा हुई समस्याओं पर भी ध्यान देंगे। फिलहाल, हम बात एक विशाल देश के उस कायापलट की कर रहे हैं, जैसा कोई और उदाहरण विश्व इतिहास में नहीं है। इस बात की सबसे बड़ी पुष्टि खुद उन देशों के रुख से होती है, जिनमें इस कायापलट से अपना वर्चस्व टूट जाने का भय समा गया है। उसका परिणाम एक ‘नए शीत युद्ध’ के रूप में सामने आता दिख रहा है।

गौरतलब है कि पहला शीत युद्ध दुनिया ने बीसवीं सदी में देखा था। तब मुकाबला तत्कालीन सोवियत संघ के खेमे और पश्चिमी देशों के बीच था। लेकिन ये बात रेखांकित करने की है कि सोवियत संघ ने सैनिक और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पश्चिमी वर्चस्व को अवश्य बड़ी चुनौती दी थी, लेकिन वह कभी दुनिया पर उनके आर्थिक वर्चस्व के लिए खतरा नहीं बन पाया था। चीन सैनिक मामलों में संभवतः आज भी अमेरिका और पश्चिमी देशों से कमजोर है। अमेरिका के आज भी दुनिया में 800 से ज्यादा सैनिक अड्डे हैं, जिससे उसके साम्राज्य को निकट भविष्य में कोई सैनिक चुनौती मिलने की गुंजाइश कम है। आधुनिक तकनीक के ज्यादातर क्षेत्रों में पश्चिमी देशों की बढ़त कायम है। इसके बावजूद चीन के उभार से आज जैसी बेचैनी उनमें देखी जा रही है, वैसी पहले शीत युद्ध के समय भी नहीं देखी गई थी।

तो जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? अगली किस्त में हम बात शुरू से शूरू करेंगे यानी देखेंगे कि आखिर ये बात कहां से शुरू हुई और फिर कैसे आगे बढ़ी?

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।