चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल- 9
जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन इस विषय पर मीडिया विजिल के लिए एक विशेष शृंखला लिख रहे हैं। पेश है इसकी नौवीं और अंतिम कड़ी-संपादक
बराक ओबामा ने 2009 में अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही 787 अरब डॉलर की अमेरिकन रिकवरी एंड रि-इन्वेस्टमेंट ऐक्ट नाम से इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण का कार्यक्रम पेश किया था। अब एक विश्लेषण के मुताबिक उस रकम में से महज 80 अरब डॉलर- यानी लगभग कुल तय रकम का दस फीसदी हिस्सा ही वास्तविक इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हो पाया। जो रकम खर्च हुई, उसका एक तिहाई हिस्सा सड़कों और पुलों की मरम्मत पर खर्च हुआ। गौरतलब है कि ओबामा की योजना में स्मार्ट (विद्युत) ग्रिड और ब्रॉडबैंड विकास में भी बड़ा निवेश होना था। 2010 में ओबामा ने एलान किया था कि उनकी योजना के तहत (1950 के दशक में अंतर-राज्यीय हाईवे सिस्टम बनने के बाद से) इन्फ्रास्ट्रक्चर में सबसे बड़ा निवेश उनके शासनकाल में ही होगा। लेकिन 2020 तक ज्यादातर परियोजनाएं लटकी हुई थीं। नई परियोजना के तौर पर सिर्फ 275 किलोमीटर की सेंट्रल वैली कैलीफॉर्निया लाइन बन कर तैयार हो पाई थी। इस विफलता अमेरिकी व्यवस्था के तहत सरकार की सीमाओं (या लाचारी) को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया।
नतीजा यह है कि डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट नेता बर्नी सैंडर्स आज अपने भाषणों में अक्सर धनी देशों के बीच अमेरिका के सबसे जर्जर इन्फ्रास्ट्रक्चर की चर्चा करते हैं। अब जोसेफ आर. बाइडेन ने राष्ट्रपति बनने के बाद 2.3 ट्रिलियन डॉलर का इन्फ्रास्ट्रक्चर पैकेज पेश किया है। लेकिन यह भी विधायी प्रक्रियाओं में उलझ गया है, जिसके बाइडेन की महत्त्वाकांक्षा के मुताबिक कार्यरूप लेने की संभावना न्यूनतम ही है।
ये कहानी उन बीते दस वर्षों की है, जिस दौरान आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, उच्च शिक्षा व्यवस्था, इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी विकास आदि के कारण चीन की सूरत बदल गई है। अब वह अपने देश से निकल कर उन देशों के इन्फ्रास्ट्रक्चर को आधुनिक रूप दे रहा है, जो उसके बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल हुए हैं। ऐसे में पश्चिमी देशों में अपने वर्चस्व को लेकर असुरक्षा का भाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। लेकिन समझने का असल सवाल यह है कि आखिर अकूत धन, टेक्नोलॉजी में आरंभिक बढ़त, और विज्ञान- तकनीक के व्यापक ढांचे के बावजूद पश्चिमी देश इन्फ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी और सामाजिक विकास के मानदंडों पर चीन से पिछड़ क्यों रहे हैं?
पश्चिम और चीन- दोनों के किसी अध्ययनकर्ता के लिए ये सवाल कोई बड़ी पहेली नहीं है। इसका सीधा उत्तर दोनों की राज्य-व्यवस्था (polity)- या कहें उनकी political economy के स्वरूप में जो अंतर है, उसमें छिपा है। पश्चिमी देशों का तथाकथित स्वर्ण युग वह था, जब उन्होंने अपनी व्यवस्था में सरकार की भूमिका बढ़ाई थी। भले ऐसा उन्होंने सोवियत संघ के नए विकास मॉडल और अपने देशों के अंदर तीव्र हो रहे मजदूर आंदोलन से दरपेश चुनौती के कारण किया हो, लेकिन इसका लाभ उन्हें और उनकी जनता को मिला। इस दौर में वो जन कल्याणकारी योजनाएं लागू हुईं, जिनसे मेहनतकश अवाम की आमदनी बढ़ी, आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर बना, विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ, और लाभों के अपेक्षाकृत बेहतर बँटवारे के साथ समृद्ध समाज का सपना साकार होता दिखा। अमेरिका का बहुचर्चित मध्य वर्ग उसी दौर में अस्तित्व में आया था। लेकिन जैसे ही सोवियत संघ की चुनौती खत्म हुई और देश के अंदर मजदूर आंदोलन मद्धम पड़े, उन देशों के शासक वर्गों ने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के इस मूलमंत्र को अपना लिया कि ‘सरकार समस्या का समाधान नहीं, बल्कि सरकार ही समस्या है।’ उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की इस समझ को अपना दर्शन बना लिया कि ‘समाज जैसी कोई चीज नहीं होती- सिर्फ व्यक्ति होते हैं और परिवार होता है’।
नतीजा बेलगाम निजीकरण और पूंजी की शक्ति के असीमित विस्तार के रूप में सामने आया है। पूंजीपति अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए अपने उद्योगों को चीन जैसे देश में ले गए, जहां श्रम सस्ता है और जहां बड़ी आबादी के कारण उभरता हुआ नया बड़ा बाजार है। इसी परिघटना के तहत चीन दुनिया का कारखाना बन गया। उधर पश्चिमी देशों की पूरी अर्थव्यवस्था वित्त, बीमा और रियल एस्टेट के कारोबार में सिमट गई।
अब सूरत यह है- जिसकी अर्थशास्त्री माइकल हडसन ने विस्तृत व्याख्या की है– कि अमेरिका में आम आदमी की जिंदगी इतनी महंगी हो गई है कि वहां उद्योग लगाना लगभग अलाभकारी हो गया है। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और तमाम सामाजिक सुरक्षाएं कर्ज और बीमा कंपनियों पर आश्रित हो गई हैं। रियल एस्टेट सेक्टर की ‘कारोबारी आजादी’ ने मकान (यानी रहने को) को बेहद महंगा बना दिया है। कर्ज लेकर पढ़े और किस्त चुकाने को मजबूर छात्र जब नौकरी करने जाते हैं, और महंगे मकान में रहते हुए अपनी सेहत और भविष्य के लिए बीमा कंपनियों पर आश्रित रहते हैं, तो जाहिर है उनकी साधारण जिंदगी की लागत भी बेहद ऊंची बैठती है। ऐसे व्यक्ति के लिए जो भी न्यूनतम मजदूरी होगी, वह चीन जैसे देश से बहुत ज्यादा होगी, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य पब्लिक सेक्टर में हैं और मकान की कीमतें या किराये भी अधिकारियों के नियंत्रण में रहती हैं।
चूंकि चीन में इन्फ्रास्ट्रक्चर भी सरकार के दायरे में है, तो जाहिर है, उत्पादन सस्ता होता है। चीन अगर आर्थिक प्रतिस्पर्धा में आज आगे निकल गया है, तो उसकी असल वजह यही है। पश्चिमी देश इसका मुकाबला कैसे करें? मुश्किल यह है कि वित्त-बीमा-रियल एस्टेट सेक्टर की लॉबिंग और फंडिंग ने वहां की राजनीति को भी अपने नियंत्रण में ले रखा है। ऐसे में इस दुश्चक्र से निकलने का कोई आसान रास्ता नजर नहीं आता। शायद तब तक नहीं आएगा, जब तक वहां कोई बड़ी क्रांति ना हो।
मगर अब जबकि, जैसा जो बाइडेन कहते हैं, चीन अमेरिका के लिए एक बड़ा प्रतिस्पर्धी बन गया है, तो अपना सिस्टम बदल कर आर्थिक धरातल पर मुकाबला करने में अपनी अक्षमता को पश्चिमी देश authoritarianism, मानव अधिकार के हनन, जबरिया मजदूरी, अनुचित व्यापार व्यवहार आदि जैसे तोहमतों से जरिए छिपा रहे हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि एक तरफ ये अभियान चला है, दूसरी तरफ चीन से आयात और पश्चिम से पूंजी का चीन की तरफ पलायन न सिर्फ जारी है, बल्कि वह बढ़ गया है। अभी हाल में चीन ने अपने वित्तीय बाजार को विदेशी निवेश के लिए खोला। तो गोल्डमैन सैख्स, मेरिल लिंच और कई दूसरे पश्चिमी निवेश बैंकों ने वहां के शेयर बाजार में भारी मात्रा में अपना निवेश कर दिया। इसकी खबर देते हुए एक अखबार ने हेडिंग दी- ‘अमेरिकी पैसे से चीन का वित्तीय बाजार चमक उठा। इसी तरह 2020 में अमेरिका और उसके साथी देशों ने चीन के खिलाफ आक्रामक मुहिम छेड़ी, लेकिन पिछले वर्ष चीन का अमेरिका से कुल कारोबार बढ़ा, जबकि वह ब्रिटेन का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर बन गया। वजह सीधी है। पश्चिमी पूंजीपति और कारोबारी सरकार की नीति से नहीं, बल्कि अपने मुनाफे के गतिशास्त्र से संचालित होते हैं। इसका लाभ चीन को मिल रहा है।
सारी दुनिया डेढ़ साल से कोरोना महामारी की मार झेल रही है। इस संक्रामक रोग की शुरुआत चीन से हुई। लेकिन चीन ने जिस तेजी से संक्रमण पर रोक लगाई और अपनी अर्थव्यवस्था संभाली, उसका परिणाम है कि पिछले वर्ष वह अकेली बड़ी अर्थव्यवस्था रहा, जहां पोजिटिव ग्रोथ दर्ज किया गया। दूसरी तरफ आज भी चीन से कहीं ज्यादा धनी पश्चिमी देश बीमारी संभालने में संघर्ष करते नजर आए। क्यों? एक बार फिर बात सिस्टम पर आकर ठहरती है। जहां की सरकारों ने सब कुछ निजी क्षेत्र के हाथ में दे दिया, उनकी क्षमता ऐसे हालात को संभालने के योग्य नहीं रह गई है। जबकि नीतिगत मामलों में चीन सरकार की जारी महत्त्वपूर्ण भूमिका, उसका पब्लिक सेक्टर और आम जन पर उसका प्रभाव ऐसे संकट के समय में निर्णायक महत्त्व का बन कर सामने आए।
दरअसल, कोरोना महामारी ने शासन व्यवस्था के स्वरूप के सवाल को उभार कर सारी दुनिया के सामने ला दिया है। मुद्दा यह सामने आया है कि मुक्त अर्थव्यवस्था के नाम पर सारी व्यवस्था को चंद पूंजीपतियों के हाथ में सौंप दिया जाना चाहिए, या पब्लिक पॉलिसी का प्रश्न ऐसी सरकार के हाथ में होना चाहिए, जो अपनी वैधता (legitimacy) अपनी जनता की रक्षा और जन हितों को आगे बढ़ाने के आधार पर हासिल करती हो?
अनुभव यह है कि जब मुक्त अर्थव्यवस्था अपने चरम पर पहुंचती है, तो उसके बाद उस अर्थव्यवस्था का अपने अंदर से क्षरण शुरू हो जाता है। तब वो व्यवस्था सिर्फ उनके हित में फायदेमंद रह जाती है, जो शेयर बाजार, कर्ज के कारोबार और रियल एस्टेट में निवेश करने में सक्षम होते हैं। ऐसे तबके इन निवेश के जरिए रेंट वसूल कर अपनी संपत्ति में अकल्पनीय तेजी से वृद्धि कर रहे हैं, जबकि बाकी आबादी की असल आमदनी गिरती चली गई है। पश्चिमी देश इसी समस्या से जूझ रहे हैं। चीन में भी ये प्रवृत्ति आज देखने को मिली है, लेकिन अब तक उसकी अर्थव्यवस्था ‘वॉल स्ट्रीट’ में नहीं, बल्कि ‘मेन स्ट्रीट’ यानी असल बाजार में केंद्रित है। चीन में बहुत-सी दूसरी समस्याएं हैं। सत्ता तंत्र का authoritarian स्वरूप एक हकीकत है। अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी समस्याएं वहां मौजूद हैं। खुले माहौल में अपनी सोच और पसंद के मुताबिक अपनी इच्छाओं को पूरा करने की राह में पाबंदियां हैं। लेकिन भौतिक जीवन स्तर में लगातार सुधार ने वहां के लोगों की निगाह में इन कमियों को कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनने दिया है, जो हाल के पश्चिमी संस्थाओं के अध्ययन से भी जाहिर हुआ है।
उधर जो व्यवस्थाएं अपने उदार स्वरूप का दावा करती थीं, खुद उनके भीतर authoritarian प्रवृत्तियां तेजी से उभरी हैं। इसीलिए चीन के खिलाफ इस कोण से उनका हमला आज दुनिया में बहुत से लोगों को आकर्षित नहीं कर पाता। बर्नी सैंडर्स ने हाल में जानी-मानी अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में एक लेख लिखा। उसका शीर्षक है- Washington’s Dangerous New Consensus on China (चीन के बारे में वॉशिंगटन में खतरनाक आम सहमति)। इस लेख में सैंडर्स ने चीन के खिलाफ शीत युद्ध की लगातार बनती स्थिति के खिलाफ चेतावनी दी है। मगर इसमें एक अति उल्लेखनीय बात उनकी ये टिप्पणी है- ‘जो बाइडेन प्रशासन ने authoritarianism के उभार के साथ लोकतंत्र के लिए पैदा हो रहे बड़े खतरे की सही पहचान की है। आज मुख्य टकराव लोकतंत्र और authoritarianism के बीच में है। लेकिन यह टकराव देशों के बीच में नहीं, बल्कि अमेरिका सहित तमाम देशों के अंदर खड़ा हो रहा है। अगर लोकतंत्र को विजयी होना है, तो ऐसा परंपरागत युद्ध के मैदान में जाकर नहीं किया जा सकता। बल्कि यह ये दिखा कर किया जा सकता है कि लोकतंत्र authoritarianism की तुलना में लोगों को बेहतर गुणवत्ता की जिंदगी प्रदान कर सकता है। इसीलिए हमें मेहनतकश परिवारों की लंबे समय से नजरअंदाज की गई समस्याओं का हल निकाल कर लोगों का सरकार में भरोसा बहाल करना चाहिए।’
अमेरिका और उसके साथी देश अगर इस रूप में authoritarianism की समस्या का हल ढूंढने की कोशिश करते, तो उससे दुनिया में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कायम होती। लेकिन वे सारी दुनिया को अपने ढंग में ढालने की पुरानी मानसिकता को आक्रामक बनाते हुए ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं। इससे एक अवांछित तनाव दुनिया में पैदा हुआ है। इसी तनाव के माहौल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी सौवीं सालगिरह मना रही है। लेकिन इस बीच उसके लिए ये संतोष की बात जरूर है कि जिन “Four Modernizations” (चार आधुनिकीकरण) का लक्ष्य पीपुल्स रिपब्लिक के स्थापना के बाद आरंभिक वर्षों में उसने तय किया था, उसे हासिल करने की दिशा में दिशा में वह काफी आगे बढ़ने में सफल रही है। बताया जाता है कि चार क्षेत्रों में आधुनिकीकरण का विचार सबसे पहले झाओ एन लाई ने सामने रखा था, जिसे 1977 में देंग श्याओ फिंग ने दोहराया। इसके तहत उद्योग, कृषि, रक्षा और विज्ञान-तकनीक के विकास को प्राथमिक राष्ट्रीय महत्त्व देने की बात कही गई थी। आज इन चारों क्षेत्रों में चीन की कामयाबियां दुनिया का ध्यान खींच रही हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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