उपराष्ट्रपति से कहा जा रहा है आप चीयर लीडर न बनें और मीडिया के लिए यह खबर नहीं है
भारत में प्रेस की आजादी पर टिप्पणी भारत में रह कर की जाए या विदेश जाकर – सरकार और सरकार समर्थकों को बुरी लगती है और इससे संबंधित ‘तथ्य’ या ‘मन की बात’ करने की छूट सरकारी स्तर पर पप्पू घोषित सरकार के घोषित आलोचक को भी नहीं है। आलम यह है कि बयान बाद में मालूम होता है उसकी आलोचना पहले शुरू हो जाती है और आलोचना को समझने के लिए बयान ढूंढ़कर सुनना पड़ता है। ऐसे में गोदी मीडिया (और प्रचारकों ने भी) खबर की परिभाषा ही बदल दी है और जो भी सूचना, तथ्य या प्रचार सरकार या सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हो, अखबारों में नहीं छपती-दिखती है। पहले पन्ने पर प्रमुखता से तो शायद ही कभी।
सोशल मीडिया पर सरकार की ट्रोल सेना विरोध करने उतर आती है और सरकार की अनुचित कार्रवाई का विरोध इस लचर तर्क से भी करना नहीं चूकती की पहले की सरकार भी करती थी। मेरा मानना है कि पहले की सरकार जो करती थी वही यह सरकार भी करती है तो इसे भी क्यों नहीं वहीं पहुंचा दिया जाए? पर तब सरकार समर्थकों को यह चिन्ता सताने लगती है कि विकल्प कहां है? और इसमें लोग भूल जाते हैं कि नरेन्द्र मोदी विकल्प कैसे बने या बनाए गए हैं (जो नहीं समझें उनके लिए यह बताना जरूरी है कि प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते हैं, और बीबीसी के बारे में राय बदल गई है) तथा उन्हें शिखर पर बनाए रखने के लिए क्या क्या हो रहा है। बेशक, खबरें नहीं छपना भी इसका एक कारण है और द टेलीग्राफ की पहले पन्ने की ये खबरें गवाह हैं। इन खबरों के बीच में एक खबर है, मुख्य चुनाव आयुक्त ने रेटिंग पर शंका जताई। फिरोज एल. विन्सेंट की यह खबर बताती है, मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट के इलेक्टोरल डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत के 100वें से 108वें स्थान पर खिसकने के कुछ दिनों बाद लोकतंत्र सूचकांकों के साथ देशों की वैश्विक रैंकिंग पर सवाल उठाया है।
इस खबर से साफ है कि मुख्य चुनाव आयुक्त अपने बचाव के बहाने सरकार के काम का बचाव कर रहे हैं और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट का हाल का आदेश दरअसल उनकी नियुक्ति पर भी टिप्पणी है लेकिन अभी मैं उसकी चर्चा नहीं करूंगा। अभी सिर्फ यह बताना है कि कैसे स्वायत्त या स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए चुने गए लोग सरकार का बचाव (या प्रचार) करते हैं या करने में लगा दिए गए हैं। उसके बावजूद उन्होंने इसे अपना काम समझा और किया है जो पहले के चुनाव आयु्क्त या ऐसे लोग नहीं करते थे। मुझे याद नहीं है कि पहले इस तरह के पदों पर बैठा कोई व्यक्ति किसी विदेशी रैंकिंग पर ऐसे टिप्पणी करता हो। यह अलग बात है कि तब रैंकिंग को भी बहुत महत्व नहीं दिया जाता था। बहुमत की निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार आधिकारिक स्तर पर कुछ करे वह बिल्कुल अलग बात है लेकिन चुनाव संबंधी रैंकिंग पर चुनाव आयुक्त की यह टिप्पणी सरकार के काम (उनकी नियुक्ति समेत) का बचाव क्यों नहीं है? और क्या यह उनका काम है?
खबर के अनुसार, गुरुवार को बैंगलोर में “समावेशी चुनाव और चुनाव अखंडता” पर तीसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में, राजीव कुमार ने कहा, “मैं यहां केवल यह बताना चाहूंगा कि जब चुनाव प्रबंधन निकाय (ईएमबी) या चुनाव प्राधिकरण (ईए) शामिल होते हैं या व्यस्त होते हैं चुनाव कराने में — और हमारे मामले में चूंकि हम प्रांतीय चुनाव भी करवाते हैं — … इसी बीच कुछ सर्वे रिपोर्ट आती हैं, तरह-तरह की रेटिंग्स आती हैं जहां किसी को पता नहीं होता है कि कितने समावेशी पहलुओं को पैरामीटर (प्राचल) के रूप में लिया जाता है। क्योंकि पैरामीटर खुद बहुत प्रसिद्ध या बहुत अच्छी तरह से प्रचारित नहीं हैं।” मुझे लगता है कि यह बात खुद चुनाव आयुक्त कहें उससे बेहतर होता भारत सरकार कहती। आखिर प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरों और भारतीय सूचना सेवा है किसलिए? बेशक, इस सेवा के लोग सरकार का काम और प्रचार करने के लिए ही हैं। और इनसे यह काम कराया जाए तो संवैधानिक पद पर बैठे लोग स्वतंत्र और निष्पक्ष लगेंगे। जैसे आज टेलीग्राफ ने उपराष्ट्रपति पर जयराम रमेश की टिप्पणी छापी है। उसपर बाद में आउंगा, पहले इस खबर के अगले हिस्से की चर्चा कर लूं।
खबर के अनुसार, पिछले एक दशक में भारत सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र सूचकांकों में निम्न स्थान पर रहा है। सूचकांकों में वी-डेम, द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट और फ्रीडम हाउस शामिल हैं। ये रिपोर्टें उनकी कार्यपद्धतियों की व्याख्या करती हैं। हालांकि, राजीव कुमार ने किसी सूचकांक का नाम नहीं लिया। उन्होंने कहा, “विभिन्न ईएमबी द्वारा किए गए अग्रणी कार्य वास्तव में कई संगठनों द्वारा प्रकाशित सर्वेक्षण रिपोर्ट और रेटिंग में परिलक्षित नहीं होते हैं। इसके उलट, कम समावेशिता वाले लोगों को अक्सर उच्च स्थान दिया जाता है। इस स्थिति में सुधार की आवश्यकता है और त्रुटिपूर्ण सर्वेक्षण तथा रिपोर्ट अधिक नुकसान पहुंचाते हैं, संभवतः गैर इरादतन। इसने ईएमबी/ईए की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया जिससे सर्वेक्षण एजेंसियों के ऐसे आउटपुट रहे और इस तरह यकीनन लोकतंत्र को भी नुकसान पहुंचाया गया।” सम्मेलन में भारत के नेतृत्व वाले “चुनाव अखंडता पर सहयोग” के सदस्यों ने भाग लिया, जो लोकतंत्र के लिए शिखर सम्मेलन का हिस्सा है, जो अमेरिका द्वारा समय-समय पर आयोजित किया जाने वाला एक वर्चुअल (आभासी) शिखर सम्मेलन है।
राजीव कुमार ने आगे कहा, “मुझे यकीन है कि यह समूह स्वयं कुछ मापदंडों का पता लगा सकता है, कम से कम आवश्यक पैरामीटर जिनके खिलाफ मानकों या लक्ष्यों की आकांक्षा की जाती है, जो अनिवार्य रूप से किसी भी सर्वेक्षण का हिस्सा बनना चाहिए जो एकतरफा रूप से विभिन्न ईएमबी और ईए का संकेत देता है और लोकतंत्र की मदद करने से ज्यादा नुकसान कर रहा है।” उनकी टिप्पणियां भारत को वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र के लिहाज से मिली नीचे की रैंकिंग को लेकर केंद्र की बेचैनी के अनुरूप थीं। और यह अक्सर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश निर्णयों को प्रभावित करती हैं। हाल ही में आयोजित रायसीना डायलॉग में एक सत्र का विषय था, “द लिबरल कॉन्ड्रम: हूज़ डेमोक्रेसी इज इट एनीवे?” शीर्षक से एक सत्र था। जहां प्रतिभागियों में प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल और हंगरी के प्रधान मंत्री विक्टर ओर्बन के राजनीतिक निदेशक बालाज़ ओर्बन शामिल थे।वी-डेम रिपोर्ट भारत और हंगरी दोनों को “शिखर के 10 निरंकुशतावादियों” के बीच सूचीबद्ध करती है, हालांकि इसमें कहा गया है कि इन देशों में “निरंकुशता की प्रक्रिया काफी धीमी हो गई है या यहां तक कि रुक गई है”।
सान्याल ने वी-डेम रिपोर्ट को खारिज कर दिया और सूचकांक में श्रीलंका के सुधार पर सवाल उठाया। हिंदुस्तान टाइम्स अखबार ने खबर दी है कि केंद्र ने पिछले साल यूके में द इकोनॉमिस्ट पत्रिका के साथ उसकी कार्यप्रणाली पर बातचीत करने की कोशिश की थी, जिसने भारत को एक “त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र” माना था और सरकार ने राज्यसभा में इस विषय पर एक प्रश्न को अस्वीकार कर दिया था। वी-डेम ने भारत को “चुनावी निरंकुशता” श्रेणी में सूचीबद्ध किया। अपने चुनावी लोकतंत्र सूचकांक के पीछे की कार्यप्रणाली की व्याख्या करते हुए, जिसमें भारत 2021 में 100 से गिरकर 2022 में 108 हो गया, रिपोर्ट में कहा गया है: “वी-डेम चुनावी लोकतंत्र सूचकांक (ईडीआई) न केवल उस सीमा को पकड़ता है जिस तक शासन स्वच्छ, स्वतंत्र और निष्पक्ष रहता है, बल्कि उनकी अभिव्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता, सूचना और संघ के वैकल्पिक स्रोत, साथ ही साथ पुरुष और महिला मताधिकार और किस हद तक सरकार की नीति निर्वाचित राजनीतिक अधिकारियों में निहित है, का भी ख्याल रखता है।
द टेलीग्राफ की आज की लीड का शीर्षक राज रत्न (या राष्ट्रीय रत्न) है। इसमें ऊपर गोपाल कृष्ण गोखले की एक उक्ति है, बंगाल आज जो सोचता है भारत वही कल सोचता है। इसके साथ क्रॉस का निशान यह इंगित करता है कि अब यह बेमतलब हो गया है। इसका संबंध लीड के उपशीर्षक से है जो हिन्दी में कुछ इस तरह होता, बंगाल ने जो कल झेला उसे भारत आज झेल रहा है। दूसरा उपशीर्षक भी ऐसा ही है। हिन्दी में यह कुछ इस प्रकार होता, केंद्र ने अब तक जो किया, बंगाल भाजपा ने उसका खुलासा अब किया। संजय के. झा की इस खबर के अनुसार, कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ से कहा है कि सरकार के ‘चीयरलीडर’ की तरह काम न करें।
मुझे लगता है कि उपराष्ट्रपति जिस तरह से काम कर रहे हैं उसे टेलीविजन पर हर कोई देख रहा है। ऐसे में कांग्रेस ने अगर कुछ आरोप लगाया है तो वह निश्चित रूप से खबर है और उसका महत्व किसी भी रूप में कम नहीं है। खासकर तब जब खबरों की कमी के कारण टाइम्स ऑफ इंडिया को लीड के रूप में बताना पड़ रहा है कि ईडी लालू यादव के बेटे और तीन बेटियों के परिसरों में लालू यादव के भ्रष्टाचार के सबूत ढूंढ़ रहा है (वर्षों बाद, सतर्क होने और खर्च करने के कई मौके देने के बाद)। द हिन्दू में भी यह खबर पहले पन्ने पर चार कॉलम में है लेकिन कांग्रेस का आरोप सिंगल कॉलम में भी नहीं है। कांग्रेस पार्टी लंदन में राहुल गांधी के यह कहने पर कि भारत में विपक्ष को संसद में मुद्दों को उठाने की स्वतंत्रता से वंचित किया जा रहा है, उप-राष्ट्रपति के परोक्ष हमले पर आपत्ति जता रही थी। धनखड़ पहले बंगाल के राज्यपाल थे। कांग्रेस के संचार प्रमुख जयराम रमेश ने कहा, “कुछ पद ऐसे हैं जिनके लिए हमें अपने पूर्वाग्रहों, अपनी पार्टी की निष्ठाओं को छोड़ना पड़ता है और हमें जो भी दुष्प्रचार हो सकता है, उससे खुद को दूर रहने के लिए मजबूर करना पड़ता है।” उन्होंने कहा कि भारत के उपराष्ट्रपति का कार्यालय इनमें सबसे प्रमुख है।
दूसरी खबर कोलकाता डेटलाइन से है और इसमें कहा गया है, भारत में सबसे खराब ढंग से रखे गए राज को बंगाल विधानसभा के रिकॉर्ड में जगह मिल गई है। राज्य में भाजपा के विरोधियों से निपटने के लिए “भितोरे ढुकिये देबो” मानक संचालन प्रक्रिया है। शुक्रवार को सदन में भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी द्वारा दी गई धमकी के संदर्भ में इसका उल्लेख हुआ जो रिकार्ड में दर्ज हो गया है। देश के कुछ अन्य हिस्सों में, “भितोरे ढुकिये देबो” (अंदर कर दूंगा) का रूप ले लेता है। इसका व्यावहारिक अर्थ है “आपको जेल में डाल दिया जाएगा”। नंदीग्राम का प्रतिनिधित्व करने वाले भाजपा विधायक अधिकारी ने विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। उनके कथित निशाने पर सिंचाई मंत्री पार्थ भौमिक थे। खास बात इस धमकी का समय है। जो न समझें उन्हें बता दूं कि दिल्ली के मंत्री सरकारी नीति बनाने में पैसे लेने के आरोप में जेल में हैं जबकि पैसे बरामद नहीं हुए हैं। दूसरी ओर कर्नाट में एक भाजपा विधायक के पुत्र रिश्वत लेते गिरफ्तार हुए और करोड़ बरामद हुए फिर भी उन्हें जेल नहीं जाना पड़ा। जमानत मिल गई और मीडिया को यह आदेश भी दिलवा दिया गया कि इनकी मानहानि करने वाली खबरें नहीं छापी जाएं।
जहां तक सरकार के काम काज और कार्यशैली की बात है पिछले दिनों मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद बने नियम के संदर्भ में याद आया कि सीबीआई के प्रमुख की नियुक्ति के संबंध में ऐसा नियम विनीत नारायण मामले में सुरेन्द्र जैन हवाला घोटाले के समय बना था। फिर भी सीबीआई के प्रमुख आलोक वर्मा को आधीरात की कार्रवाई में हटा दिया गया था। बाद में सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति का जो आदेश जारी हुआ उसमें दो साल के निश्चित कार्यकाल के आदेश के बावजूद लिखा था, दो साल के लिए या अगले आदेश तक। जाहिर है, अगले आदेश तक जोड़कर सरकार ने अधिकार अपने हाथ में रख लिए। खैर यह तो पुरानी बात है। अभी प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख की नियुक्ति के मामले में पता चला कि सरकार ने अध्यादेश लाकर नियम बदल लिये हैं और अब कार्यकाल पांच साल का है पिछले ईडी निदेशक को तीसरा कार्यकाल विस्तार मिला है जबकि ईडी जो मामले हाथ में लेता है उनकी संख्या में भारी वृद्धि के बावजूद सजा होने के मामले बहुत कम है।
यही नहीं, इंडियन एक्सप्रेस की 18 नवंबर 2022 को अद्यतन की गई एक खबर के अनुसार सरकार ने पिछले साल एक अध्यादेश के जरिये नियम बना दिया कि ईडी और सीबीआई निदेशकों का कार्यकाल दो साल की अनिवार्य और निश्चित अवधि के बाद तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है। (ईडीनिदेशक संजय) मिश्रा को बाद में एक साल का विस्तार दिया गया, जो उनका दूसरा था। पिछले साल सितंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने मिश्रा के कार्यकाल के शुरुआती तीन वर्षों को कानूनी करार देते हुए कहा था कि सीवीसी केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 कहता है कि ईडी प्रमुख “दो साल से कम नहीं” के लिए पद धारण करेंगे, जिसका मतलब यह नहीं पढ़ा जा सकता है “दो वर्ष से अधिक नहीं”। हालांकि, यह स्पष्ट कर दिया गया कि “उन्हें और कोई विस्तार नहीं दिया जाएगा”।
यहां यह दिलचस्प है कि दो साल से कम नहीं का अर्थ दो साल से अधिक लगा लिया लिया गया है और उसे पांच साल कर दिया गया। जाहिर है यह आदेश नहीं हो सकता है कि ठीक दो साल या 730 दिन। ना एक दिन कम ना एक दिन ज्यादा। अगर ऐसा हो और किसी जायज कारण से नियुक्ति न हो पाए तो पद खाली रहेगा और उसके अलग झंझट होंगे। नियमों की ऐसी व्याख्या या पेंच का उपयोग अपराधी को बचाने के लिए किया जाता है और इसलिए नियम बनाने में सावधानी भी रखी जाती है लेकिन तेल मालिश के वीडियो को वसूली के लिए बनाया गया तो कहा ही जा सकता है और स्टिंग को बिना बताये रिकार्डिंग का अपराध तो बनाया ही जा सकता है। इसलिए पहले जिसकी लाठी उसकी भैंस कहा जाता था लेकिन अब स्थिति जिसकी सरकार उसकी लाठी जैसी हो गई है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।