चुनाव…सत्ता …लूट के लोकतंत्र का सच है भूख और गरीबी
पुण्य प्रसून वाजपेयी
अगर लोकतंत्र का मतलब चुनाव है तो फिर गरीबी का मतलब चुनावी वादा होगा ही। अगर लोकतंत्र का मतलब सत्ता की लूट है तो फिर नागरिकों के पेट का निवाला छिन कर लोकतंत्र के रईस होने का राग होगा ही। इसे समझने के लिये 2019 में ‘आजाद’ होने का इंतजार करने की जरुरत नहीं है। सिर्फ जमीनी सच को समझना होगा, जिसे मोदी सरकार भी जानती है और दुनिया के 195 देश भी जानते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य है । यानी दुनिया भारत को बाजार इसलिये मानती है क्योंकि यहां की सत्ता, कमीशन पर देश के खनिज संसाधनों की लूट के लिये तैयार रहती है। सोशल इंडेक्स में भारत इतना नीचे है कि विकसित देशो का रिजेक्टेड माल भारत में खप जाता है। और भारत का बाजार इतना विकसित है कि दुनिय़ा के विकसित देश जिन दवाइयों को जानलेवा मान कर अपने देश में बेचने पर पाबंदी लगा देते है, वे भी भारत के बाजार में खप जाती हैं। यानी कमाल का लोकतंत्र है। एक तरफ विकसित देशों की तर्ज पर सत्ता, कारोपरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी काम करने लगती हैं तो दूसरी तरफ नागरिकों के हक में आने वाले खनिज संसाधनों की लूट-उपभोग के बाद जो बचा खुचा गरीबों को बांटा जाता है, वह कल्याणकारी योजना का प्रतीक बना दिया जाता है।
और इस तरह की व्यवस्था पर किसका हक रहे, इसके लिये चुनाव है, जिस पर काबिज होने के लिये लूटतंत्र का रुपया ही लुटाया जाता है। पर लूटतंत्र के इस लोकतंत्र की जमीन के हालात क्या हैं, इसे समझने के लिये देश के उन्हीं तीन राज्यों को परख लें, जहां चुनाव में देश के दो राष्ट्रीय राजनीतिक दल आमने सामने हैं। सत्ताधारी बीजेपी के तो पौ बारह हैं, क्योंकि तीनो राज्य में उसी की सरकार है। खासतौर से मोदी-अमित शाह से लेकर संघ परिवार को गर्व है कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरीखा राज तो किसी का नहीं है। जो खुद को किसान कहते हैं तो हिन्दू राग भी अलाप लेते हैं। जो स्वयंसेवकों का भी ख्याल रखते हैं और मध्यप्रदेश के तमाम जिलों में नौकरी दिए हुये हैं। इस हकीकत पर कोई नहीं बोलता कि मध्यप्रदेश के चालीस फीसदी लोग बहुआयामी गरीबी इंडेक्स के दायरे में आते हैं। यानी सवाल सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे भर का नहीं है। बल्कि कुपोषित होने, बीमार होने, भूखे रहकर जीने के हालात में चालीस फीसदी मध्यप्रदेश है। ये बात यूएनडीपी यानी संयुक्त राष्ट्र डेवलपमेंट कार्यक्रम चलाने वाली संस्था कहती है। और इसी यूएनडीपी की रिपोर्ट के आधार पर भारत को आर्थिक मदद मिल जाती है। लेकिन मदद का रास्ता भी चूंकि दिल्ली से होकर गरीब तक जाता है तो वह गरीबी को रोटी की एवज में सत्ता का चुनावी मैनिफेस्टो दिखाता है। वोट मांगता है। बावजूद इन सबके गरीबों की हालत में कोई सुधार होता नहीं। यानी ये भी सवाल है कि दुनिया भर से गरीब भारत के लिये जो अलग अलग कार्यक्रमों के जरिये मदद आती है, राजनीतिक सत्ता कहीं वह भी तो हड़प नहीं लेती? या सत्ता कई मिजाज में होती है। केन्द्र या राज्य की सत्ता को भी इस धन को हड़पने के लिये कई कल्याणकारी संस्थाओ की जरुरत होती है।
तो गरीबी या गरीबों के लिये काम करने वाली विदेशी मदद के रुपयों को हड़पने में सत्ता साथ देती है। या कहें कि सत्ता उन्ही संस्थानों को मान्यता देती है या धन देती हैं, जो रुपयों को हडपने में राजनीतिक सत्ता के साथ खड़े रहें। तो ऐसे में मध्य प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने के लिये अरबों रुपये प्रचार प्रसार में लुटाये जा रहे हैं। चार्टर्ड हेलीकाप्टर से आसमान में उड़ते हुये नेता कुलाँचे मार रहे हैं। सही झूठ, सब कुछ परोस रहे हैं। उस आसमान से जमीन कितनी और कहाँ की दिखायी देती होगी, क्योंकि दुनिया के मानचित्र में साउथ अफ्रिका का देश नामीबिया एक ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा भूख है। और कल्पना कीजिये यूएनडीपी की रिपोर्ट कहती है कि नामीबिया का एमपीआई यानी मल्टीनेशनल पोवर्टी इंडेक्स यानी बहुआयामी गरीबी स्तर 0.181 है । और मध्यप्रदेश का भी लेबल 0.181 है। यानी जिस अवस्था में नामीबिया है उसी अवस्था में मध्यप्रदेश है। तो भारत की इकॉनमी को लेकर, उसके विकसित होने को लेकर जो झूठ फरेब नागरिकों को सत्ता बताती है, उसका सच कितना त्रासदीपूर्ण है, ये इससे भी समझा जा सकता है कि 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी बिहार चुनाव में प्रचार करने पहुँचे तो उन्होंने भाषण दिया-मध्य प्रदेश और राजस्थान अब बीमारु राज्य नहीं रहे। और बिहार को बीमारु से उबरने के लिये बीजेपी की जरुरत है। पर सच सिर्फ मध्यप्रदेश का ही त्रासदीपूर्ण नहीं है, बल्कि राजस्थान की पहचान दुनिया के दूसरे सबसे बीमार देश ग्वाटेमाला सरीखी है। यूएनडीपी रिपोर्ट के मुताबिक ग्वाटेमाला का एमपीआई 0.143 है और यही इंडेक्स राजस्थान का भी है। धान का कटोरा कहे जाने वाला छत्तीसगढ़ भी कोई विकसित नहीं हो चला है, जैसा दावा दशक से सत्ता में रहे रमन सिंह करते हैं। गरीबी को लेकर जो रेखा जिम्बाव्वे की है, वही रेखा छत्तीसगढ़ की है।
यानी रईस राजनीतिक लोकतंत्र की छांव में, अलग अलग प्रांतों में कैसे कैसे देश पनप रहे हैं या दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे या गरीब देश सरीखे हालात हैं लेकिन सत्ता हमेशा रईस होती है। और रईसी का मतलब कैसे नागरिकों को ही गुलाम बनाकर सत्ता पाने के तौर तरीके अपनाये जाते हैं, ये नागरिको की आर्थिक सामाजिक हालात से समझा जा सकता है। ऑक्सफेम की रिपोर्ट कहती है कि भारत की राजनीति यूरोपीय देश को आर्थिक तौर पर टक्कर देती है। यानी जितनी रईसी दुनिया के टॉप 10 देशों की सत्ता की होती है, उस रईसी को भी मात देने की स्थिति में हमारे देश के नेता और राजनीतिक दल हो जाते हैं। 2014 के बाद तो सत्ता की रईसी में चार चांद लग चुके हैं, जो अमेरिकी सीनेटरों को भी पीछे छोड़े दे रही हैं।
लेकिन इसी अक्स में हालात क्या है राज्यों के। मसलन देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तरप्रदेश का एमपीआई यानी बहुआयामी गरीबी इंडेक्स 0.180 है। जो कि कांगो के बराबर है। तो क्या कोई कह सकता है कि योगी कांगो के शासक हैं। शिवराज नामीबिया के शासक हैं। वसुंधरा ग्वाटेमाला की शासक हैं। रमन सिंह जिम्बाव्वे के शासक हैं। और जिस बिहार की सत्ता के लिये बीजेपी मचलती रही और नीतीश कुमार बिहार की बयार से खुद को जोडते रहे उस बिहार का सच तो ये है कि ये भारत से सबसे निचले पायदान पर और दुनिया के पांचवे सबसे नीचले पायदान पर आनावाले साउथ ईस्ट अफ्रीका के मलावई के समकक्ष बैठता है। यानी नीतीश कुमार मलावई देश के शासक हैं जो बीजेपी के समर्थन से चल रही है।
देश में क्यों जरुरी है जीरो बजट पर चुनाव लडने के लिये जनता का दवाब बनाना, उसकी सबसे बडी वजह यही लूटतंत्र है जिसके आसरे लोकतंत्र का राग गाया जाता है। हद तो ये है कि जिस केरल में मंदिर में में महिलाओ के प्रवेश को लेकर सियासत अंधी हो चली है और सियासतदान सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी सियासत करने से चूक नहीं रहे, उस राज्य को भी राजनीति अपने ही दलदल में घसीटना चाहती है। ऐसा लगता है क्योंकि केरल देश के सबसे विकसित राज्यो में है, जहाँ सबसे कम गरीबी है। और दुनिया के देशों में केरल की तुलना जार्डन से होती है। यहां का एमपीआई 0.004 है। तो सियासत और सत्ता चुनावी लोकतंत्र के नाम पर देश को ही हड़प लें, उससे पहले चेत चाइये। मान लीजिये कि ये हमारा देश है।
लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं।