सुप्रीम कोर्ट ने आज अयोध्या के ज़मीन विवाद का मामला जनवरी तक के लिए टाल दिया। जनवरी में सर्वोच्च अदालत यह तय करेगी कि इस मामले की सुनवाई कब और कैसे हो। ज़ाहिर है, चुनावी आहट के बीच इस मुद्दे के ज़रिये माहौल गरमाने की योजना की राह में थोड़ी बाधा आई है लेकिन राम पर आस्था के सवाल के सहारे चुनावी नैया पार लगाने की जुगत कोई नया मोड़ भी ले सकती है। राममंदिर को लेकर अध्यादेश लाने की माँग को भी हवा दी जाने लगी है।
वैसे, जिस मुद्दे को आस्था का सवाल बनाकर बीजेपी ने इतनी लंबी यात्रा पूरी की है, उसे वह आसानी से कोर्ट के हवाले करेगी भी नहीं। सबरीमाला मुद्दे पर जिस तरह देश की शासक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने आस्था पर कोर्ट के हस्तक्षेप की आलोचना की है, वह राममंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर भविष्य के रुख का संकेत भी है। सर्वोच्च अदालत को चेतावनी जैसी।
ज़ाहिर है, यह ‘आस्था’ राजनीतिक कारणों से निर्मित और विकसित की गई है। और अब बात वहाँ पहुँच गई है जहाँ तमाम लिहाज के पर्दे बेमानी हो जाते हैं। यही वजह है कि दिल्ली में बीती 20 सितंबर को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पत्रकार हेमंत शर्मा की जिस किताब का विमोचन किया उसमें पूरा वर्णन है कि कैसे 22 और 23 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में ज़बरदस्ती घुसकर राम की बालमूर्ति स्थापित की गई। यानी आरएसएस ने मान लिया है कि ‘भये प्रकट कृपाला’ के चमत्कार के पीछे एक सुचंतित नाटक था। अयोध्या विवाद पर एक साथ दो किताबें- ‘युद्ध में अयोध्या’ और ‘अयोध्या का चश्मदीद’ का विमोचन करने भागवत ही मंच पर नहीं थे, बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी मौजूद थे।
बनारस के रहने वाले हेमंत शर्मा जनसत्ता के संवाददाता बतौर लंबे समय तक लखनऊ में तैनात रहे और अयोध्या आंदोलन को उन्होंने करीब से देखा। जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी उन्हें सार्वजनिक रूप से ‘कारसेवक पत्रकार’ कहते और लिखते थे। उन्होंने इस किताब में बतौर पत्रकार अपना हुनर दिखाया भी है। खूब दस्तावेज़ और तथ्य रखे हैं पर व्याख्या उसी तरह की है जिसकी वजह से प्रभाष जोशी ने उन्हें ‘कारसेवक पत्रकार’ की उपाधि दी थी। मामला चाहे अदालत में लंबित हो लेकिन हेमंत शर्मा को कोई संदेह नहीं कि बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई और ‘उसी जगह’ भव्य राममंदिर बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वे मानते भी हैं कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण को लेकर विश्व हिंदू परिषद के प्रचार’ का उन पर काफ़ी असर पड़ा। स्वाभाविक है कि आरएसएस और बीजेपी के बड़े नेता उनकी किताब का विमोचन करने खुशी-ख़ुशी पहुँचे थे।
बहरहाल, उनकी यह तारीफ़ तो बनती ही है कि उन्होंने बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने की पूरी साज़िश को साफ़-साफ लिखा। युद्ध में अयोध्या किताब में पेज 273 से शुरू ‘भए प्रकट कृपाला’ शीर्षक से शुरू होने वाले अध्याय 6 में 22 और 23 दिसंबर, 1949 की सर्द रात का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं–
‘सरयू के किनारे इकट्ठा होने वाले पाँच लोगों में गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजय नाथ, देवरिया के अहिंदीभाषी संत बाबा राघवदास, निर्मोही अखाड़े के बाबा अभिरामदास और दिंगंबर अखाड़े के रामचंद्र परमहंस थे। इस गोपनीय आपरेशन में गीताप्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद ‘पोद्दार भाई जी’ भी व्यवस्था के लिए वहाँ मौजूद थे। कुछ लोगों का कहना है कि ‘भगवान को प्रकट कराने वाले’ इस समूह में संघ प्रचारक नाना जी देशमुख भी थे। परमहंस रामचंद्रदास भी दबी जुबान में उनका नाम लेते थे। पर जब नाना जी से इस बाबत बात हुई, उन्होंने न कभी इसे मंजूर किया, न खंडन किया।’ (पेज नंबर 274)
हेमंत शर्मा के मुताबिक, सरयू स्नान के बाद ये लोग तीस-चालीस वैरागी साधुओं के साथ आगे बढ़ते हैं। पोद्दार की लाई अष्टधातु की राम की बचपन की मूर्ति को बाँस की टोकरी में रखा जाता है। परिसर की सुरक्षा में तैनात कान्स्टेबल शेर सिंह का अभिरामदास से ‘गाँजा-भाँग का पुराना रिश्ता’ था। उसने ताला खोलकर सात-आठ साधुओं को गर्भगृह में प्रवेश करा दिया। पीएसी के करीब दर्जन पीएसी वाले तंबू में सो रहे थे। बारी-बारी से दो की ड्यूटी थी। फिर वहाँ बलपूर्वक मूर्ति स्थापित कर दी गई-
‘सबसे पहले अखाड़े के इन बलिष्ठ साधुओं ने मस्जिद के मुअज्जिन मोहम्मद इस्माइल, जो मोटे, ठिगने और काले रंग के थे, उन्हें मार-पीट कर बाहर भगाया और फिर गर्भगृह में प्रवेश कर गए। परमहंस बताते थे कि मुअज्जिन ने उस रोज लंबा कुर्ता और लुंगी पहन रखी थी। वह पहले अभिराम दास की ओर लपका था क्योंकि उनके हाथ में मूर्ति थी। अभिराम दास ने खुद को छुड़ाया और फिर लात-घूँसे चले। जब मुअज्जिन ने समझा कि वह वैरागियों का मुकाबला नहीं कर सकता तो वह अँधेरे में सरपट भागा।’ (पेज 277)
अयोध्या आंदोलन के दौरान यह बात बार-बार प्रचारित की गई कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद में उस दिन अलौकिक घटना हुई थी। राम अपने आप प्रकट हुए थे। इसके लिए प्रमाण बतौर एक मुस्लिम सिपाही अब्दुल बरकत के बयान का ज़िक्र किया जाता है। अयोध्या स्थित विश्व हिंदू परिषद की मंदिर निर्माण कार्यशाला में एक पत्थर पर दर्ज चमत्कार की यह कहानी श्रद्धालुओं को बहुत प्रभावित करती है। किताब में इस चमत्कार के पीछे की सच्चाई यूँ दर्ज की गई है-
‘लालटेन की रोशनी में पहले गर्भगृह की फ़र्श सरयू के पानी से धोई गई। फिर लकड़ी का एक सिंहासन रख उस पर चाँदी का एक छोटा सिंहासन रखा गया। उस पर कपड़ा बिछा मूर्ति रखी गई। दीप और अगरबत्तियाँ जलीं। मंत्रोच्चार के बीच मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई। पूजन-अर्चन शुरू हो गया। शेर सिंह की ड्यूटी 12 बजे तक ही थी। पर शेर सिंह उसके बाद भी पूरा काम होने तक एक घंटा और ड्यूटी पर तैनात रहे। एक बजे के बाद उन्होंने अपने साथी मुस्लिम कांस्टेबल अब्दुल बरकत को जगाकर ड्यूटी पर भेजा। जगमग रोशनी में अष्टधातु की मूर्ति देख सिपाही बरकत को काटो तो खून नहीं। बिलकुल अवाक्। एक घंटा देरी से आने में इन सिपाही महोदयन ने इसी में भलाई समझी की वे रामलला के प्रकट होने की कहानी का समर्थन करें। सिपाही बरकत ने एफआईआर में बतौर गवाह पुलिस को बताया कि कोई बारह बजे के आसपास बीच वाले गुंबद के नीचे अलौकिक रोशनी हुई। रोशनी कम होने पर उसने जो कुछ देखा, उस पर विश्वास नहीं हो रहा था। वहाँ अपने तीनों भाइयों के साथ जब भगवान राम की बालमूर्ति विराजमान थी। अब्दुल बरकत का यह बयान मूर्ति लाने वाले समूह के लिए फायदेमंद था। क्योंकि बरकत का बयान चमत्कार का प्रमाण था।’ (पेज 278)
बहरहाल, 23 दिसंबर को अयोध्या थाना के प्रभारी सीनियर सब इंस्पेक्टर रामदेव दुबे ने एफआईआर दर्ज कराई। इसमें अभय रामदास, रामशुक्ल दास और सुदर्शन दास को आरोपित किया गया। एफआईआर में साफ लिखा गया कि इन तीनों ने पचास-साठ अज्ञात लोगों के साथ मस्जिद में अतिचार और दंगा करके व मूर्ति रखकर मस्जिद को भ्रष्ट किया। एफआईआर के मुताबिक कांस्टेबल नंबर 7 माता प्रसाद की मौखिक सूचना के मुताबिक घटनाक्रम है और कांस्टेबल नंबर 70 हंसराज ने मना किया किंतु वे माने नहीं।
यानी मस्जिद में जबरदस्ती मूर्ति रखने के सारे विवरण मौजूद हैं। सवाल ये है कि क्या आरएसएस ने सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार कर लिया है। यह उस आस्था के विरुद्ध है जो उसने दशकों से श्रद्धालुओं के मन में भरी है कि रामलला जन्मस्थान पर प्रकट हुए हैं। लेकिन शायद अब उसे इसकी परवाह भी नहीं है। आस्था के नाम पर जिस भीड़ को तैयार करने का लक्ष्य उसने दशकों पहले रखा था, अब उसमें प्रश्न करने का विवेक बाक़ी नहीं रह गया है।
पुनश्च: कारसेवक पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी इस किताब में मंदिर के पक्ष और मस्जिद के ख़िलाफ़ में जो दलीलें दी हैं, वे उनका हक़ हैं। लेकिन इस उत्साह में वे गोस्वामी तुलसीदास के नाम पर चलाए गए एक फ़र्ज़ीवाड़े को मान्यता दिलाने की कोशिश की है। उन्होंने कथित तौर पर तुलसीदास रचित ‘दोहाशतक’ का ज़िक़्र किया है जिसमें बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का वर्णन है। नामवर सिंह और कुछ वामपंथियों द्वारा इसकी प्रामाणिकता पर संदेह जताने के चलताऊ ज़िक्र के साथ वे इसे पूरे विस्तार से प्रस्तुत करते हैं जो चित्रकूट के संत रामभद्राचार्य ने अदालत में पेश किया और जिसका संज्ञान लिया गया (संज्ञान तो अदालत सभी चीजों का लेती है जो सामने आती हैं।) वे विह्वल होकर लिखते हैं कि तुलसी की पंक्तियाँ कैसे उस भीषण अन्याय का प्रमाण हैं, लेकिन हक़ीक़त ये है कि यह पूरी तरह तुलसी के नाम पर गढ़ा साहित्य है। व्हाट्सऐप के दौर के पहले भी ऐसे फ़र्जीवाड़े ख़ूब होते रहे हैं। साहित्य का सामान्य सा विदयार्थी भी इसके फ़र्ज़ी होने की गवाही दे देगा। हेमंत शर्मा बताते हैं कि उन्हें संस्कार काशी में मिले, लेकिन वहाँ की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा चार खंडों में प्रकाशित तुलसी ग्रंथावली में ‘दोहा शतक’ का कोई उल्लेख नहीं है। यही नहीं, तुलसी और उनके साहित्य पर गंभीर शोध करने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर माता प्रसाद गुप्त ने भी इसका कहीं ज़िक़्र नहीं किया है।
हेमंत शर्मा यह भी लिखते हैं कि तुलसीदास ने ‘भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी’ तभी लिखा था जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। उनके हिसाब से यह सन 1528 था। लेकिन तुलसी अकबर के समकालीन थे। उनका जन्म संवत 1589 यानी सन 1532 में हुआ था और रामचरित मानस लिखना उन्होंने संवत 1631 यानी सन 1574 में शुरू किया था। उन्होंने कहीं बाबरी मस्जिद तोड़ने का ज़िक्र नहीं किया, उल्टा माँग के खाने और मस्जिद में सोने की बात (कवितावली में) ज़रूर लिखी है-
धूत कहो, अवधूत कहो, रजपूत कहो, जुलहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रूचे सो कहे कछु कोऊ
मांग के खाइबो , मसीत में सोइबो, लेवे को एक न देवे को दोऊ।।