एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी स्क्रीन पर, देश को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए लॉकडाउन को आगे बढ़ाने के केंद्र सरकार के फैसले का एलान कर रहे थे तो देश के कोचिंग हब कहलाने वाले, राजस्थान के कोटा शहर में मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र अपना सिर पकड़ के बैठे थे। इसमें कोई शक़ नहीं कि कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए ये फ़ैसला ज़रूरी था, लेकिन इन छात्रों की मुसीबत को और आगे बढ़ाने वाला साबित होने वाला था। होली की छुट्टियों के बाद जो छात्र पढाई के लिए कोटा वापस आये थे, और जो पहले से ही कोटा में थे उनकी संख्या करीब 30,000 से 35,000 बताई जा रही है। राजस्थान में कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों ने इन बच्चों को और इनके परिजनों को चिंता में डाल दिया। साथ ही इन छात्रों का कोटा में रहना उनके अस्तित्व का सवाल बन गया।
छात्रों और तीर्थयात्रियों के लिए बसों की व्यवस्था गरीब के लिए क्या ?
लॉकडाउन का आगे बढ़ना इन छात्रों को कैद सरीखा महसूस होने लगा। तमाम तरह की मुसीबतों के बीच इन छात्रों की प्रमुख शिकायत है कि इनके भोजन की कोई सुलभ व्यवस्था नहीं है और मकान मालिकों द्वारा किराया देने पर भी ज़ोर दिया जा रहा है। लॉकडाउन के दौरान महंगे दामों पर सामान ख़रीदने की वजह से इनके पास पैसों की भी कमी हो गयी है। ट्विटर पर सेंड उस बैक होम हैश टैग (#sendusbackhome ) चलाकर इन छात्रों ने देश का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा, लेकिन इस हैशटैग का दुरुपयोग – बांद्रा में प्रवासी मज़दूरों के प्रदर्शन को सांप्रदायिक रंग देने में कर लिया गया।
इसके बाद छात्रों ने नया हैशटैग चलाया ‘#HelpKotaStudents’ और फिर उत्तर प्रदेश सरकार तेज़ी से हरक़त में आई और सरकार की तरफ़ से कोटा में फंसे 7000 से अधिक छात्रों को उनके गृह राज्य तक पहुँचाने के लिए 300 बसों की व्यवस्था की गयी। बच्चों को थर्मल स्कैनिंग करके और मास्क देकर ही बसों से रवाना किया जाएगा। उत्तर प्रदेश सरकार का ये क़दम सराहनीय है। ऐसी ही एक और ख़बर वाराणसी से है। यहाँ दक्षिण भारत से आये हुए तीर्थयात्री लॉकडाउन में फंसे हुए थे। इन लोगों को भी इनके राज्यों में भेजने के लिए बसों की व्यवस्था की गयी। इसी तरह से मार्च के अंत में उत्तराखंड में फंसे 1800 लोगों के लिए भी बसों को चलाया गया, कई डीलक्स बसों की भी उपलब्धता सुनिश्चित की गयी थी। ये सब पढ़कर आपको कुछ याद आया? जी हां, हमको भी ये सरकारी क़ाग़ज़ और ख़बर देखकर, सबसे पहले वो गरीब नागरिक याद आए थे, जो कई रोज़ तक सड़कों पर पैदल चलते रहे – सिर पर गठरियां, हाथ में असबाब और बच्चों को थामे, भूख और प्यास से बेहाल और कई बार – मंज़िल पर पहुंचने से पहले दम तोड़कर, ख़बर में भी आने लायक न बनते हुए…
बिहार के मुख्यमंत्री छात्रों को वापस बुलाने के पक्ष में नहीं हैं
हालाँकि बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार अपने राज्य में अभी भी कोटा से छात्रों को लाने के लिए तैयार नहीं है। उनको लग रहा है कि छात्रों के आने पर कोरोना संक्रमण फ़ैल सकता है और ये लॉक डाउन के नियमों का उल्लंघन भी है। जहां एक तरफ़ छात्रों के लिए, तीर्थयात्रियों के लिए और मध्यवर्ग या उच्च वर्ग को उनके घर भेजने के लिए बसों की व्यवस्था की जाती है तो दूसरी तरफ़ अन्य राज्यों में फंसे गरीब मजदूर वर्ग को उसके घर भेजने की कोई व्यवस्था न करना समाज में भेदभाव का उदाहरण है।
कम उम्र के छात्रों के सामने कई समस्याएं आ रही हैं
कोटा की बात करें तो यहाँ पढने वाले छात्र लाखों रूपये फ़ीस देकर कोचिंग करते हैं। कई हज़ार रुपये किराये के रूप में अपने हॉस्टलों और पीजी में देते हैं । अधिकतर कोचिंग करने वाले छात्र सशक्त मध्यवर्ग या उच्चवर्गीय परिवारों से होते हैं। ये सब छात्र 18 वर्ष से कम उम्र के हैं जो कोचिंग के लिए अपने घर और परिवार से दूर रहते हैं । इनकी अपनी समस्याएं हैं, डर है, कोरोना के संक्रमण का खतरा है। मानसिक तनाव होने की शंका है। इसलिए सरकार ने इनकी आवाज़ सुनी इनको परेशानियों से निजात दिलाने के लिए उत्तर प्रदेश के शहरों से रोडवेज की बसें भेजीं, जोकि एक ज़िम्मेदार सरकार का कर्तव्य था लेकिन वो गरीब जो रो रहा है, पैदल ही अपनी पत्नी बच्चों और बुजुर्ग परिवार वालों के साथ हजारों किलोमीटर तक पैदल चलकर घर पहुँच जाना चाहता है, उसके साथ ये अन्याय क्यों? उन सबको भी बसों की व्यवस्था करके उनके घर क्यों नहीं पंहुचाया जा रहा है? इन गरीब मजदूरों के ऊपर डंडा चलाकर, मुर्गा बनाकर उन्हें कहीं भी परेशान होने को छोड़ दिया जाना केंद्र और अन्य राज्य सरकारों के ऊपर बड़े सवाल खड़े करता है।
छात्र देश का भविष्य अवश्य हैं लेकिन गरीब के भी आगे दीवार नहीं उठानी चाहिए
इन गरीब लोगों के लिए पर्याप्त भोजन, उचित स्वास्थ्य व्यवस्था और ठहरने की सुविधा नहीं उपलब्ध हो पा रही हैं। सोशल मीडिया पर आये दिन इन मजदूरों का दर्द बयां करती तस्वीरें आती रहती हैं। लेकिन इनकी सुनवाई नहीं हो रही है। कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र सरकार ने बताया था कि करीब 5 लाख प्रवासी मजदूर उनके राज्य में हैं फिर केंद्र सरकार या प्रवासी मजदूरों की गृह राज्य सरकारें क्यों उन्हें उनके घर तक पहुंचाने के लिए कोई क़दम नहीं उठा पा रही हैं ? क्या इन गरीबों को वोट बैंक के खांचे में फिट न बैठने की सजा मिल रही है ? एक तरफ़ तो उत्तर प्रदेश सरकार अपने सभी नागरिकों के साथ होने का दावा करते हुए कोटा से छात्रों को घर भेजने के लिए बसों का इंतज़ाम करती है तो दूसरी तरफ अन्य राज्यों में ग़रीब मजूदरों को उनके हाल पर छोड़ देना सरकार के सबके साथ वाले दावे के उलट दिखाई देता है। हम छात्रों या तीर्थयात्रियों के घर पहुँचने से जितना आराम महसूस कर रहे हैं उस आराम का हक़दार गरीब मजदूर भी है।