दिल्ली बम धमाके में फँसे बेगुनाह छूटे, लेकिन ग़लत तथ्य देकर स्यापा कर रहा है मीडिया !



मुहम्मद रफ़ीक़ शाह (दायें) जिन्हें दिल्ली पुलिस की स्पेशल ने 22 नवंबर 2005 को गिरफ़्तार किया था, तब वो कश्मीर यूनिवर्सिटी में एमए के छात्र थे. उनकी गिरफ्तारी के बाद कश्मीर यूनिवर्सिटी ने बाक़ायदा चिट्ठी लिखकर कहा था कि सीरियल धमाकों वाले दिन रफ़ीक़ क्लास में मौजूद थे लेकिन स्पेशल सेल ने वह चिट्ठी दबा दी. अब 11 साल बाद ज़िंदगी का सबसे कीमती वक़्त गंवाकर वह बेगुनाह साबित हुए हैं. 11 साल पहले करियर को लेकर रफीक़ के भीतर जो उत्साह रहा होगा, आतंकवाद का ठप्पा और 11 साल बाद उससे मुक्त होने के बाद वह बचा नहीं होगा. कोई भी मुआवाज़ा रफीक़ का बर्बाद जीवन नहीं लौटा सकता. लेकिन मीडिया रिपोर्ट में रफ़ीक का यह दर्द ग़ायब है. उल्टा यह दर्द छलक रहा है कि वह छूटा क्यों…?  ऐसा लगता है कि मीडिया को सिर्फ़ सज़ा से मतलब है, गुनाहगार हो या ना हो।
29 अक्टूबर 2005 की शाम दिल्ली में तीन सीरियल धमाके हुए थे. पहाड़गंज, सरोजनी नगर और गोविंदपुरी बस स्टॉप पर आधे घंटे के भीतर हुए तीन धमाकों में 67 लोग मारे गए और 2 सौ से ज़्यादा ज़ख़्मी हुए. लेकिन इस केस की तफ़्तीश दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने जिस तरह किया उससे 11 साल के बाद दिल्ली की एक अदालत में उसे शर्मसार होना पड़ा है.
स्पेशल सेल धमाके में मारे गए मृतकों के परिजनों को इंसाफ़ दिलवाने में नाकाम साबित हुई. सेल ने रफ़ीक सहित जिन तीन कश्मीरी युवाओं को इन धमाकों का आरोपी बनाया था, कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया है. फ़ैसला सुनाते हुए न्यायाधीश रितेश सिंह ने कहा कि दिल्ली पुलिस इस मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी नहीं जुटा पाई है. कोर्ट ने यह भी कहा कि जिस तारिक़ अहमद डार को 10 साल की सज़ा सुनाई जा रही है, उसका दिल्ली सीरियल धमाकों से कोई लेना देना नहीं है.
डार के अलावा मुहम्मद रफीक़ शाह और मुहम्मद हुसैन फ़ज़ली के भी ख़िलाफ स्पेशल सेल कोई गवाह या सबूत नहीं पेश कर पाई. फ़ज़ली के वकील ने फैसला आने के बाद कैच न्यूज़ से कहा कि यह ऐसा मामला था जिसमें ट्रायल भी नहीं होना चाहिए था लेकिन मामला 11 साल तक खिंच गया. बहरहाल, हिंदी और अंग्रेज़ी के अख़बारों ने हमेशा की तरह इस केस में सतही रिपोर्टिंग की. दैनिक जागरण ने झूठे तथ्य लिखे और दैनिक भास्कर ने भड़काउ ख़बर छापी है.
हिंदी और अंग्रेज़ी के पांच बड़े अख़बारों में पूरी तरह बेगुनाह क़रार दिए गए दो कश्मीरी नौजवानों के लिए संवेदना की एक लाइन तक नहीं है. उन्हें ग़लत तरीक़े से फंसाने हुए दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाना तो दूर की बात है.
न्यायधीश रितेश सिंह ने 140 पन्ने के अपने फ़ैसले में साफ़ कहा है कि दिल्ली सीरियल धमाकों से तारिक़ अहमद डार का कोई लेना-देना नहीं है. उन्हें 10 साल की सज़ा इसलिए हुई क्योंकि वह लश्करे तैयबा के संपर्क में थे. मगर लश्कर से उनके संबंध और दिल्ली सीरियल धमाकों का आपस में कोई लेना देना नहीं है.
कमोबेश सभी अख़बारों ने लिखा है कि जज रितेश सिंह ने डार को यूएपीए की धारा 38 और 39 के तहत दोषी क़रार देते हुए उन्हें 10 साल की सज़ा सुनाई. मगर ज़्यादातर अख़बारों ने यह लिखना ज़रूरी नहीं समझा कि डार को सज़ा दिल्ली सीरियल धमाकों में शामिल होने के नाते नहीं हुई है. अख़बार दैनिक जागरण ने पाठकों के सामने एक झूठी तस्वीर पेश करते हुए हेडिंग लगाई है. अख़बार का शीर्षक है, ’67 मौतों का एक दोषी और उसकी भी सज़ा हो चुकी पूरी.’ दैनिक जागरण यहां साफ झूठ बोल रहा है क्योंकि डार 67 क्या एक भी मौत के दोषी नहीं हैं.
अदालत ने दिल्ली पुलिस की जिन फर्ज़ी दलीलों को ख़ारिज कर दिया, दैनिक जागरण उसे भी लिखने से नहीं चूका है. अख़बार लिखता है, ‘अभियोजन पक्ष (दिल्ली पुलिस) की मानें तो तारिक ने आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के साथ मिलकर सीरियल बम ब्लास्ट की साजिश रची थी. अभियोजन पक्ष के अनुसार, तारिक ने आतंकी अबू उजेफा, अबू अल कामा, राशिद, शाजिद अली व जाहिद के साथ मिलकर दिल्ली में सीरियल बम ब्लास्ट करने की साजिश रची थी. तारिक को छोड़कर अन्य सभी दिल्ली पुलिस के हाथ नहीं चढ़े.’
अख़बार ने एक झूठ यह भी लिखा है कि तीनों को कमज़ोर सुबूत के चलते बरी किया गया जबकि वकील सुशील बजाज के मुताबिक यह केस ट्रायल होने लायक भी नहीं था क्योंकि पुलिस इसमें एक भी गवाह या सबूत नहीं जुटा पाई.
दूसरे बड़े अख़बार दैनिक भास्कर ने भी पाठकों के सामने झूठा शीर्षक दिया है, ’12 साल बाद फैसला, 2 आरोपी बरी, एक दोषी 11 साल से जेल में है, वह भी रिहा होगा.’ यहां फिर से स्पष्ट करना ज़रूरी है कि तारिक़ को दिल्ली सीरियल धमाकों में दोषी नहीं पाया गया है.
दैनिक भास्कर ने एक भड़काऊ बॉक्स भी लगाया है. इसका शीर्षक है, ‘सबूतों के अभाव में बरी आरोपी, हंसते हुए अदालत से निकले.’ अख़बार लिखता है, ‘इस फैसले से पीड़ित परिवार मायूस हैं. आरोपियों को सज़ा-ए-मौत की उम्मीद में सुबह से कोर्ट के फैसले पर टकटकी लगाए थे लेकिन इनकी ही आंखों के आगे से आरोपी हंसते हुए निकले.’ अख़बार यहां बेहद शातिर तरीक़े से यह स्थापित करने की कोशिश कर रहा है कि बरी हुए कश्मीरी नौजवान मृतकों को चिढ़ाते हुए निकले.
होना तो यह चाहिए था कि अख़बार दिल्ली पुलिस की जांच पर सवाल उठाता. यह पूछता कि कहीं पुलिस की सतही जांच की वजह से बेकसूर नौजवानों के 11 साल तो बर्बाद नहीं हुए?
नवभारत टाइम्स अख़बार ने भी ग़लत तरीक़े से ख़बर छापी है. इसने लिखा है कि पुख़्ता सबूत नहीं मिलने पर 2 आरोपी बरी जबकि हक़ीक़त यह है कि पुलिस हल्का-फुल्का सबूत भी नहीं जुटा पाई थी. नवभारत ने भी जिस तरह ख़बर लिखा है, उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि तारिक़ डार को दिल्ली सीरियल धमाकों में सज़ा सुनाई गई है.
हिन्दुस्तान अख़बार ऊपर के तीनों अख़बारों से ज़्यादा संतुलित है. अख़बार ने साफ़-साफ़ शीर्षक दिया है, ‘दिल्ली सीरियल ब्लास्ट: धमाकों के आरोप से तीनों बरी.’ सिर्फ़ हिन्दुस्तान ने अपनी ख़बर में यह साफ़ किया है कि डार का इन धमाकों से कोई लेना देना नहीं था.
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे पहले पन्ने की पहली ख़बर बनाया है. आमिर ख़ान की बायलाइन से छपी ख़बर में TOI सबसे आगे चला गया है. जहां कोर्ट को डार का दिल्ली धमाकों से कोई जुड़ाव नहीं मिला, वहीं TOI ने उसे मास्टरमाइंड लिखा है.
इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर डार के बारे में थोड़ी संतुलित ख़बर लगाते हुए यह साफ किया है कि धमाकों में उनकी भूमिका साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिले. मगर पेज संख्या 4 पर आलोक सिंह की बायलाइन से छपी ख़बर में एक बार फिर स्पेशल सेल की उसी कहानी को दोबारा छापा गया है जो उसने 2005 में इनकी गिरफ़्तारी के वक्त किया था और जिसे अदालत खारिज करते हुए सेल को फटकार चुकी है. TOI के उलट एक्सप्रेस ने पुलिस के हवाले से लिखा है कि डार मुख्य नहीं बल्कि चार में से एक षडयंत्रकारी था.
(लेखक युवा पत्रकार हैं।)