राम मंदिर और सांप्रदायिक गोलबंदी के मुद्दे क्‍या भाजपा को वोट दिलाने में सक्षम हैं?



गणपत तेली

चुनावों का मौसम आते ही हिन्दू-मुसलमान का खेल एक बार फिर जोर-शोर से शुरू हो गया है। वैसे 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद यह रोजमर्रा की बात हो गई है, लेकिन फिर भी जब-जब चुनाव आते हैं, यह खेल और जहरीला हो जाता है। अभी चल रहे विधानसभा चुनावों में ही राम मंदिर का मुद्दा फिर से उछाल दिया गया है और इसके अगले लोकसभा चुनावों तक जारी रहने की आशंका है। जाहिर सी बात है कि इसमें सत्ताधारी दल की भूमिका है, जिसके छोटे-बड़े नेता सांप्रदायिक गोलबंदी और उन्माद फैलाने वाली घटनाओं में शामिल रहते हैं।

भारतीय जनता पार्टी मुख्यधारा की संभवत: एक मात्र ऐसी पार्टी है, जिसके गठन के पीछे बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय के हित थे, जिन्हें हिन्दुत्त्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में परिभाषित किया गया। यदि दूसरी पार्टियों की तरफ देखें, तो कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन के पीछे उपनिवेशवाद विरोधी और मजदूर-किसानों के आंदोलन रहे, कांग्रेस की भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, जनता दल के कई धड़े आपातकाल विरोधी राजनीति से पैदा हुए, बहुजन समाजवादी पार्टी जातिगत शोषण के खिलाफ बनी लेकिन भाजपा के निर्माण के पीछे हिन्दू बहुसंख्यक हित और अल्पसंख्यक विरोध जैसे मुद्दें रहे। आर.एस.एस., विहिप के पुराने दौर और जन संघ के जमाने के राजनीतिक लक्ष्य ही भाजपा के लक्ष्य है। भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्त्व वाले उसी संघ परिवार की सदस्या है, जिसमें बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद जैसे कई संगठन हैं, जो खुले रूप से सांप्रदायिक राजनीति करते हैं। भाजपा राजनीतिक क्षेत्र में हिन्दुत्त्व को ही अपना दर्शन मानती रही है। भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन के जरिए हिन्दुत्त्व की गोलबंदी की, उनके चुनावी घोषणापत्रों में स्पष्ट रूप से राम मंदिर, धारा ३७०, समान नागरिक संहिता के मुद्दे रहे हैं। इन सबके अलावा भी भाजपानीत राजनीति हमेशा हिन्दुत्त्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद केन्द्रित रही है।

पिछली शताब्दी के आखिरी वर्षों में जब भाजपा को सरकार बनाने के लिए गठबंधन की जरूरत थी, गठबंधन के लिए उसे हिन्दुत्त्ववादी मुद्दें छोड़ने पड़े। फिर भी भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार ने यह उम्मीद की कि आने वाले चुनावों में उसे स्पष्ट बहुमत मिलेगा। पार्टी की केन्द्र और राज्य सरकारें हिन्दुत्त्व की राह पर चलती रही, जिसमें गुजरात के दंगे भी शामिल हैं। लेकिन हुआ उसका उल्टा। 2003 के आखिर में विधानसभा चुनावों में मिली जीत की नाव पर सवार भाजपा 2004 के लोकसभा चुनावों में डूब गई। ‘इंडिया शाइनिंग’, ’भारत उदय’ आदि के परिणामस्वरूप भाजपा की लोकसभा में सीटें 182 घटकर 138 रह गई। 2009 में अगले लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा ने कट्टर हिन्दुत्त्व की छवि वाले लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीद्वार बनाया। लेकिन हिन्दुत्त्व का कार्ड चला नहीं और लोकसभा में भाजपा की सीटें और घटकर 116 रह गई।

इस पूरे घटनाक्रम का आशय यह है कि 1996 से चुनावों में भाजपा को मिल रही बढ़त हिन्दुत्त्व के कारण नहीं थी, बल्कि वह कांग्रेस विरोधी रुझान का नतीजा था। यदि हिन्दुत्त्व भाजपा को जीत दिला सकता तो 2004 में उसे हारना नहीं पड़ता बल्कि उसकी और ज्यादा सीटें आतीं या 2009 में कट्टर हिन्दुत्त्ववादी आडवाणी के नेतृत्त्व को 22 सीटें और नहीं खोनी पड़ती जबकि भाजपा को एन्टी-इंकम्बेंसी का भी सामना नहीं करना पड़ रहा था।

2009 के बाद का घटनाक्रम इस मत को और पुख्ता करता है।

चुनावों के बाद कुछ वर्षों तक भाजपा बिखरी रही। नेताओं में गुटबाजी और खेमेबाजी होती रही, नेता विवादों में फंसते रहे, लेकिन संघ ने 2014 के चुनावों के लिए आडवानी से भी कट्टर और विवादित छवि वाले गुजरात सूबे के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीद्वार घोषित किया। मोदी की छवि सांप्रदायिक रही है। वे गुजरात दंगों में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम रहे थे, उनके मंत्री दंगों के मामलों में सजा पा रहे हैं और यह भी न्यायालयों में विचाराधीन है कि क्या उनकी कोई सीधी भूमिका रही थी, साथ ही आर.बी. श्री कुमार, संजीव भट्ट जैसे पुलिस अधिकारियों ने भी उन पर आरोप लगाये हैं। गुजरात के दंगों और उसके बाद की विभिन्न रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने मुसलमानों के लिए जो घृणास्पद और भड़काऊ भाषा इस्तेमाल की, उसके सबूत फाइनल सोल्युशन जैसी फिल्मों, तहलका के स्टिंग आदि जगह हैं। उन्हें ही गुजरात को हिन्दुत्त्व की प्रयोगशाला बनाने का श्रेय दिया गया था।

इन सब के बावजूद यह बहुत दिलचस्प था कि गुजरात के मुख्यमंत्री ने 2014 के आम चुनावों के प्रचार में अपनी उसी छवि और पहचान को छोड़ना चाहा। 2002 में जो हिन्दुत्त्व की प्रयोगशाला थी, एक दशक बाद उसे विकास के मॉडल के रूप में पेश किया जाने लगा। उन चुनावों में यह सुखद आश्चर्य था कि भाजपा हर बार की तरह हिन्दुत्त्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, राम मंदिर, हिन्दू हित, तुष्टिकरण, भारतीय संस्कृति जैसे जुमले नहीं उछाल रही थी; कांग्रेस सरकार पर हिन्दू हितों की अनदेखी का आरोप नहीं लगा रही थी। इसके विपरीत गुजरात को विकास का मॉडल बताते हुए भाजपा ‘सौ रोगों का एक इलाज’ तर्ज पर मोदी को पेश कर रही थी। सांप्रदायिक राजनीति उस समय पृष्ठभूमि में रख दी गई थी।

यह सब प्रक्रिया इस बात की ओर् इंगित करती है कि हिन्दुत्त्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जिस संकीर्ण राजनीति के आधार पर भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी का आगमन हुआ वह राजनीति भारतीय समाज में स्वीकार्य नहीं हुई, उसे मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया, जिसका प्रमुख कारण पिछड़ी और दलित जातियों में आई चेतना था। प्राय: भारतीय जनता पार्टी को मिलने वाली जीत भी हिन्दुत्त्व या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जीत न होकर विकल्पहीनता या स्थानीय नेतृत्व के कारण मिली जीत होती है। 2014 के चुनावों से पहले भारतीय जनता पार्टी ने इस बात से सबक लेते हुए सांप्रदायिक मुद्दों को पृष्ठभूमि में रखकर ‘विकास’ को चुनाव का मुद्दा बनाया और पूंजीपतियों के साथ से सत्ता हासिल की।

प्रसंगवश, यहाँ पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का वह अहंकार भरा जमाना याद आता है, जब संघ परिवार के लोग मार्क्सवादियों से तुलना करते हुए कहा करते थे कि इस देश में वामपंथ और हमने एक दौर में राजनीति शुरू की थी, हम आज सत्ता में है, लेकिन वो कहीं नहीं है। लगभग एक दशक के बाद उन्हें यह जवाब मिल गया कि उनकी हिन्दुत्त्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारणाएँ अब कहीं नहीं है, उन्हें चुनाव जीतने के लिए इनसे किनारा करना पड़ा। वाम और दक्षिण की तुलना में महत्त्वपूर्ण बात् यह है कि मौटे तौर पर वाम आज भी अपने लक्षित उद्देश्यों पर कायम है, लेकिन भाजपा दिखावे के लिए उन धारणाओं से खुद ही दूरी बनाती है, जिनके आधार पर पार्टी बनाई थी।

दूसरे शब्दों में, भारतीय जनता पार्टी भारतीय समाज में वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से सफल नहीं हुई है। 2014 के आम चुनावों के लिए उसकी रणनीति ने भी यही इंगित किया।

इन सबके बावजूद, ऐसा नहीं था कि अपने मूल चरित्र में भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिक नहीं रहकर अब बदल गई थी। भाजपा ने सिर्फ अपनी रणनीति बदली थी, भाजपा की वेबसाइट के अनुसार अभी भी इसका दार्शनिक आधार हिन्दुत्त्व और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद था। 2014 के आम चुनावों को जीतने के बाद विकास की बात पृष्ठभूमि में चली गई और सांप्रदायिकता का खुला खेल फिर से शुरू हो गया। समाज में नफरत फैलाने, अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों) के खिलाफ जहर उगलने, सेकुलर-बुद्धिजीवियों पर मुकदमे-हमले से बात आगे बढ़कर हत्याओं तक पहुंच गई। गौरक्षा के नाम पर उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान आदि में कई मुसलमानों को मार दिया गया और कई बुद्धिजीवियों की इस नफरत की राजनीति के विरोध के कारण हत्या की गई।

जिस राममंदिर आंदोलन के कारण तीन दशक पहले सांप्रदायिकता का दोबारा उभार हुआ, उसी राममंदिर के लिए आरएसएस और भाजपा ने फिर से कवायद शुरू कर दी। आर्थिक मोर्चे पर विफल होने के बाद भाजपा को फिर उसी पुराने रास्ते पर चलने लगी है। सवाल यह है कि इतिहास बताता है कि सांप्रदायिक गोलबंदी भाजपा को सत्ता तक नहीं पहुंचा सकी और 2014 में सांप्रदायिकता की जगह विकास के नाम पर ही वह बहुमत पा सकी (क्योंकि इसी बदले रूप के कारण कई लोगों ने उसे वोट दिया था) तो ऐसे में फिर हिंदू-मुसलमान की राजनीति के जरिए भाजपा क्या हासिल करना चाहती है?

यह सच है कि 2014 में चाहे चुनाव-प्रचार के केन्द्र में आर्थिक और विकास के मुद्दे रहे हों लेकिन संघ परिवार के लोगों हिंदुत्त्व कभी पृष्ठभूमि में नहीं गया इसलिए सरकार बनने के बाद उन्हें कोई डर नहीं रहा और वे सरेआम सांप्रदायिक घटनाओं को अंजाम देने लगे। इन घटनाओं से वे सभी फ्लोटिंग मतदाता भाजपा से दूर होने लगे जिन्हें भाजपा 2014 में असांप्रदायिक लगी थी।

दो-तीन दशकों में जमाना बहुत बदल गया है। उन दिनों राममंदिर के नाम पर हज़ारों लोग उन्माद के शिकार हो गए लेकिन इस बार न तो अयोध्या के जमावड़े से बात जमी और न ही राम रथ यात्रा में लोग जुट रहे हैं।

यह संकेत हैं कि अभी आम लोग सांप्रदायिक गोलबंदी के झांसे में नहीं आ रहे हैं, ऐसे में संघ परिवार को चुनावी फसल काटने के लिए राम मंदिर और सांप्रदायिक गोलबंदी के और ज्यादा प्रयास करेगा एवं आने वाले दिनों में यह जहर और फैलेगा। आरएसएस को इससे कुछ फायदा मिला तो ठीक बात है नहीं तो अपने मूल मुद्दे पर लौटकर निर्धारित वोटबैंक तो सुरक्षित कर ही लेगा।


लेखक जामिया मिलिया के हिंदी विभाग में असिस्‍टेंट प्रोफेसर हैं