अनिल जैन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर आपातकाल याद करते हुए कांग्रेस को कोसा है। उन्होंने कांग्रेस को अलोकतांत्रिक मिजाज वाली पार्टी बताते हुंए देशवासियों को उससे सचेत रहने को कहा है। उनके सिपहसालार और बिना जिम्मेदारी वाले मंत्री अरुण जेटली ने तो आपातकाल को याद करने बहाने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तुलना हिटलर से कर डाली। चार दशक पुराने आपातकाल के काले कालखंड को हर साल 25-26 जून को याद किया जाता है, लेकिन पिछले चार वर्षों से उस दौर को बहुत ज्यादा याद किया जा रहा है। सिर्फ सालगिरह पर ही नहीं बल्कि लगभग हर रोज याद किया जाता है। आपातकाल के बाद चार दशकों के दौरान देश में सात गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनमें से दो-तीन के अलावा शेष सभी आपातकाल के दौरान पूरे समय जेल में रहे थे, लेकिन उनमें से किसी ने कभी भी आपातकाल को इतना ज्यादा और इतने कर्कश तरीके से याद नहीं किया, जितना कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं।
राजनीतिक विमर्श में आपातकाल मोदी का प्रिय विषय रहता है, इसलिए वे आपातकाल को सिर्फ 25-26 जून को ही नहीं बल्कि अक्सर याद करते रहते हैं। यह और बात है कि मोदी आपातकाल के दौरान एक दिन के लिए भी जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं ले जाए गए थे। जेल के बाहर भूमिगत रहकर उन्होंने आपातकाल विरोधी संघर्ष में कोई हिस्सेदारी की हो, इसकी भी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती। जबकि उस दौरान भूमिगत रहे जार्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गजों के अलावा समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम और द हिंदू अखबार के तत्कालीन प्रबंध संपादक सीजीके रेड्डी जैसे कम मशहूर लोगों की गतिविधियां भी जगजाहिर हो चुकी हैं।
आपातकाल के दौरान भूमिगत रहे विपक्षी राजनीतिक कर्मियों की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी हुए थे लेकिन मोदी की गिरफ्तारी का कोई वारंट भी रिकॉर्ड पर नहीं है। आपातकाल लागू होने से पहले गुजरात में छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार से शुरू हुए जेपी आंदोलन के संदर्भ में भी मोदी के समकालीन शरद यादव, अरुण जेटली, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद, सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी, मुख्तार अनीस, मोहन प्रकाश, चंचल, गुजरात के प्रकाश बह्मभट्ट, हरिन पाठक, नलिन भट्ट आदि नेताओं के नाम चर्चा में रहते हैं, लेकिन इनमें मोदी का नाम कहीं नहीं आता। कहा जा सकता है कि मोदी संघ और जनसंघ के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में आपातकाल के एक सामान्य दर्शक रहे हैं।
एक राजनीतिक कार्यकर्ता होते हुए भी आपातकाल से अछूते रहने के बावजूद अगर मोदी मौके-बेमौके आपातकाल को चीख-चीख कर याद करते हुए कांग्रेस को कोसते हैं तो इसकी वजह उनका अपना ‘आपातकालीन’ अपराधबोध ही हो सकता है कि वे आपातकाल के दौर में कोई सक्रिय भूमिका निभाते हुए जेल क्यों नहीं जा सके! आपातकाल के नाम पर उनकी चीख-चिल्लाहट को उनकी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी नाकामियों को छुपाने की कोशिश के रुप में भी देखा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि मोदी कांग्रेस को कोसने के लिए गाहे-बगाहे आपातकाल का जिक्र अपने उन कार्यों पर नैतिकता का पर्दा डालना चाहिते हैं जिनकी तुलना आपातकालीन कारनामों से की जाती है। मसलन संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सतर्कता आयोग, सूचना आयोग, रिजर्व बैंक जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का अपहरण।
प्रधानमंत्री की देखादेखी उनके कई मंत्री और भाजपा के नेता तथा प्रवक्ता भी अपने राजनीतिक विरोधियों पर हमले के लिए आपातकाल को ही हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इसका नजारा टीवी चैनलों पर रोजाना होने वाली निरर्थक बहसों में भी देखने को मिलता है। कोई भी मुद्दा हो, जब भाजपा प्रवक्ताओं के पास कहने को कुछ नहीं होता है तो वे आपातकाल का जिक्र करने लगते हैं। उनके फिक्स और सधे हुए डायलॉग होते हैं- ‘ऐसा तो आपातकाल में भी होता था, तब आप कहां थे’, ‘हम पर अंगुली उठाने से पहले जरा आपातकाल को याद कर लीजिए’, ‘जिन्होंने देश पर आपातकाल थोपा था, वे हमें लोकतंत्र का पाठ न पढाएं’ आदि-इत्यादि।
आपातकाल की 43वीं सालगिरह के मौके का इस्तेमाल भी प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में कांग्रेस को कोसने और अपनी पीठ थपथपाने के लिए किया। मुंबई में भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच बोलते हुए उन्होंने जो कुछ कहा, उसमें नया कुछ भी नहीं है। आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, प्रेस सेंसरशिप, न्यायपालिका का दुरुपयोग आदि वही सारे मुद्दे थे, जो वे पिछले चार साल के दौरान संसद में, संसद के बाहर सरकारी-गैर सरकारी कार्यक्रमों में और यहां तक कि विदेशी धरती पर भी अक्सर उठाते रहे हैं।
आपातकाल के जिक्र वाले मोदी के तमाम भाषण हों या उनकी पार्टी के नेताओं-प्रवक्ताओं के कुतर्की बयान, सबसे ध्वनि यही निकलती है कि हमारी सरकार जो कर रही है उसमें कुछ गलत नहीं है और ऐसा तो कांग्रेस के शासनकाल में भी होता रहा है।
मुंबई में मोदी ने कहा कि 25 जून की तारीख भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का काला दिन है और इसे हमेशा याद रखा जाना चाहिए। उनकी इस बात से कौन इनकार कर सकता है! बेशक आपातकाल को हमेशा याद रखा जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि जिस ‘तानाशाह’ इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था, उसी इंदिरा गांधी ने चुनाव भी कराए थे, जिसमें वे और उनकी पार्टी बुरी तरह पराजित हुई थीं। जिस जनता ने इंदिरा गांधी को आपातकाल के लिए यह निर्मम लोकतांत्रिक सजा दी थी उसी जनता ने तीन साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत के साथ जिता दिया। इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं। जाहिर है कि देश की जनता ने इंदिरा गांधी को लोकतंत्र से खिलवाड़ करने के उनके गंभीर अपराध के लिए माफ कर दिया था, हालांकि इस माफी का यह आशय कतई नहीं था कि जनता ने आपातकाल को और उसके नाम पर हुए सभी कृत्यों को जायज मान लिया था।
निस्संदेह आपातकाल हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का ऐसा काला अध्याय है जिसे कोई मोदी, कोई अमित शाह या कोई अरुण जेटली याद दिलाए या न दिलाए, देश के लोगों के जेहन में हमेशा बना रहेगा। लेकिन आपातकाल को याद रखना ही काफी नहीं है, बल्कि इससे भी ज्यादा ज़रूरी इस बात के लिए सतर्कता बरतना है कि कोई भी हुकूमत आपातकाल को किसी भी रूप में दोहराने का दुस्साहस न कर सके।
सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का ख़तरा अब भी बना हुआ है या किसी नए आवरण में आपातकाल आ चुका है और भारतीय जनमानस उस खतरे के प्रति सचेत है?
तीन साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में आडवाणी ने देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकती।
बकौल आडवाणी, ‘भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।’
आडवाणी का यह बयान यद्यपि तीन वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता तीन वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस की जा सकती है। आडवाणी ने अपने इस पूरे वक्तव्य में आपातकाल के खतरे के संदर्भ में किसी पार्टी अथवा व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया था, मगर इस समय चूंकि केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश प्रमुख राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं और नरेंद्र मोदी सत्ता के केंद्र में हैं, लिहाजा जाहिर है कि आडवाणी की टिप्पणी का परोक्ष इशारा मोदी की ओर ही था।
आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।
केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारूढ भाजपा के भीतर भी हाल के वर्षों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमटी हुई हैं। आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो अमित शाह, रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फडनवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। वैसे इस सिलसिले की शुरुआत बतौर केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू ने की थी, जो अब उपराष्ट्रपति बनाए जा चुके हैं।
बात नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की ही नहीं है, बल्कि आजादी के बाद भारतीय राजनीति की ही यह बुनियादी समस्या रही है कि वह हमेशा से व्यक्ति केंद्रित रही है। हमारे यहां संस्थाओं, उनकी निष्ठा और स्वायत्तता को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना महत्व करिश्माई नेताओं को दिया जाता है। इससे न सिर्फ राज्यतंत्र के विभिन्न उपकरणों, दलीय प्रणालियों, संसद, प्रशासन, पुलिस, और न्यायिक संस्थाओं की प्रभावशीलता का तेजी से पतन हुआ है, बल्कि राजनीतिक स्वेच्छाचारिता और गैर-जरूरी दखलंदाजी में भी बढ़ोतरी हुई है।
यह स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है। आज देश में लोकतंत्र का पहरुआ कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ़ दल से नहीं बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही हैं। यही नहीं, कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने तो अभूतपूर्व कदम उठाते हुए न्यायपालिका के इस सूरत-ए-हाल को प्रेस कांफ्रेन्स के माध्यम से भी बयान किया था।
जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं- बड़े कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को लगभग जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है। सरकार की ओर से मीडिया को दो तरह से साधा जा रहा है- उसके मुंह में विज्ञापन ठूंस कर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिये उसकी गर्दन मरोड़ने का डर दिखाकर। इस सबके चलते सरकारी और गैर-सरकारी मीडिया का भेद लगभग खत्म-सा हो गया है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार और सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किल भरी चुनौतियों से जूझना पड़ता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है।
आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है। आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। संसद को अप्रासंगिक बना देने की कोशिशें जारी हैं। असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं। आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तानपरस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है। आपातकाल में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडा पर अमल किया जा रहा है। इस एजेंडा के तहत दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह ज़रूरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है और काफी हद तक हो भी रहा है, जिस पर पर्दा डालने के प्रधानमंत्री मोदी जब-तब चार दशक पीछे लौटकर ‘कांग्रेस के आपातकाल’ को उठा लाते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं