मेधा पाटकर/ संदीप पाण्डेय
महान प्रोफेसर गुरू दास अग्रवाल जो बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से दो वर्षों में पीएच.डी. करने के बाद विख्यात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में सीधे लेक्चरर से प्रोफेसर प्रोन्नत किए गए थे और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पहले सदस्य-सचिव के रूप में उन्होंने भारत में प्रदूषण नियंत्रण हेतु कई महत्वपूर्ण मानक तय किए, अंत में अपनी सरकार को गंगा को पुनर्जीवित करने के अपने आग्रह को न समझा पाए जिसकी कीमत उन्हें अपनी जान गवां कर देनी पड़ी। हरिद्वार में 112 दिनों तक सिर्फ नींबू पानी और शहद पर आमरण अनशन करने के पश्चात, जिसमें से आखिरी के तीन दिन निराजल रहे, 11 अक्टूबर, 2018, को ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में ह्यदय की गति रूक जाने से उनका प्राणांत हो गया।
यह अचरज का विषय है कि हिन्दुत्व के मुद्दे पर चुनाव जीत कर आई सरकार ने एक साधू, जो वे 79 वर्ष की अवस्था में 2011 में बन गए थे, की बात गंगा जैसे परिस्थितिकीय व धार्मिक विषय, जो नरेन्द्र मोदी के वाराणसी चुनाव प्रचार के समय केन्द्र में था, पर क्यों नहीं सुनी? प्रोफेसर अग्रवाल जो अब स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से मश्हूर थे ने एक राष्ट्रीय नदी गंगा जी (संरक्षण एवं प्रबंधन) अधिनियम, 2012 का मसौदा तैयार किया था। सरकार ने भी एक राष्ट्रीय नदी गंगा (संरक्षण, सुरक्षा एवं प्रबंधन) बिल, 2017, जिसे 2018 में कुछ बदलाव के साथ पुनः लाया गया, तैयार किया। स्वामी सानंद व सरकार के मसौदों में नजरिए का फर्क है।
अपने 5 अगस्त, 2018 के प्रधान मंत्री को लिखे पत्र में स्वामी सानंद ने कहा है कि मनमोहन सिंह की सरकार के समय राष्ट्रीय पर्यावरणीय अपील प्राधिकरण ने उनके कहने पर लोहारी नागपाला पन बिजली परियोजना, जिसपर कुछ काम हो चुका था, को रद्द किया और भागीरथी नदी की गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक की सौ किलोमीटर से ज्यादा लम्बाई को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया, जिसका अर्थ है कि अब वहां कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता, लेकिन वर्तमान सरकार ने पिछले साढे़ चार सालों में कुछ भी नहीं किया है। उन्होंने अनशन शुरू करने से पहले प्रधान मंत्री को जिन चार मांगों से अवगत कराया था उन्हें दोहरायाः (1) स्वामी सानंद, एडवोकेट एम.सी. मेहता व परितोष त्यागी द्वारा तैयार गंगा के संरक्षण हेतु मसौदे को संसद में पारित करा कानून बनाया जाए, (2) अलकनंदा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर व मंदाकिनी, छह में से वे पांच धाराएं जिन्हें मिलाकर गंगा बनती है, छठी भागीरथी पर पहले से ही रोक है, व गंगा एवं गंगा की सहायक नदियों पर निर्माणाधीन व प्रस्तावित सभी पनबिजली परियोजनाओं को निरस्त किया जाए, (3) गंगा क्षेत्र में वन कटान व किसी भी प्रकार के खनन पर पूर्णतया रोक लगाई जाए, (4) गंगा भक्त परिषद का गठन हो जो गंगा के हित में काम करेगी। किंतु प्रधान मंत्री की ओर से स्वामी सानंद की मृत्यु तक कोई जवाब नहीं आया। जबकि 2013 में उनका पांचवां अनशन तब खत्म हुआ जब तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर आश्वासन दिया था कि नरेन्द्र मोदी की दिल्ली में सरकार बनने के बाद उनकी गंगा सम्बंधित सारी मांगें मान ली जाएंगी।
स्वामी सानंद गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में घोषित करवाना चाहते थे। गंगा के संरक्षण हेतु उनका मुख्य जोर इस बात पर था कि गंगा को उसके नैसर्गिक, विशुद्ध, अबाधित स्वरूप में बहने दिया जाए जिसे उन्होंने अविरल की परिभाषा दी थी व उसका पानी अप्रदूषित रहे जिसे उन्होंने निर्मल की परिभाषा दी। वे गंगा में शहरों का गंदा पानी या औद्योगिक कचरे को गंदा या साफ किसी भी तरह से डालने के खिलाफ थे। उन्होंने गंगा किनारे ठोस अपशिष्ट को जलाने, कोई ऐसी इकाई लगाने जिससे प्रदूषण होता हो, वन कटान, अवैध पत्थर व बालू खनन, रिवर फ्रंट बनाने या कोई रसायनिक, जहरीले पदार्थ के प्रयोग पर प्रतिबंध की मांग की थी। असल में किसी भी नदी को बचाने के लिए ये आवश्यक मांगें हैं। महत्वापूर्ण बात यह है कि प्रोफेसर जी.डी. अग्रावाल की यह समझ उ.प्र. राज्य सिंचाई विभाग के लिए रिहंद बांध पर एक अभियंता के रूप में काम करते हुए बनी, जिसके बाद उन्होंने उ.प्र. सरकार की नौकरी छोड़ दी।
एक सही वैज्ञानिक होने का परिचय देते हुए उन्होंने अविरल की ठीक-ठीक परिभाषा दी – नदी की लम्बाई में सभी स्थानों, यहां तक कि कोई बांध है तो उसके बाद भी, और सभी समय न्यूनतम प्राकृतिक या पर्यावरणीय या परिस्थितिकीय प्रवाह जिसमें निरंतर वायुमण्डल से व भूमि से तीनों तरफ, तली व दोनों तटों, से सम्पर्क के साथ साथ अबाध प्रवाह बना रहे। उनका मानना था कि गंगा के विशेष गुण, सड़न मुक्त, प्रदूषण नाशक, रोग नाशक, स्वास्थ्य वर्धक तभी संरक्षित रहेंगे जब गंगा का अविरल प्रवाह बना रहेगा। इसी तरह निर्मल का मतलब सिर्फ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा तय किए गए मानकों के अनुरूप अथवा आर.ओ. या यू.वी. का पानी नहीं है। गंगा में स्वयं को साफ करने की शक्ति है जिसकी वजह उसके पानी में बैक्टीरिया मारने वाले जीवाणु, मानव शौच को पचाने वाले जीवाणु, नदी किनारे पेड़ों से प्राप्त पॉलीमर तत्व, भारी धातु एवं रेडियोधर्मी तत्व, अति सूक्ष्म गाद, आदि की मौजूदगी है। कुल मिला कर गंगा के ऊपरी हिस्से की चट्टानें, साद, वनस्पति जिसमें औषधीय पौघे भी शामिल हैं, यानी परिस्थितिकी, के कारण गंगा में निर्मल होने का विशेष गुण है। स्वामी सानंद का इस बात पर पूरा भरोसा था कि गंगा का संरक्षण तभी हो सकता है जब गंगा को निर्मल व अविरल बनाए रखा जाए।
जल संसाधन, नदी घाटी विकास व गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि उन्हें निर्मल की अवधारणा तो समझ में आती है लेकिन अविरल की नहीं। क्योंकि यदि वे स्वामी सानंद की गंगा को अविरल बनाने की बात मान लेंगे तो नदी पर बांध कैसे बनवाएंगे? एक दूसरी बात शासक दल भजपा से सुनने को यह मिली है कि उन्हें न तो देश से मतलब है, न धर्म से और न ही लोगों से, उन्हें तो सिर्फ विकास करना है। विकास यानी ऐसा जिसमें पैसा कमीशन के रूप में वापस आता हो ताकि अगले चुनाव का खर्च निकाला जा सके। स्वामी सानंद गंगा के व्यवसायिक दोहन के सख्त खिलाफ थे। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक के एक वरिष्ठ सज्जन, जो स्वामी सानंद के मामले में मध्यस्थता के लिए तैयार हुए, का कहना था कि सिद्धांततः तो वे स्वामी सानंद की बातों को अक्षरशः मानते हैं किंतु सरकार चलाने की अपनी मजबूरियां होती हैं। स्वामी सानंद के साथ साथ गंगा का भी भविष्य उसी समय अंधकारमय हो गया था। दूसरी नदी घाटियों, जिनपर लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन व आजीविका निर्भर हैं, पर भी यह खतरा मंडरा रहा है।
स्वामी सानंद ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के समय भी पांच बार अनशन किया था। किंतु एक बार भी उनके जीवन के लिए संकट नहीं उत्पन्न हुआ। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार में एक बार ही अनशन करना उनके लिए जानलेवा बन गया। इससे यह भी स्पष्ट है कि विकास की प्रचलित अवधारणा सामाजिक-सांस्कृतिक विचारधारा, जिसमें धर्म शामिल है, या पर्यावरणीय चितंन, भले ही प्रधान मंत्री को संयुक्त राष्ट्र ने पुरस्कार दिया हो, के प्रति संवेदनशील नहीं है और वर्तमान सरकार तो कॉर्पोरेट जगत के ज्यादा पक्ष में है और कम मानवीय है।
स्वामी सानंद की मौत के लिए सरकार जिम्मेदार है क्योंकि उनकी मांग को मान कर स्वामी सानंद की जान ही नहीं बल्कि गंगा को भी बचाया जा सकता था। किंतु अब स्वामी सानंद हमारे बीच नहीं रहे और इसी तरह एक दिन गंगा भी नहीं रहेंगी। देश की बहुत सारी नदियां सूख चुकी हैं जिसमें साबरमती नदी भी शामिल है। गंगा का भी यही हाल होने वाला है।
स्वामी सानंद के जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसे कैसे भरा जाएगा? देश में कौन है गंगा को बचाने की बात करने वाली दूसरी दमदार आवाज? धार्मिक आस्था वाले कुछ लोगों के लिए स्वामी सानंद तो भागीरथ की तरह थे जिन्होंने अकेले अपने दम पर गंगा का मुद्दा उठाया।
स्वामी सानंद के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उन सरकारों, जो ऐसी विकास की अवधारणा को मानती हैं जिसमें प्रकृति का विनाश अंतर्निहित है, उन कम्पनियों, जो ऐसी सरकारों की भ्रमित करने वाली अवधारणा को जमीन पर उतारती हैं और उन ठेकेदारों, जो प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहे हैं, जिन तीनों का इस विकास में इतना निहित स्वार्थ है कि मनुष्य के प्रति पूरी तरह संवेदनहीन हो जाते हैं, के खिलाफ मोर्चा खोल दें।
गंगा को बचाने की लड़ाई का अभी अंत नहीं हुआ है। मातृ सदन, जिस आश्रम को स्वामी सानंद ने अपना अनशन स्थल चुना था, के प्रमुख स्वामी शिवानंद ने नरेन्द्र मोदी को चेतावनी देते हुए घोषणा की थी कि स्वामी सानंद के बाद वे व उनके शिष्य अनशन की श्रंखला को कायम रखेंगे। स्वामी सानंद के 22 जून, 2018 को अनशन शुरू करने के तुरंत बाद ही एक स्वामी गोपाल दास ने भी अनशन शुरू कर दिया था। 2011 में मातृ सदन के ही नवजवान साधू स्वामी निगमानंद का गंगा में अवैध खनन के खिलाफ अपने अनशन के 115वें दिन प्रणांत हो गया, जिसमें यह आरोप है कि तत्कालीन उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार से मिले हुए एक खनन माफिया ने उनकी हत्या करवाई। विकास के वेदी पर अभी और न जाने कितनी बलियां चढें़गी?
लेखकद्वय मशहूर समाजसेवी और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।