क्या आपने हाल में किसी भारतीय चैनल या अख़बार में म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे भीषण अत्याचार की चर्चा देखी या पढ़ी है। ऐसा क्यों हो रहा है कि जिसे अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया नस्लकुशी तक कह रहा है, उस पर पड़ोस में कोई हलचल नहीं है। हद तो यह है कि यह अत्याचार शांति के ध्वाजावाहक करुणामय भगवान बुद्ध के मानने वाले कर रहे हैं। यह सब उस देश में हो रहा है जहाँ की सबसे बड़ी नेता आंग सान सू की को शाँति का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। ज़ाहिर है, यह सब सामान्य नहीं है। इसका रिश्ता मुसलमानों के प्रति आमतौर पर बढ़ी नफ़रत से है। मुसलमानो को आतंकवादी बताने में मशगूल प्रोजेक्ट इस बात की इजाज़त नहीं देता कि उन्हें पीड़ित के रूप में भी कोई तवज्जो दी जाए। ‘मैन्यूफैक्चरिंग कन्सेंट’ और ‘उत्तर सत्य’ के युग में, तमाम जटिलताओं से मुँह फेर कर चीज़ों को काले-सफेद में देखने की अपनी राजनीति है। इस मसले पर बीबीसी हिंदी के डिजिटल एडिटर राजेश प्रियदर्शी ने अपने ब्लॉग में एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है जिसे हम आभार सहित प्रकाशित कर रहे हैं-
क्या मुसलमानों को रहमदिली की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए !
इन दिनों हक़ और इंसाफ़ की बात करना ख़ासा मुश्किल काम है, ख़ास तौर पर अगर आपकी दलील किसी मुसलमान के पक्ष में जाती हो. मुसलमान ऐसी ‘बहकी-बहकी’ बातें करें तो उन्हें नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, लेकिन अगर कोई हिंदू करे तो उससे निबटना ज़रूरी हो जाता है.
यही वजह है कि मुसलमानों से नफ़रत करने वालों ने जिन्ना को नहीं, गांधी को मारा क्योंकि हिंदू होकर वे जिस इंसाफ़ की बात कर रहे थे, वो कुछ लोगों को मुसलमानों की तरफ़दारी लग रही थी.
ये लेख मुसलमानों की तरफ़दारी में नहीं लिखा जा रहा, लेकिन इस बात की आशंका और अफ़सोस है कि इसे शायद वैसे ही पढ़ा जाएगा.
क्या ‘शेख़ुलर’, वामपंथी और मुसलमान-परस्त होने के आरोपों के डर से इंसाफ़-पसंद लोग लिखना-बोलना बंद कर दें? ऐसे लोगों की तादाद काफ़ी है जो दुनिया के किसी भी कोने में हुई हिंसा का हिसाब-किताब किसी भी मुसलमान से करने पर उतारू हैं.
इराक़ का हिसाब राजस्थान में, नाइजीरिया का हिसाब झारखंड में माँगा जा सकता है, कश्मीरी मुसलमानों का गुस्सा मेवाती मुसलमानों पर उतारा जा सकता है, और ऐसी हिंसा के पीड़ितों से सहानुभूति रखने वालों को योजनाबद्ध तरीक़े से निंदनीय बना दिया गया है.
अमरीका, यूरोप से लेकर भारत तक, हर जगह मीडिया, सोशल मीडिया और सियासत में जो पटकथा लिखी जा रही है उसके केंद्र में हीरो नहीं, विलेन हैं. इस पटकथा में हीरो कोई भी हो सकता है जो विलेन को मार सके, ये एक हिट फ़ॉर्मूला है.
डोनल्ड ट्रंप के खुलेआम मुसलमान विरोधी बयान और उसके बाद भारत में उनकी जीत के लिए किए गए यज्ञों और हवनों की मंशा छिपी नहीं है. ये यज्ञ ‘देवतुल्य ट्रंप’ की जीत और ‘दानवतुल्य मुसलमानों’ की दुर्दशा के लिए किए जा रहे थे.
क्या मुसलमान कभी पीड़ित नहीं हो सकता ?
बहुत सारे लोग मानने लगे हैं कि इस्लामिक स्टेट , बोको हराम से लेकर तालिबान और लश्कर तक, दुनिया की हर हिंसक गतिविधि के लिए सिर्फ़ मुसलमान ज़िम्मेदार हैं, इसलिए आसान निष्कर्ष ये है कि किसी पीड़ित मुसलमान के प्रति मानवीय सहानुभूति दिखाने का मतलब आतंकवाद का समर्थन करना है.
इन दिनों लोकप्रिय थ्योरी ये है कि मुसलमान हर सूरत में आततायी है या उनका समर्थक है, वह पीड़ित हो ही नहीं सकता; मुसलमानों को पहले सुधरना होगा, उससे पहले उन्हें देश, समाज और क़ानून से इंसाफ़ या रहमदिली की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.
इसी तर्क के तहत कश्मीर में पैलेट गन की मार से अंधे हुए युवाओं के प्रति हमदर्दी जताने वालों को ‘देशद्रोही’ होने का तमगा पहनाया गया, अख़लाकों और जुनैदों की हत्याओं को दुर्घटना समझकर नज़रअंदाज़ करने की सलाह दी गई.
यह एक भयावह स्थिति है जिसमें न्याय, तर्क, विवेक और मानवीय करुणा की जगह नफ़रत, प्रतिशोध, कुप्रचार और क्रूरता ने ले ली है.
चंद लोगों की करनी के लिए 1.6 अरब लोगों में से हर किसी को ज़िम्मेदार ठहराया जाए और जो मुसलमान नहीं हैं उन्हें इसमें नाइंसाफ़ी नज़र आनी बंद हो जाए तो हम वाक़ई बहुत ख़तरनाक दौर में जी रहे हैं.
जाएं तो कहां जाएं रोहिंग्या ?
ऐसे माहौल में जब संयुक्त राष्ट्र रोहिंग्या मुसलमानों को दुनिया की सबसे दयनीय बिरादरी बता रहा है उन्हें शरण देने की बात तो दूर, उनकी पीड़ा की बात करने वाले भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे. हालांकि संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पिछले कुछ दिनों में बांग्लादेश के रुख में बदलाव आया है और उसने कुछ हज़ार रोहिंग्या मुसलमानों को अपने यहां शरण दी है.
अमरीकी और यूरोपीय मीडिया रिपोर्ट कर रहा है कि कैसे हज़ारों-हज़ार रोहिंग्या बर्मा में बिना खाना-पानी के फँसे हैं. ऐसी रिपोर्टें भी हैं कि बर्मा के सैनिक बेकसूर, बेसहारा लोगों की लाशें ठिकाने लगाने में लगे हैं.
बर्मा उन्हें अपना नागरिक मानने को तैयार नहीं है, उनके लिए न बांग्लादेश का रवैय्या भी कुछ दिन पहले तक सहयोग और करुणा का नहीं ही नज़र आता था और न ही दुनिया को शांति, अहिंसा और करुणा का संदेश देने वाले बुद्ध-गांधी के भारत में उन्हें स्वीकारा जा रहा है.
विश्व गुरु बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाला भारत अच्छी तरह जानता है कि दुनिया में ऐसा कोई शक्तिशाली, प्रभावशाली और इज़्ज़तदार देश नहीं है जिसने शरणार्थियों को जगह न दी हो. हालाँकि ये विश्व राजनीति का ट्रंप काल है जिसमें कमज़ोरों के ख़िलाफ़ आग उगलने को मर्दानगी समझा जाने लगा है.
ये सच है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश या सऊदी अरब तक, ज़्यादातर मुस्लिम बहुल देशों ने अपने अल्पसंख्यकों के साथ निंदनीय व्यवहार किया है, लेकिन अमरीका, यूरोप और भारत जैसे देशों में जहाँ धार्मिक और नस्ली अल्पसंख्यक बेहतर जीवन जी रहे थे, वहाँ प्रतिशोध का उन्माद या इस्लाम का डर (इस्लामोफोबिया) कारगर राजनीतिक हथकंडा बन गया है.
भारत भी अपना रहा है दोहरे मापदंड
भारत ने ही श्रीलंका से आए तमिलों, पाकिस्तान-बांग्लादेश से आए हिंदुओं और अफ़ग़ानिस्तान से आए सिखों को पनाह दी है, मगर मुसलमानों को शरण देने के मामले में उसका रवैया उदार नहीं रहा है.
दो साल पहले ही भारत ने बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यकों (हिंदुओं) को दीर्घकालिक वीज़ा देने की घोषणा की है जो वाक़ई एक स्वागतयोग्य क़दम है. लेकिन दूसरी ओर भारत में पनाह लेने वाले रोहिंग्या मुसलमानों को देश से निकालने की बातें हो रही हैं.
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भारत सरकार ने 2015 में हिंदुओं को दीर्घकालिक वीज़ा देते समय कहा था कि ऐसा मानवीय आधार पर किया जा रहा है. क्या अब वो मानवीय आधार ख़त्म हो गया है क्योंकि बर्मा से आ रहे अल्पसंख्यक मुसलमान हैं?
सोशल मीडिया पर जो लोग रोहिंग्या मुसलमानों को देश से निकालने की माँग कर रहे हैं उनका कहना है कि ये लोग पाकिस्तान क्यों नहीं जाते, भारत क्यों आ रहे हैं? ये ऐसे लोग हैं जो नक्शे पर ये देखने की भी जहमत नहीं उठाते कि बर्मा कहाँ है, और पाकिस्तान कहाँ.
ये भी कहा जा रहा है कि ये भारतीय मूल के लोग नहीं है इसलिए इन्हें पनाह देना भारत की ज़िम्मेदारी नहीं है. फिर अमरीका में रहने वाले अफ़ग़ान या नॉर्वे में रहने वाले श्रीलंकाई किस मूल के हैं?
जानकार कहते हैं कि भारत अगर इन शरणार्थियों को देश से निकालता है तो ये अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन होगा. पता नहीं ऐसी हालत में वे कहाँ जाएँगे.
कहां चली गई है मानवता ?
जयपुर, दिल्ली और जम्मू में तंबुओं में रह रहे इन रोहिंग्या शरणार्थियों को स्थानीय लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है और इसकी मुख्य वजह उनका मुसलमान होना ही है.
किसी रोहिंग्या शरणार्थी से बात करके देखिए, शायद उसने लश्कर, आइएस, बोको हराम, अल शबाब या हिज़्बुल मुजाहिदीन का नाम भी नहीं सुना होगा.
अनपढ़, ग़रीब और बेघर रोहिंग्या पर नई विश्व व्यवस्था में ये ज़िम्मेदारी है कि वो इस्लामी कट्टरता की निंदा करे, मुसलमान अपराधियों के सभी गुनाहों को कबूल करे, उसके लिए बिना शर्त माफ़ी माँगे और कहे कि उसका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है, यानी ‘सुधर’ जाए.
इसके बाद शायद वो इंसाफ़, रहमदिली और मानवता की थोड़ी उम्मीद कर सकता है, और आप पूछ रहे हैं, इसमें क्या बुराई है ?