कृष्ण प्रताप सिंह
कथनी मीठी खांड़ सी, करनी विष की लोय, कथनी तजि करनी करै, विष से अमरित होय। देश में बहुत से लोगों को संत कबीर का यह दोहा तब याद आया, जब खबर आयी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चेन्नई में एक तमिल अखबार के आयोजन में मीडिया को ‘समाज बदलने का साधन’ बताया और कहा कि ‘आज समाचार पत्र खबरें ही नहीं देते, लोगों की सोच गढ़ते और उनके दुनिया देखने के लिए नई खिड़कियां खोलते हैं।’ कई लोगों ने पूछा भी कि मीडिया को लेकर प्रधानमंत्री की राय वाकई इतनी अच्छी है, तो उसकी आजादी को लेकर उनकी पार्टी, उसकी सरकारों और यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री का रवैया इस कदर आतंकित करने व अंकुश लगाने वाला क्यों है? अगर इसलिए नहीं कि जैसे-जैसे उनकी सत्ता की उम्र बढ़ रही है, सत्ताधीशों के ऐसे बदलावों से डरने का इतिहास उनके संदर्भ में भी खुद को दोहराने लगा है, तो और किसलिए?
प्रसंगवश, प्रधानमंत्री की पार्टी इन दिनों तमिलनाडु में पैर फैलाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रही है और वहां की छोटी-छोटी घटनाओं पर भी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। लेकिन पिछले दिनों तब उसका हलक सूख गया, जब कार्टूनिस्ट जी. बाला को राज्य की पुलिस ने इस ‘कुसूर’ में गिरफ्तार कर लिया कि उन्होंने तिरुनेलवेली में एक परिवार को आत्महत्या से रोकने में मुख्यमंत्री ईके पलनीसामी की नाकामी को लेकर एक कार्टून बनाया है। अब बाला को जमानत मिल गई है और उनका कहना है कि वे गिरफ्तारी या उत्पीड़न के डर से कार्टून बनाना बंद करने वाले नहीं और सरकारी तंत्र के जनविरोधों व नाकामियों को उजागर करना जारी रखेंगे।
बाला की गिरफ्तारी से यह सवाल निश्चित रूप से और बड़ा हो गया है कि देश व प्रदेशों की सरकारें और उनके नेता अब अपनी जरा भी आलोचना क्यों नहीं सह पाते? क्यों उन्हें कभी किसी किसी न्यूज चैनल से डर लगने लगता है, कभी किसी अखबार से, कभी किसी फिल्म से, कभी किसी नाटक से तो कभी किसी कलाकार से? क्यों प्रधानमंत्री तक इसके अपवाद नहीं हैं, जिन्होंने अपने अब तक के, आधे से ज्यादा बीत चुके, प्रधानमंत्रीकाल के दौरान मीडिया के सवालों का सीधे सामना करने से बरता जा रहा परहेज तोड़ा नहीं है? क्यों वे मीडिया को अपने स्वार्थ व स्वाद या कि निजी, सरकारी व राजनीतिक हितों के आधार पर बांटते और उसकी आत्मसमर्पणकारी ‘सेल्फ सेंसर’, ‘मोदी’ या ‘गोदी’ जैसी प्रवृत्तियों को ही प्रोत्साहित करते दिखाई देते हैं? वे या उनके ‘भक्त’ शिष्टाचार के तौर पर भी स्वतंत्र मीडिया की अवधारणाओं के पक्ष में आवाजें उठाते क्यों नहीं दिखना चाहते?
चाहते तो बाला जी के प्रसंग में ही सही, इतना तो कह ही सकते थे कि क्या करें, तमिलनाडु में हमारी सरकार नहीं है और हम उनकी गिरफ्तारी के विरोध के अलावा कुछ नहीं कर सकते। हां, यहां उनके इस डर को समझा जा सकता है कि कहीं वे ऐसा कहें तो कोई यह न याद दिलाने लगे कि राजस्थान में, जहां आप सत्ता में हैं, वहां भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार भी मीडिया के प्रति कदाशयता का बरताव ही कर रही है।
यह सरकार पिछले दिनों राज्य की विधानसभा में दो विधेयकों-राज दंड विधियां संशोधन विधेयक, 2017 और सीआरपीसी की दंड प्रक्रिया संहिता संशोधन विधेयक, 2017 की मार्फत राज्य के सेवानिवृत्त एवं सेवारत न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों व लोकसेवकों को ड्यूटी के दौरान किये गये कामों को लेकर सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जांच या कार्रवाई से संरक्षण देने पर उतरी तो उसमें मीडिया द्वारा ऐसे मामलों की बिना अनुमति रिपोर्टिंग पर रोक का प्रावधान भी कऱ दिया। प्रावधान के अनुसार, सरकार द्वारा जांच की अनुमति देने से पहले मीडिया इनमें से किसी के नाम प्रकाशित करता है, तो उसे दो साल की सजा मिलेगी। चौतरफा विरोध के बावजूद वह सम्बन्धित विधेयक को वापस न लेकर विधानसभा की प्रवर समिति के पास भेजकर ‘खुश’ है।
उसकी इस ‘खुशी’ के खिलाफ प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक ‘राजस्थान पत्रिका’ द्वारा मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिन्धिया के बहिष्कार के एलान और उनके या उनसे संबंधित किसी भी समाचार का प्रकाशन न करने के निश्चय के बावजूद सत्तातंत्र में किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रहे। अलबत्ता, इस दैनिक ने भी ‘लोकतंत्र की, अभिव्यक्ति की, जनता के मत की आन-बान व शान का प्रश्न’ बताते हुए प्रतिरोध न छोड़ने का फैसला किया है और स्थिति कितनी गंभीर है, इसे उसके प्रधान संपादक गुलाब कोठारी द्वारा ‘जब तक काला: तब तक ताला’ शीर्षक से पहले पन्ने पर लिखे अग्रलेख के इस अंश से समझा जा सकता है: ‘सरकार ने हमारे मुंह पर कालिख पोतने में कोई कसर नहीं छोड़ी। क्या जनता मन मारकर इस काले कानून को पी जाएगी? क्या हिटलरशाही को लोकतंत्र पर हावी हो जाने दें? अभी चुनाव दूर है. पूरा एक साल है लंबी अवधि है। बहुत कुछ नुकसान हो सकता है।’
लेकिन न भाजपा और न ही मोदी सरकार उसके इस कृत्य पर अपना दृष्टिकोण साफ करने को तैयार हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी के दुश्मनों द्वारा अरसा पहले की गई कलबुर्गी, पानसरे, दाभोलकर और गौरी लंकेश आदि की हत्याओं का यहां जिक्र न भी करें तो इस आजादी को लेकर सरकार के विडम्बना भरे रवैये का फल यह हुआ है कि राजनीतिक प्रहारों के वक्त लेखकों, रंगकर्मियों, कार्टूनिस्टों व विचारकों का अकेलापन व ‘असहायताएं’ बढ़ती जा रही हैं। पिछले दिनों दलित विचारक कांचा इलैया की तेलुगू में प्रकाशित पुस्तक ‘समाजिका स्मगल्लेरू कोमाटोलू’ में की गई जिस टिप्पणी को लेकर उस पर प्रतिबंध की मांग सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दी, उसे लेकर उनके खिलाफ बेवजह बवाल मचाया गया, तो सरकार ने उनकी लिखने की आजादी का साथ देने के बजाय उल्टा उन्हें ही नजरबंद कर दिया। उन्हीं की तरह अभिनेता कमल हासन एक तमिल पत्रिका में हिंदू आतंकवाद के मुद्दे पर लिखने को लेकर निष्कवच होकर जान से हाथ धोने की धमकियां झेल रहे हैं।
जहां तक मोदी सरकार का सवाल है, मीडिया को लेकर उसके रवैये का पता इस बात से भी चलता है कि केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अपने अधिकारियों के लिए फरमान जारी किया है कि वे समुचित इजाजत के बगैर मीडिया से बात ही न करें। इसके लिए जारी सर्कुलर में पत्र सूचना कार्यालय की एक नियमावली का हवाला दिया गया है जिसके मुताबिक, सिर्फ मंत्री, सचिव एवं विशेष तौर पर अधिकृत अधिकारी ही मीडिया को सूचनाएं दे सकते या मीडिया के प्रतिनिधियों के लिए उपलब्ध हो सकते हैं। सर्कुलर में यह भी कहा गया है कि कोई मीडिया प्रतिनिधि यदि किसी अन्य अधिकारी से संपर्क करता है तो अधिकारी उसे पीआईबी से संपर्क करने के लिए कहे या मंत्रालय/विभाग के मंत्री या सचिव से उससे मिलने की अनुमति ले। इसे लेकर सवाल स्वाभाविक है कि खुलेपन, पारदर्शिता और सूचनाओं के अधिकार के इस दौर में मंत्रालय को किस बात के खुल जाने का अंदेशा सता रहा है, जिसके कारण उसे उक्त नियमावली की याद दिलाना जरूरी लगा? फिलहाल, अभी तक यह सवाल अनुत्तरित ही है।
इन जटिल हालात में भी प्रधानमंत्री को अभिव्यक्ति की आजादी के बजाय ‘मीडिया की आजादी व ताकत के गलत इस्तेमाल’ का मुद्दा बड़ा दिखता है और वे कहते हैं कि उसको इससे बचकर अपनी विश्वसनीयता बनाये रखनी चाहिए, तो लगता है कि वे जले पर नमक छिड़कने पर तुले हैं। उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत भी महसूस होती है कि ताकत के गलत इस्तेमाल की जो बात वे मीडिया के संदर्भ में कह रहे हैं, उनकी सरकार के संदर्भ में भी लागू होती है। किसी भी लोकतंत्र में मीडिया के खिलाफ सरकारी ताकत के इस्तेमाल या उस पर अंकुश लगाने की प्रत्यक्ष व परोक्ष कोशिशों को जायज नहीं ठहराया जा सकता। हां, अपनी ताकत का ऐसा इस्तेमाल करने वाली सत्ताओं की उम्र भी लम्बी नहीं ही होती क्योंकि उनका सामूहिक प्रतिरोध शुरू होने में देर नहीं लगती।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, उत्तर प्रदेश के फ़ैजाबाद से निकलने वाले दैनिक ‘जनमोर्चा’ के संपादक रहे और समसामयिक विषयों के चर्चित टिप्पणीकार। मीडियाविजिल के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य।