एम रेयाज़
फ़र्ज़ कीजिए कि कट्टरपंथियों का एक समूह योजना बनाकर किसी पवित्र महीने में सदियों पुराने एक धर्मस्थल पर आतंकी हमला करता है। उसकी मंशा श्रद्धालुओं की हत्या करने की थी और लोगों के दिलो दिमाग में आतंक को बैठाना था जो बाद में सांप्रदायिक उन्माद की शक्ल भी ले सकता था।
कई साल तक चले मुकदमे के क्रम में 26 गवाह पलट जाते हैं, कुछ रसूखदार आरोपी बरी हो जाते हैं और अंत में तीन को दोषी ठहराया जाता है जिनमें दो को आजीवन कारावास की सज़ा होती है (चूंकि तीसरे की इस बीच मौत हो चुकी थी)। इतना ही नहीं, यह बात भी सामने आती है कि आतंकी घटना को अंजाम देते वक्त इन तीनों का संबंध एक खास विचारधारा के शीर्ष संगठन से रहा था।
ऐसी कोई भी ख़बर आजकल के ”ब्रेकिंग न्यूज़” केंद्रित कवरेज के लिए पर्याप्त मसाला मुहैया कराती है। ऐसी ख़बरों के सामने आने पर अनंत बहसें पैनल पर करवाई जाती हैं, घटना को छीलकर रख दिया जाता है, उसका समूचा इतिहास बार-बार खंगाला जाता है, अलग-अलग पार्टियों का इस पर पक्ष लिया जाता है और अंत में उक्त समूह पर प्रतिबंध की मांग की जाती है जिससे आतंकी हमले में लिप्त दोषियों का ताल्लुक रहा।
घटना वास्तविक थी। सज़ा होने तक सब कुछ ठीक रहा, सिवाय ख़बर की कवरेज के। कोई प्राइम टाइम चर्चा नहीं हुई। जो पत्रकार और नामी लोग हर मामूली घटना पर आक्रोशित होकर ट्वीट करने लग जाते हैं, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। और जिन पत्रकारों ने इस ख़बर को कवर किया, उन्होंने अपनी खबरों में दोषियों पर ‘आतंक’ की मुहर नहीं लगाई।
वजह बिलकुल साफ थी- उक्त आतंकी घटना अजमेर शरीफ़ की दरगाह पर 2007 में रमज़ान के महीने में हुई थी जिसे किसी इस्लामिक समूह ने नहीं बल्कि दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी आतंकियों ने अंजाम दिया था। ये सभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे।
अब ज़रा ध्यान दें कि अलग-अलग अख़बारों ने इस मामले में दोषी पाए गए लोगों को लेकर क्या लिखा।
समाचार एजेंसी आइएएनएस ने लिखा, ”अदालत ने 8 मार्च को भवेश पटेल, देवेंद्र गुप्ता और सुनील जोशी(मृत) को दोषी ठहराया तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता स्वामी असीमानंद व छह अन्य को इस मामले से बरी कर दिया।”
दि हिंदू ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में लिखा कि पटेल अपने गृहराज्य गुजरात में आरएसएस से जुड़ा हुआ था जबकि गुप्ता संघ परिवार के लिए झारखण्ड में काम कर रहा था। जोशी मध्यप्रदेश में आरएसएस का प्रचारक था जिसे 29 दिसंबर, 2007 को गोली मार दी गई थी।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इन्हें महज ”दोषी” लिखा जबकि हिंदुस्तान टाइम्स ने (ऑनलाइन और बाकी संस्करण) इन्हें ”हिंदू दक्षिणपंथी एक्टिविस्ट” लिखा। खबर के भीतर तकरीबन सब कुछ वैसा ही था, लेकिन राष्ट्रीय संस्करण में शीर्षक जाने कैसे बोल्ड और रंगीन फॉन्ट में यह था, ”Two Hindutva terrorists get lifer in Ajmer blast case” (दो हिंदुत्ववादी आतंकवादियों को अजमेर ब्लास्ट केस आजीवन कैद)।
अन्य रिपोर्टों में इन्हें ”एक्टिविस्ट” और ”वर्कर” कहा गया, आतंकवादी या आतंक का आरोपी नहीं जबकि अदालत ने इन्हें आतंकवादी गतिविधियों और धार्मिक भावनाएं भड़काने में लिप्त होने का दोषी पाया था (दि एशियन एज)।
एनआइए की विशेष अदालत ने इन्हें भारतीय दंड संहिता, विस्फोटक सामग्री अधिनियम, गैरकानूनी गतिविधि (निरोधक) अधिनियम यूएपीए की विभिन्न धाराओं में अलग-अलग प्रावधानों के तहत दोषी पाया था।
दि इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक अदालत ने दो अन्य आरोपियों और साथ ही ”संदिग्ध व्यक्तियों” को दिए गए क्लीन चिट पर सवाल खड़ा किया जिनमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार शामिल हैं। अदालत ने पूछा कि इनके मामले में सीआरपीसी की उपयुक्त धाराओं को क्यों नहीं लगाया गया। एनआइए के डीजीपी की ओर से मामले को समाप्त करने की तारीख अदालत ने 28 मार्च मुकर्रर की है।
एक्सप्रेस ने यह भी खबर दी कि सरकारी वकील अश्विनी शर्मा ने अदालत में निम्न दलील दी थी: ”दोषियों और अन्य आरोपियों की गतिविधियों ने हिंदू धर्म के स्थापित मूल्यों को गहरी चोट पहुंचाई है।” डिफेंस के वकील जेएस राणा ने हालांकि प्रतिवाद किया, ”ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि इस मामले में लिप्त लोगों ने खुद को नैतिक मानते हुए मूर्खतापूर्ण कृत्य किया।”
जोशी और असीमानंद समझौता विस्फोट, मालेगांव विस्फोट और मक्का मस्जिद विस्फोट में भी आरोपी हैं। इन सभी मामलों का दोष पहले इस्लामिक आतंकी समूहों के सिर मढ़ा गया था, बाद में एक्षिणपंथी हिंदू आतंकी समूहों का नाम इसमें आया।
अजमेर दरगाह पर हुए हमले के एक दिन बाद देश में सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों में एक पत्रकार प्रवीण स्वामी ने दि हिंदू में एक विस्तृत लेख लिखते हुए इस हमले को चरमपंथी तत्वों द्वारा ”लोकप्रिय इस्लाम के खिलाफ़ जंग” करार दिया था।
हमले में तीन श्रद्धालुओं की मौत हुई थी और 15 अन्य घायल हो गए थे जब 11 अक्टूबर, 2007 की शाम ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर एक बम फटा। इससे पहले राजस्थान के आतंक निरोधक दस्ते (एटीएस) ने मामले की पड़ताल की थी लेकिन बाद में इसे एनआइए को सौंप दिया गया। एनआइए की एक विशेष अदालत ने 8 मार्च को ”संदेह का लाभ” देते हुए असीमानंद और छह अन्य को बरी कर दिया था।
असीमानंद ने इन मामलों में अपनी संलिप्तता को दिसंबर 2010 में दिल्ली की तीस हजारी अदालत में एक मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष कुबूल किया था और दि कारवां को दिए एक लंबे साक्षात्कार में भी उन्होंने अपनी संलिप्तता स्वीकार करते हुए हमले को ”मुसलमानों की आतंकी गतिविधियेां” का बदला करार दिया था। बाद में वे अपने बयान से पलट गए थे।
इन मामलों ने तब तक बिलकुल अपरिचित रहे हिंदुत्व या भगवा आतंक के एक मॉड्यूल को सबके सामने रोशनी में ला दिया था जिसने उस वक्त सत्ता के गलियारों में तहलका मचा दिया। कुछ लोगों ने तो उस वक्त इस शब्द के इस्तेमाल पर भी सवाल उठा दिए थे। नई सरकार केंद्र में आने के बाद से जांच एजेंसियों और वकीलों ने हिंदुत्व के कट्टरपंथियों पर ‘नरमी’ बरतनी शुरू कर दी।
मध्यप्रदेश की एक स्थानीय अदालत ने पिछले ही महीने सुनील जोशी हत्याकांड में प्रज्ञा सिंह जोशी और अन्य को बरी कर दिया था। अजमेर कांड में बरी होने के बाद असीमानंद को 2007 के मक्का मस्जिद ब्लास्ट में भी ज़मानत मिल गई है और मीडिया में आई रिपोर्टों की मानें तो एनआइए इसे चुनौती नहीं देगा।
अजमेर ब्लॉस्ट केस में दोषसिद्धि और सुनाई गई सज़ा इसलिए अहम है क्योंकि पहली बार आरएसएस के सदस्य आतंक के मामले में दोषी पाए गए हैं। यह इस बात का भी सबूत है कि आतंक का वास्तव में कोई धर्म नहीं होता, यह बात अलग है कि भारतीय मीडिया की निगाह में इसका एक ही रंग होता है।
(यह लेख डेलीओ पर 24 मार्च को छपा है और यहां साभार प्रकाशित है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है)