‘फ़ैक्ट चेकिंग’ से मुँह चुराकर सिग्नेचर ब्रिज से यमुना में कूदा गोदी मीडिया!



विष्णु राजगढ़िया


चार नवंबर का दिन दिल्ली के लिए महत्वपूर्ण रहा। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यमुना पर बने ’सिग्नेचर ब्रिज’ का लोकार्पण किया। यह दिल्ली के नागरिकों को बड़ी राहत देगा। इसका पर्यटन महत्व भी होगा। आजादी के बाद दिल्ली सरकार की बनाई पहली ऐसी अधिसंरचना के तौर पर देखा जा रहा है।

लेकिन इसके अलावा भी चार नवंबर का खास अर्थ है। देश में लोकतंत्र की खस्ताहालत का भी गवाह बना है चार नवंबर। लोकतंत्र के प्रमुख वाहक राजनीति और मीडिया पर गंभीर सवाल छोड़ गया यह चार नवंबर। साबित हुआ कि राजनीति अगर छलप्रपंच का दूसरा नाम हो तथा मीडिया अगर लालच अथवा भय का शिकार हो, तो सच पर झूठ की काली चादर फैल जाएगी।

‘सिग्नेचर ब्रिज’ का खुलना सभी देशवासियों के लिए खुशी का अवसर था। ऐसी एक भी वजह नहीं, जो इस मौके पर किसी ओछी राजनीति की अनुमति दे। लेकिन देश को मंदिर- मस्जिद की संकीर्ण सोच में धकेल रही भाजपा ने इस शुभ मौके को अपशकुन में बदल दिया।

शुरूआत सांसद मनोज तिवारी ने की, जो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भी हैं। ट्वीट किया- ’कल तीन बजे मैं सिग्नेचर ब्रिज पर रहूंगा। सांसद हूं भाई।’
इस ट्वीट में मनोज तिवारी ने कुछ अनावश्यक बातें भी लिखीं, जिसमें ओछी राजनीति की साफ झलक थी।

इस पर डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने व्यंग्यपूर्ण ट्वीट किया& ’कल पूरी दिल्ली आमंत्रित है। आप भी सादर आमंत्रित हैं। उम्मीद है कल आप आएंगे और इस महान अवसर की गरिमा भी बनाए रखेंगे।’

जाहिर है कि यह व्यंग्य था। किसी सांसद को ’गरिमा’ बनाए रखने की हिदायत देना कोई ’आमंत्रण’ नहीं था। इसके बावजूद सांसद मनोज तिवारी पहुंचे। खुद मनोज तिवारी का दावा है कि वह 1200 लोगों के साथ पहुंचे। लोकार्पण का समय चार बजे का दिया गया था। लेकिन वह तीन बजे ही पहुंच गए। मंच पर चढ़ने का प्रयास किया। अपने 1200 लोगों के साथ मंच के आसपास के इलाके पर कब्जा कर लिया।

कई वीडियो आए हैं जिनमें मनोज तिवारी के साथ आए लोग पोस्टर बैनर फाड़ रहे हैं, जयश्री राम के नारे लगा रहे हैं, मोदी&मोदी के नारे लगा रहे हैं। मनोज तिवारी शेर है जैसे नारे भी लगे। रोकने की कोशिश पर पुलिस से झड़प भी हुई। एक तसवीर में मनोज तिवारी ने डीसीपी अतुल ठाकुर का कॉलर पकड़ रखा है। एक वीडियो में आप विधायक अमानतुल्लाह द्वारा मनोज तिवारी को मंच से धकेलने का दृश्य भी है।

इस पर दोनों तरफ से आरोप- प्रत्यारोप ने इस सुखद अवसर को दुखद प्रसंग में बदल दिया।

मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होता, तो इस सच को सामने लाने की कोशिश करता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रिंट और टीवी मीडिया ने इसे लोकार्पण के मौके पर हंगामे की खबर बताकर कर्तव्य की इतिश्री कर ली। यहां तक कि मीडिया के एक हिस्से ने ’सिग्नेचर ब्रिज’ के लोकार्पण से बड़ी खबर मनोज तिवारी को बनाया। इस मौके पर अरविंद केजरीवाल के वक्तव्य को दिखाना बताना भी जरूरी नहीं समझा गया।

ऐसे में अरविंद केजरीवाल ने कई ट्वीट करके कुछ प्रमुख मीडिया संस्थानों का नाम लेकर सवाल किया। पूछा कि क्या मीडिया पर मोदी का प्रभाव इतना गहरा छाया हुआ है। जाहिर है कि गोदी मीडिया के इस दौर में ऐसे सवालों का जवाब न देने की बेशर्मी स्वाभाविक हो चुकी है।

मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होता, तो बताता कि किसी भी आयोजन में जाकर हंगामा करने का अधिकार किसी को नहीं है। खासतौर पर किसी संवैधानिक पदधारी को ऐसे किसी आयोजन में नहीं जाना चाहिए, जहां वह विशेष आमंत्रित न हो। एक राज्य सरकार के महत्वपूर्ण समारोह के मंच को जाकर घेर लेना, नारेबाजी करना और हंगामा खड़ा करना पूर्णतया अनुचित है।

मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होता, तो मनोज तिवारी को मंच से धकेले जाने की खबर के साथ यह भी बताता कि अनधिकृत तौर पर किसी मंच पर जाना ही अशोभनीय है। जिस मंच पर मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल के सदस्यगण मौजूद हों, वहां अराजकता और असुरक्षा की स्थिति पैदा करना अनुचित है। यह बताना भी मीडिया का धर्म बनता है, जिसे पूरा करने में वह असफल रहा।

दिल्ली में मनोज तिवारी इतना कुछ सिर्फ इस वजह से कर सके कि दिल्ली सरकार के नियंत्रण में पुलिस नहीं है। ऐसी कोई हरकत बंगाल, पंजाब या केरल जैसे गैर-भाजपा राज्य में संभव नहीं, क्योंकि वहीं पुलिस पर राज्य सरकार का नियंत्रण है। तो क्या दिल्ली पुलिस पर केंद्र सरकार के नियंत्रण का ऐसा बेजा इस्तेमाल करके एक चुनी हुई सरकार के कामकाज को बाधित करना लोकतंत्र के हित में है। मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होता, तो पूछता। मीडिया यह भी पूछता कि समारोह में जाकर हंगामा करने, पुलिस अधिकारी के साथ हाथापाई करने के दाषियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

खर्च राशि पर भी मीडिया की चुप्पी शर्मनाक :
अब एक दूसरा पहलू देखें। सिग्नेचर ब्रिज बनाने में आए खर्च को लेकर मनोज तिवारी तथा भाजपा के कई नेताओं ने सवाल खड़े किए। मनीष सिसोदिया ने अपने संबोधन में विस्तार से जवाब भी दिया। मीडिया के लिए यह जरूरी विषय बनता है कि इस पर तथ्यों की जांच करके देश को सच बताए।

मनोज तिवारी ने अपने ट्वीट में लिखा था- ’265 करोड़ बजट के ब्रिज को 1500 करोड़ में पूरा किया, जांच हो।’

यह बड़ा आरोप है। जांच होनी चाहिए। सरकार चाहे जो करे, मीडिया को इस पर बात करनी चाहिए थी। नहीं की। दिलचस्प बात यह है कि दिल्ली भाजपा के ही दूसरे बड़े नेता विजय गोयल ने ट्वीट किया- ’लागत 1100 करोड़ थी लेकिन 1518 करोड़ लगे।’

जिस बुनियादी लागत को मनोज तिवारी ने मात्र 265 करोड़ लिखा, उसी को विजय गोयल ने 1100 करोड़ बताया। दोनों में किसने गुमराह किया?
मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होता, तो इसके विवरण में आता।

इस पुल के व्यय का पूरा विवरण मनीष सिसोदिया ने दिया। 2004 में इसका प्राक्कलन 459 करोड़ था। लेकिन वह एक सामान्य पुल का बजट था। उसका कोई काम नहीं हुआ। बाद में 2010 में मौजूदा डिजाइन वाले पुल के लिए नया बजट 1131 करोड़ का बना। इसके बाद नीचे की चट्टान की कुछ जटिलता के कारण अतिरिक्त 350 करोड़ का बजट बना। इस तरह फाइलों में इस पुल का काम चलता रहा। लेकिन 2015 में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद इसका जमीनी काम शुरू हुआ और पहला खंभा लगा।

दिल्ली सरकार के बताए इन तथ्यों के अनुसार पुल बनाने में आई लगभग 1500 करोड़ की लागत का वर्ष 2012 के प्राक्कलन पर आधारित है। ऐसे में पुल के व्यय को लेकर मनोज तिवारी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों में कितनी सच्चाई है, इसकी जांच करना मीडिया का धर्म था।

एक और दिलचस्प बात। मनोज तिवारी ने एक रिट्वीट में दावा किया है कि उन्होंने इस पुल के निर्माण में 33 करोड़ की राशि खर्च की। क्या इस तथ्य की जांच इतनी मुश्किल है? आम आदमी पार्टी के अनुसार यह सराकर गप्प है। वैसे भी एक सांसद को साल भर में मात्र पांच करोड़ रूपये का फंड मिलता है। मनोज तिवारी को तो मात्र चार साल हुए हैं। अगर उन्होंने अपना पूरा कोष इस पुल के लिए दिया होता, तब भी यह बीस करोड़ ही होता। ऐसे में यह 33 करोड़ की बात कहां से आई? मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष होता, तो मनोज तिवारी से पूछता। तथ्य पाए जाते, तो पलटकर दिल्ली सरकार से सवाल करता।

मीडिया की यह दुर्दशा लोकतंत्र पर बड़ा संकट है। इस चौथे स्तंभ को प्रहरी की भूमिका मिली है। इसका मतलब यही है कि सार्वजनिक जीवन की तमाम घटनाओं, परिघटनाओं पर मीडिया ऐसी पैनी नजर रखेगा, जिसमें कोई भी पक्ष किसी भी प्रकार को अनुचित आचरण करने और अनर्गल बात करने से डरेगा। मीडिया ने अपनी भमिका से पीछे हटकर उस डर को खत्म कर दिया। इससे एक अराजक लोकतंत्र का निर्माण हो रहा है। सच पर झूठ की गहरी चादर बिछती जा रही है।

पुनश्च : देश का असल संकट वर्तमान कारपोरेट केंद्रित राजनीति है जिसे लोकतंत्र की परवाह नहीं। मीडिया का मौजूदा संकट इसी की उपज है। इस आलेख में मीडिया से जिस भूमिका की अपेक्षा की गई है, वह एक बेहतर लोकतंत्र में ही संभव है। केंद्रीय सत्ता का दुरूपयोग करके एक लोकतांत्रिक सरकार को परेशान करने की यह परिघटना भारतीय लोकतंत्र की असलियत का प्रतिबिंब है। मीडिया पर केंद्रित इस आलेख को उलटकर लोकंतत्र के संकट के तौर पर खुद ही देखने की कोशिश करें। एक राज्य सरकार अपनी किसी उपलब्धि का उत्सव तक मनाने को स्वतंत्र नहीं।

वरिष्ठ पत्रकार विष्णु राजगढ़िया राँची में रहते हैं।