यह तथ्य है जिससे हम आंख चुरा नहीं सकते कि आज ही के दिन महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। और यह सच है जिससे हम आंख मिलाना नहीं चाहते कि इस हत्या के बाद हम सबने गांधी के विचारों की हत्या लगातार की है।
अपनी हत्या के बाद गांधी इस देश के नेताओं की जुबान पर रहे। कुछ ने उनके नाम को मीठी गोली की तरह चुभलाया, जिससे उनकी राजनीति सधती रही, कुछ वैचारिकी ने उनको कुनैन की गोली की तरह अपने मुंह में रखा, जिससे उनका मर्ज छुपता रहा। इन सब के बाद भी यह सवाल बना रहता है कि आज हम गांधी को क्यों याद करें? उन्हें राष्ट्रपिता क्यों मानें? गांधी जब थे, तब थे। आज उनकी प्रासंगिकता क्या है?
सच है कि धार्मिक पहचान और हिंसा के इस के इस दौर में गांधी आज और ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं। उनके सत्य और अहिंसा की याद ज्यादा आती है। यह भी ध्यान जाता है कि एक खास तरह की वैचारिकी इस देश में गांधी का नाम लेते हुए, उनके अहिंसा की आड़ में बड़ी तेजी से हिंसक हो रही है। ऐसे हिंसक दौर में गांधी को याद करते हुए कई ऐसे प्रसंग जेहन में बरबस चले आते हैं, जब यह दिखता है कि गांधी इस देश की हर वैचारिकी की मजबूरी हैं. यह वैचारिकी जानती है कि गांधी को नजरअंदाज कर इस देश में राजनीति नहीं की जा सकती। उसे पता है कि कैलेंडरों से वह गांधी को भले उतार दे, पर इस देश के लोगों के दिलों से नहीं निकाल सकती। यह वैचारिकी एकरफ तो गांधी को राष्ट्रपिता भी नहीं मानना चाहती, दूसरी तरफ गोडसे को देशभक्त बताने की बताती रहती है।
अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के भोपाल से बीजेपी सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ कहा था। उस रोज लोकसभा में डीएमके सांसद ए. राजा ने एसपीजी संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान एक टिप्पणी की थी। वह कह रहे थे, ‘महात्मा गांधी हत्याकांड में जब अपीलीय अदालत में अपील दायर की गई थी तब गोडसे ने एक बयान दिया था, मैं उसके कुछ वाक्य पढ़ने की अनुमति चाहूंगा। मैं उद्धृत करता हूं…’ गोडसे का अदालत में दिया बयान वे पढ़ ही रहे थे कि हस्तक्षेप करते हुए साध्वी प्रज्ञा ने गोडसे को देशभक्त बताया। यह कोई पहली बार नहीं हुआ था।
इससे पहले दिए साध्वी के ऐसे ही बयान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे साध्वी प्रज्ञा को दिल से कभी माफ नहीं करेंगे। पर असल सवाल है कि इस देश में वह कौन सी वैचारिकी है जो गांधी का विरोध करती है। यह वही वैचारिकी है जिसने गोडसे को पैदा किया, जहां से साध्वी प्रज्ञा आईं। यह वही वैचारिकी है जो धर्म का नाम लेकर सांप्रदायिकता को पोसती है। जो भारत-माता की जड़ मूर्ति बनाती है और राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटती है।
यहां पर यह बात दुहराए जाने की है कि गांधी धार्मिक थे, लेकिन वे धर्म के कर्मकांड की अवहेलना करते हुए उसका मर्म खोज लाते थे। उनके इस मर्म से एक ऐसी राजनीति सधती थी जो एक नया देश और नया समाज बना सकती थी। हमें यह समझना होगा कि गांधी की इस धार्मिकता से न परंपरावादी मुस्लिम घबराते थे, न परंपरावादी हिंदू। यह सांप्रदायिक हिंदुत्व था, जिसकी शिकायत थी कि गांधी मुसलमानों के प्रति बहुत उदार हैं और पाकिस्तान के साथ ममत्व भरा बरताव कर रहे हैं। यही वह वैचारिकी है जो बार-बार साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को उकसाती है। इस खास वैचारिकी को नजरअंदाज भी करें तो यह सवाल भीतर से उठता है कि आखिर गांधी के हत्यारे को देशभक्त बताने पर हायतौबा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास है? गांधी के नाम पर जो विलाप हम कर रहे हैं, दरअसल वह हास्यास्पद है। अगर हम गांधी के रास्ते पर चले होते तो शायद यह नौबत ही नहीं आती।
यह बात अब स्वीकार करनी पड़ती है कि गांधी के गुनहगार दोनों हैं- उनको मानने वाले भी और उनको मारने वाले भी। बल्कि सच तो यह है कि गांधी को मानने का दावा करने वालों का गुनाह कहीं ज्यादा बड़ा है। उन्होंने गांधी को नीयत और नीति से हटाने का काम बरसों बेहद चुपचाप किया। फर्क बस इतना है कि मानने वालों ने दस्ताने पहन कर गांधी को मारा, जबकि विरोधी वैचारिकी ने दस्ताने उतारकर।
एक कल्पना करें। नाथूराम गोडसे की चलाई गोली लगने के बाद भी गांधी बच जाते तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती। क्या वे अपने लिए सुरक्षा की मांग करते? गोडसे को कड़ी से कड़ी सजा देने की गुहार अदालत से लगाते? मुझे लगता है कि महात्मा गांधी ऐसा कुछ नहीं करते, बल्कि वह गोडसे को माफ कर देते। वह उसे समझाने की कोशिश करते कि वह जिसे राष्ट्रभक्ति समझ रहा है, दरअसल वह न असली राष्ट्र है, न सच्ची भक्ति। वह उसे देश का मतलब समझाते, उसे भक्ति की बारीकी में ले जाने की कोशिश करते।
गांधी को पढ़ते हुए यह बात समझ में आती है कि देश सिर्फ चौहद्दियों से नहीं बनता, वह आपकी मनुष्यता से भी गढ़ा जाता है। दुर्भाग्य से यही मनुष्यता फिलवक्त गायब दिख रही है। गांधी इस मनुष्यता के बहुत बड़े हिमायती रहे हैं। गांधी से नफरत करने वाली एक वैचारिकी आज भी उन्हें पाकिस्तान के राष्ट्रपिता के रूप में पेश करती है। गोडसे की शिकायत ही यही थी कि गांधी पाकिस्तान का पक्ष लेते हैं। इस विचारधारा के साथ पलते और इसके आसपास फटकते कई गांधी विरोधी यह सवाल समय-समय पर पूछते पाए जाते हैं कि महात्मा गांधी को हम राष्ट्रपिता क्यों कहें? उनका स्थूल तर्क होता है कि भारत गांधी के पैदा होने के सदियों पहले से एक देश रहा है। उसे किसी बापू ने जन्म नहीं दिया। यह तर्क अपने आप में सही लगता है, लेकिन है सतही।
याद करें कि गांधी को किसने राष्ट्रपिता या बापू का दर्जा दिया? किसने उन्हें महात्मा का संबोधन दिया? क्या गांधी ने अपने लिए यह दर्जा मांगा था? दरअसल गांधी के विरोधी माने जाने वाले सुभाष चंद्र बोस ने गांधी को पहली बार राष्ट्रपिता कहा था – यह 1944 की बात थी। तब जर्मनी में बैठे सुभाषचंद्र बोस को क्यों लगा कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा जाना चाहिए? क्योंकि सुभाष चंद्र बोस यह देख पा रहे थे कि पुराने राग-द्वेषों, पुरानी चौहद्दियों, पुरानी रियासतों और पुराने रजवाड़ों को पीछे छोड़कर, परंपरा की बहुत सारी जकड़नों को झटक कर आजादी की लड़ाई की कोख से जो एक नया भारत निकल रहा है, उसे दरअसल महात्मा गांधी आकार दे रहे हैं। सुभाष चंद्र बोस ने गांधी के विचारों और उनकी पैठ को देखते हुए ही कहा था कि अगर वे आवाज देंगे तो बीस हजार लोग सुनेंगे, गांधी आवाज देंगे तो बीस लाख लोग सुनेंगे।
इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने जीवनकाल में गांधी ने विरोध-प्रतिरोध खूब झेले। उनके समकालीन रहे नेहरू और आंबेडकर दोनों अपनी-अपनी वजहों से उनकी आत्मनिर्भर ग्राम पंचायत की अवधारणा को संदेह से देखते रहे। दोनों को उनकी पारंपरिकता अलग-अलग ढंग से तंग करती रही। कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर महात्मा गांधी से गहरी असहमति रखते थे पर इन्हीं कविगुरु ने गांधी को महात्मा कहा। गांधी की हत्या यह याद दिलाने वाली मार्मिक घटना थी कि नए बनते देश ने अपना पिता खो दिया।
30 जनवरी 1948 की रात न जाने कितने घरों में चूल्हा नहीं जला था। गांधी की हत्या के शोक में लोगों के आंसू नहीं थम रहे थे। ऐसा शोक, ऐसा रुदन सिर्फ पिता की मृत्यु पर मुमकिन है। पिता वही नहीं होते जो हमें जन्म देने का माध्यम बनते हैं, वे भी होते हैं जिन्हें हम पिता मान लेते हैं। लेकिन जो विचारधारा रिश्तों और मुल्कों को बिल्कुल जड़ व्याख्या और मूर्ति तक बांध कर रखती है, उसकी समझ में यह बात नहीं आती कि कोई व्यक्ति किसी मुल्क का पिता कैसे हो सकता है। वह यह नहीं समझ पाती कि मुल्क जितना भूगोल में होता है, उतना हमारी चेतना में भी बनता रहता है। मुल्क को जो लोग धर्म के आधार पर बांट कर देखना चाहते हैं या पाना चाहते हैं, उन्हें यह खूब पता है कि धर्म के भीतर लोगों को झूठी तसल्ली देने की क्षमता होती है। पर यह हमें समझना होगा कि धर्म की यह क्षमता पूंजीवाद को काफी रास आती है। जाहिर है, ईश्वर के साथ लेनदेन की प्रवृत्ति अंततः धर्म के ठेकेदारों को ही फायदा पहुंचाती है।
यह अनायास नहीं है कि जैसे-जैसे लोगों के पास संपत्ति बढ़ती जाती है, उनकी धर्मभीरुता भी बढ़ती जाती है। गांधी भी धार्मिक थे पर उनकी धार्मिकता पूंजी की ओर नहीं जाती थी, मनुष्यता खोज लाती थी। गांधी का ईश्वर प्रार्थनाओं से गुजरकर लोगों के दिलों में प्रवेश करता था। वह नसीहत देता फिरता था कि कर्म से बड़ा कुछ नहीं। अपने सारे कर्म खुद निबटाने में शर्म नहीं। वह लोगों के हृदयपरिवर्तन में भरोसा जगाता था। वह बताता था कि आत्मा का महत्व मनुष्यता से है। मनुष्यता की रक्षा करने के लिए उनका ईश्वर नैतिक शिक्षा तक में शामिल हो जाता था। गांधी के हथियार थे सत्य और अहिंसा। इसी के डर कर अंग्रेजों को भारत से जाना पड़ा था। विश्व उनके सत्य और अहिंसा का लोहा मानता है। बावजूद हम हथियारों की होड़ में लगे हैं।
अभी हाल ही में पाकिस्तान ने अपनी जुमलेबाजी में एटमी युद्ध तक की आशंका जता दी। सोशल नेटवर्किंग के भारतीय वीरों ने भी इस मुद्दे पर खूब बम चलाए। हमसब भूल गए गांधी की वह चिंता जो उन्होंने ‘लिटिल ब्वाय’ और ‘फैट मैन’ नाम के दो छोटे ऐटमी बम हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए जाने के बाद जताई थी, जबकि ये बम आज बनाए जा रहे बमों की तुलना में बेहद छोटे थे। इन धमाकों के बाद गांधी जी ने लिखा था कि इन दो बमों ने सत्य और अहिंसा में उनके विश्वास को और दृढ़ बनाया है। ये वे दो हथियार हैं जो हर इंसान के भीतर हैं और बस उन्हें जगाने की जरूरत है। अगर हम सत्य और अहिंसा पर चलना छोड़ देंगे तो आत्मविनाश की ही राह पर बढ़ेंगे। गाधी जी की इस चेतावनी के बावजूद दुनिया ऐटम बम बनाने में लगी रही। सत्य और अहिंसा मनुष्य की चेतना की किसी भीतरी परत में दफन होते चले गए। मगर दिलचस्प यह है कि 6 और 9 अगस्त, 1945 के भयावह प्रयोग के नतीजे देखने के बाद दुनिया में किसी के भीतर यह साहस नहीं बचा कि वह ऐटम बमों का इस्तेमाल कर सके।
एनसीईआरटी के प्रमुख रहे शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार की एक किताब है- ‘शांति का समर’। इसमें वह पूछते हैं- राजघाट ही हमारे लिए गांधी की स्मृति का राष्ट्रीय प्रतीक क्यों है, वह बिड़ला भवन क्यों नहीं है जहां महात्मा गांधी ने अपने आखिरी दिन गुजारे और जहां एक सिरफिरे की गोली ने उनकी जान ले ली? जब बाहर से कोई आता है तो उसे राजघाट क्यों ले जाया जाता है, बिड़ला भवन क्यों नहीं? अपनी किताब में इस सवाल का जवाब भी वे देते हैं। उनके मुताबिक आधुनिक भारत में राजघाट शांति का ऐसा प्रतीक है जो हमारे लिए अतीत से किसी मुठभेड़ का जरिया नहीं बनता, जबकि बिड़ला भवन हमें अपनी आजादी की लड़ाई के उस इतिहास से आंख मिलाने को मजबूर करता है जिसमें गांधी की हत्या भी शामिल है- यह प्रश्न भी शामिल है कि आखिर गांधी की हत्या क्यों हुई?
गांधी की हत्या की एक बड़ी वजह है- धर्म का नाम लेने वाली वह सांप्रदायिकता, जो उनसे डरती थी। राष्ट्रभक्ति की जड़ मूर्ति बनाने वाली, राष्ट्र को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली विचारधारा उनसे परेशान रहती थी। गोडसे ऐसी ही वैचारिकी की कुंठा का प्रतीक पुरुष था जिसने धर्मनिरपेक्ष नेहरू या सांप्रदायिक जिन्ना को नहीं, धार्मिक गांधी को गोली मारी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, दिल्ली के नवभारत टाइम्स और जनसत्ता में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं