नरेंद्र नीरव
जमीन पर जब खून गिरा हो तब स्याही का क्या वास्ता?
2 जून 1991 को जब डाला में निजीकरण का विरोध कर रहे श्रमिकों पर पुलिस ने गोलियां चलायीं तब नौ लोग शहीद हुए। छात्र राकेश तिवारी, कवि रामप्यारे विधि, शैलेंद्र राय, नरेश राम, दीना नाथ, रामधारी, बालगोविंद, सुरेंद्र द्विवेदी, नंदलाल गुप्त।
एक नारा हर साल 2 जून को गूंजता है- डाला तेरा यह बलिदान, याद करेगा हिंदुस्तान!
17 जुलाई 2019 को सोनभद्र की घोरावल तहसील के उंभा गांव में हुए नरसंहार में मृतक हैं रामचंद्र, राजेश गोंड़, अशोक, रामधारी, प्रभावती, दुर्गावती, रामसुंदर, जवाहिर, सुखवंती, जवाहर गोंड। ये सभी गोंड़ आदिवासी हैं। इन्हें शहीद नहीं कहा जायेगा क्योंकि इनकी निर्मम हत्या जमीन के विवाद में की गयी। फिर भी इस नरसंहार के बाद यदि वहां स्थायी शांति हो जाती है तो इनकी आने वाली पीढ़ियां गर्व से कहेंगी- ‘मोर दद्दा ई जमीन बदे आपन जान दिहल रहेन!’।
हमलावर भरौतिया (भूरतिया, भोरतिया) जाति से हैं। सोनभद्र में भरौतिया रेणुकापार के गांवों सुदूरवर्ती सागरदह, निदहरी, निदहरा भी में रहते हैं। ये भी वनवासी हैं। कठिन परिश्रमी, खेती, पशुपालन पर स्व-निर्भर हैं। यह एक तथ्य है कि विंध्य क्षेत्र के अन्य वनवासी सांवले, गेहुंए रंग के होते हैं जबकि भरौतिया गोरे रंग के होते हैं। इनका कद लंबा, आंखें अक्सर नीली और नाक-नक्श तीखे होते हैं। ओबरा में कई भरौतिया पनीर और कभी-कभी सब्जियां बेचते हैं। भरौतिया स्त्रियां पहले माठी (गीलट की चूड़ियां पूरे हाथ में) पहनती थीं। गोदना भी इनके श्रृंगार का हिस्सा है। पुरुष कान में लुरकी पहनते हैं और स्त्रियां नाक में बुल्ला पहनती हैं।
मैने इनके विषय में अध्ययन किया तो पता चला कि धर्म-परिवर्तन नहीं करने के कारण भरौतिया को अतीत में विधर्मियों से जूझना पड़ा। सैकड़ों साल पहले वे पश्चिम-उत्तर से आकर यहां बस गये। यहीं के वनवासी हो गये। मुझे हैरानी है कि भरौतिया इतने निर्मम कैसे हो सकते हैं? यह नरसहार षडयंत्र और आपराधिक संरक्षण से ही संभव है। कल्पना कीजिये कि यदि यह भूमि विवाद भरौतिया के बजाय किसी सवर्ण से होता तो यह घटना क्या स्वरूप धारण करती?
यहां जानना चाहता हूं कि भरौतिया को गूजर या यादव कहना क्या उचित है? भरौतिया सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर जागरूक हैं। इस नरसंहार को रोका जा सकता था। एक भी नेता, सामाजिक-कार्यकर्ता या प्रशासनिक-अफसर यदि संवेदनशील होता तो बैठकर सहमति बना सकता था। प्रशासन की निष्ठुर टालू नीति और स्वार्थवृत्ति ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की परिस्थिति पैदा होने दी। सौ फीसदी सही रहने पर भी मुश्किलें आ सकती हैं, हिंसा के माहौल से मन उचट सकता है। फिर भी, आदिवासी स्वभाव से सरल, आदर्शोन्मुख और कानून के प्रति आदरभाव रखते हैं। उन्हें पर्याप्त समय दे कर, उनसे वार्ता करके कुछ भी करा सकते हैं। हमें अफसोस है कि मौजूदा दौर में कलक्टर-कप्तान उत्सवों में ही अपनी खुशी ढूंढ लेते हैं।
अनेक ब्रिटिश और भारतीय अफसरों ने आदिवासी अंचलों में यात्राएं करके आदिवासियों की संस्कृति, इतिहास, कला-साहित्य का अध्ययन किया, नयी खोज की, नये उदाहरण दिये, मुश्किल समस्याओं का समाधान और सेवा कार्य भी किया। हांलांकि भारत में आदिवासियों के प्रति दमनकारी, प्रतिषेधात्मक क्रूरता, समतल जमीनों से उजाड़ कर पहाड़ पर धकेलने का भी काला-रास्ता ब्रिटिश ने ही बनाया। आदिवासी स्वभाव से अर्धसैनिक होते हैं। वे तीर-धनुष,टागी, गुलेल, लाठी आदि रखते हैं। कुछ साल पहले तक भरुई बंदूकें काफी आदिवासी रखते थे जिसमें बारूद भरके एकबार चलाया जा सकता था। यह जंगली जानवरों से रक्षा के लिये था।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरदार अमर सिंह ओबरा में रहते थे। हम उनसे 1974 में परिचित हुए जब वे राबर्ट्सगंज में लगभग 200 हथियारबंद आदिवासियों के साथ उनके लाइसेंस बनवाने जा रहे थे। ये भरुई बंदूकें थीं। अमर सिंह ने बताया कि तहसील में पांच रूपये में लाइसेंस नया हो जाता है, अंग्रेज नियम बना गये हैं। अमर सिंह मुझे मानते थे। आदिवासी उनकी बात मानते थे। ओबरा में उन्होंने बताया और मैंने भी आज तक कभी भी भरुई बंदूक से किसी इंसान को चोट पहुंचाने की खबर नहीं सुनी।
उंभा में तो आधुनिक बंदूकों का इस्तेमाल हुआ। इसका मतलब है कि कुछ शातिर लोग हिंसा चाह रहे थे। आज मैं साथी प्रेमनाथ चौबे को गहरी संवेदना के साथ याद कर रहा हूं। वे जिला वनवासी पंचायत के महामंत्री, मैं संयोजक था। क्रमश: ग्रामवासी जी, राम दुलारे चौबै, हरिशंकर सिंह, प्रेम गवहां, रामदेव गोंड़, रामप्रसाद खरवार आदि अध्यक्ष हुए। ऐसे अनेक अवसर आये जब जमींन का विवाद हिंसक मोड़ तक पहुंच गया। हमने काफी समय देकर, हिम्मत से बार-बार पंचायत कराया। परिणामस्वरूप लचीलेपन के साथ सहमति बनायी। कुछ जगहों पर तो कफन भी झोले में लेकर सहमति हेतु गये। लेकिन जब निजी स्वार्ध नहीं होता तब बात असर करती है। पक्षकार ही नहीं, प्रशासन भी बात मानता है।
यह हैरानी की बात है कि जो जमीन 1955 से विवादित है उसका बंदोबस्त बृहद् सर्वे बंदोबस्त कार्यक्रम में क्यों नहीं किया गया? कब्जे के आधार पर गोंड आदिवासियों को स्वामित्व के परचे देने चाहिये थे। 1986 में हुए सर्वे बंदोबस्त की सफलता का अनुमान इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि सोनभद्र की लगभग 11 लाख हेक्टेयर जमीन में से वन और वनवासियों की लगभग एक लाख हेक्टेयर जमीन गुम हो गयी, चिड़िया की तरह उड़ गयी। कहां गयी यह जमीन? जाहिर है, गड़बड़ी हुई।
हम 15 साल से सुनते रहे हैं कि घोरावल क्षेत्र में जमीन फ्री मिल रही है। यह भी कि कंपनियां जंगल की जमीन के बदले घोरावल क्षेत्र में जमीन खरीद कर पौधे लगा रही हैं। मेरे जिले में कुछ उद्योगपति ही जमींदार भी बनना चाहते हैं। ऐसी ही एक बड़ी कंपनी को जमीन का लोभ ले डूबा। उन्हें सीमेंट फैक्ट्री बेच कर जाना पड़ा।
उंभा की दु:खद घटना के बारे में सोचते हुए मन विचलित हो जाता है। इस तरह का आक्रमण और नरसंहार सोनभद्र में पहले कभी नहीं हुआ। क्यों हुईं ये निर्मम हत्याएं? इस तरह 32 ट्रैक्टरों पर हथियारों से लैस होकर आक्रमण करना क्या संकेत करता है?
इस मामले का शीघ्र और स्थायी समाधान किया जाए। पुन: रक्तरंजित संघर्ष की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। कुलडोमरी क्षेत्र में भी अभी तक सर्वे बंदोबस्त नहीं हुआ है। गंभीर विसंगतियां हैं। वहां प्रशासन प्रभावी कदम उठा कर न्यायसंगत समाधान करे।
हमें याद आते हैं साथी तीरथराज, देवेंद्र शास्त्री, जेसी, विमल सिंह, विष्णुदास अग्रवाल, पं. सुदामा पाठक ‘बाबाजी’, सुधाकर मिश्र आदि साथियों के साहसिक प्रयास, जिससे अनेक संघर्षों को सहमति में बदल सके क्योंकि हम न्याय और सत्य से लैस रहे हैं। हमारा कोई स्वार्थ नहीं है, सभी पक्ष यह जानते हैं। सामाजिक-कार्यकर्ता मधु कोहली, महेशानंद भाई और श्यामकिशोर जायसवाल सरीखे प्रतिबद्ध लोग सदैव सक्रिय रहते हैं। इन्होंने बुनियादी सवालों पर आम राय से समाधान निकालने के उल्लेखनीय रचनात्मक प्रयास किये हैं।
हर साल सावन आते ही जमीनों के विवाद अंखुआने लगते हैं। ये विवाद न्याय के नाम पर अन्याय के कारण पैदा हुए हैं। अब तो प्रेम भाई भी नहीं हैं जो सुप्रीम कोर्ट जाकर पैरवी करेंगे। जंगल पर कब्जा कराने का रिकार्ड बन सकता है लेकिन जमीन का रिकार्ड दुरुस्त नहीं हो सकता क्योंकि दरम्यान में कोई नहीं है, हम भी नहीं।
उंभा के मृतकों को अवसादपूर्ण शोकांजलि! न्याय की अपेक्षा है ताकि आगे आदिवासियों के साथ ऐसा कभी न हो। उन्हें अपनी जमीन, जंगल, पशुपालन की पुरानी परंपरा के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक जीने की आजादी निर्बाध चाहिए।
चीखो-कराहों से भरे दिन रैन, बंद होते बैन मुंदते नैन
जीने की इच्छा ले गयी उस ठांव, वापस जहां से नहीं लौटा गांव
नरेंद्र नीरव सोनभद्र अंचल के मूर्धन्य पत्रकार और साहित्यकार हैं। यह कहानी उनकी फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है।