भूटान के प्रमुख बुद्धिजीवी और जाने माने ब्लॉगर वांग्चा सांगे लगातार भारत-भूटान-चीन संबंधों पर लिखते रहे हैं। डोकलाम की घटना के बाद उनके लेखन को भारत तथा अन्य देशों में काफी पढ़ा गया और उन लेखों पर बहसें भी हुईं। हमें डोकलाम के मुद्दे पर भारत और चीन के अखबारों के जरिए वहां के राजनीतिक नेताओं के विचारों की जानकारी मिलती रही है लेकिन खुद भूटान का जनमानस इस पर क्या सोचता है इसे हम बिलकुल नहीं जानते। इसी को ध्यान में रखकर हम यहां उनकी यह टिप्पणी प्रकाशित कर रहे हैं जो उन्होंने 8 अक्टूबर को अपने ब्लॉग पर लिखी थी। इसका अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा ने किया है।
(संपादक)
भारतीय विदेश सचिव जयशंकर और भारत में अमेरिका के कार्यवाहक राजदूत मेरीके लॉस कार्लसन ने अक्तूबर के पहले सप्ताह में संयुक्त रूप से भूटान की यात्रा की। भूटान के सरकारी अखबार ‘कुंसेल’ ने भूटान नरेश के साथ विदेश सचिव जयशंकर की तस्वीर छापी है लेकिन इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है कि उनकी यात्रा का मकसद क्या था। जयशंकर ने भूटान नरेश के अलावा यहां के प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री से भी बातचीत की। जहां तक अमेरिकी कार्यवाहक राजदूत की यात्रा का सवाल है, भूटान ने इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है।
इन दोनों लोगों की संयुक्त यात्रा के पीछे अनेक कारण होंगे। लेकिन हम अनुमान लगा सकते हैं कि इसका मुख्य कारण चीन को घेरना होगा। इसका अर्थ विदेशी मामलों के संदर्भ में भूटान की आजादी में कटौती करना और इसकी आंतरिक नीतियों और प्रशासन को सीमित करना है।
भारत एक विशाल जनतांत्रिक देश है और इसलिए भारतीय मीडिया में विदेश सचिव जयशंकर और उनके साथ ही विदेश मंत्रालय में भूटान और नेपाल मामलों के प्रभारी संयुक्त सचिव की यात्रा के बारे में खबरें दिखाई दीं। इन खबरों से यह जानकारी नहीं मिलती है कि भूटान के शीर्ष नेताओं के साथ इन दोनों महानुभावों की किस विषय पर बातचीत हुई। यहां हम भूटानवासी केवल अनुमान लगा सकते हैं कि अमेरिका और भारत भूटान से क्या चाहते हैं और अपनी इस चाहत के एवज में उन्होंने भूटान को क्या देने का वायदा किया होगा। मैं समझता हूं कि भारत की ओर से वही पुरानी ‘पुचकार और फटकार’ की नीति अपनाई गई होगी। अमेरिकी कार्यवाहक राजदूत की यात्रा के बारे में मुझे तब तक जानकारी नहीं मिली जब तक मैंने भारत के अखबारों को नहीं देखा और जब तक मेरी निगाहों से राजदूत द्वारा किया गया ट्वीट नहीं गुजरा। मैं समझ सकता हूं कि अमेरिका ने अपना पुराना ‘बिल्ली और चूहे’ वाला खेल यहां भी दोहराया होगा। उसका प्रस्ताव वही रहा होगा जो तमाम छोटे और कमजोर देशों के सामने उन्हें अपना राजनीतिक खिलौना समझते हुए अमेरिका अब तक देता रहा है।
भारत ने जरूर कर्ज की राशि में कुछ राहत देने की बात कही होगी। उसने हाइड्रो पॉवर समझौतों की शर्तों को बेहतर बनाने का लालच दिया होगा, बिजली की बिक्री मूल्य में कुछ सुधार किया होगा और नोटबंदी के बाद रॉयल मानिटरी अथॉरिटी (आरएमए) के खजाने में पड़े पुरानी भारतीय करेंसी को बदलने के मामले में कुछ रियायत दी होगी। बेशक, इस बात की गारंटी तो दी ही होगी कि अभी जो सबसे ज्यादा आज्ञाकारी राजनीतिक पार्टी है वह 2018 तक आराम से शासन कर सके। इसके साथ ही भूटान की राजशाही के प्रति आने वाले दिनों में भी सम्मान बनाए रखने का आश्वासन दिया होगा। इस आश्वासन का स्वरूप वैसा ही होगा जैसा भारत के आर्मी कमांडिंग जनरल ने अपने फेसबुक पर भूटान की यात्रा के बाद लिखा – ‘शासकों को शासन करने में मदद।’ उन्होंने यह उक्ति भूटान नरेश की फोटो के साथ अपने फेसबुक पर लगाई। इस बयान को उन्होंने खुद नहीं लिखा बल्कि किसी दूसरे की फेसबुक वाल से लेकर अपनी वाल पर चिपका दिया।
चीन को नीचा दिखा कर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने के लिए अमेरिका और भारत जिस ढिठाई और बर्बरता के साथ हमारे इस छोटे और कमजोर राज्य को निचोड़ने में लगे हैं, वह राजनीतिक तौर पर अत्यंत वीभत्स रूप में हमारे सामने आ रहा है। अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए ये लोग भूटान का गला घोंटने पर आमादा हैं। चीन को नीचा दिखाने के काम में भूटान उनके लिए बस एक मोहरा है। वे इस बात की परवाह नहीं कर रहे हैं कि इसका असर भूटान और उसकी जनता पर क्या पड़ेगा। उनके लिए यह अपनी राष्ट्रीय सुविधा को ध्यान में रखते हुए ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ वाली नीति के तहत आता है। मैं केवल अपने देवी-देवताओं और बुद्धिमान नेताओं से यह प्रार्थना ही कर सकता हूं कि उनके अंदर वह क्षमता पैदा हो जिससे वे राजनीतिक तौर पर बांह मरोड़ने की ऐसी हरकतों का विरोध कर सकें और अपनी सत्ता को सुरक्षित बनाए रखने के लालच से अपने को बचा सकें। तीसरी दुनिया के देशों के अनेक भ्रष्ट नेताओं की इस कमजोरी का फायदा हमेशा से मजबूत देशों ने उठाया है। देखा जाय तो इन सबके बावजूद इन कमजोर देशों के अधिकांश नेताओं को इन चीजों से सत्ता और वैभव की कोई गारंटी नहीं हासिल हो सकी है।
भारत को इस समय अमेरिका और अमेरिका के पिछलग्गू जापान का भरपूर समर्थन प्राप्त है। शायद भारत चाहता है कि चीन से भूटान यह कहे कि ‘जब तक चीन और भूटान के बीच डोकलाम का मसला बना हुआ है, सीमा के बारे में चीन के साथ भूटान बगैर भारतीय प्रतिनिधि को शामिल किए कोई भी द्विपक्षीय वार्ता न करे।’ इस आशय की खबरें भारतीय समाचार माध्यमों में देखने को मिलती हैं। यह एक बहुत ही हास्यास्पद और निरर्थक प्रस्ताव है। क्या भारत ने कभी चीन पर इस बात के लिए दबाव डाला कि डोकलाम के ट्राई जंक्शन में अंतर्राष्ट्रीय सीमा का जिस समय भारत और चीन निर्धारण कर रहे थे उस समय भूटान को भी इसमें शामिल किया जाए?
इस वर्ष चीन के साथ भूटान की सीमा-वार्ता का 25वां दौर शुरू होना है। हो सकता है कि भूटान को भारत यह निर्देश दे कि इस बातचीत को तब तक टाल दिया जाय जब तक भारत की शर्तें पूरी नहीं हो जातीं। चीन कभी भी भूटान-चीन सीमा समझौते की शर्तें भारत से तय करने के लिए तैयार नहीं होगा। मेरा मानना है कि भारत और अमेरिका की इस दादागिरी को भूटान को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करना चाहिए।
ऐसी स्थिति में भविष्य में क्या हो सकता है, इसका हम भूटानवासी महज अनुमान लगा सकते हैंः
- हो सकता है भूटान-चीन सीमा वार्ता के 25वें दौर के लिए चीन को भूटान आमंत्रित न करे और कोई सीमा समझौता संपन्न न हो। ऐसा करके भूटान एक बार फिर भारत और उसके नेताओं के सामने राजनीतिक तौर पर अपनी अधीनस्थ हैसियत की पुष्टि करेगा। पहले भी भूटान ने भारत के कहने पर दक्षिणी भूटान राजमार्ग निर्माण के कार्यक्रम को रद्द किया है और बीबीआइएन (बांग्लादेश, भूटान, इंडिया, नेपाल प्रोजेक्ट) पर हस्ताक्षर किया है। भावी आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए भारतीय अधिकारियों से कुछ ऐसे राजनीतिक फैसले का अनुरोध किया जा सकता है जिसका असर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में जाए।
- चीन को इस बात का अच्छी तरह एहसास हो जाएगा कि चीन के प्रति भारत की शत्राुतापूर्ण नीति का साथ अंततः भूटान के नेता भी देंगे। इस वर्ष भूटान की सीमा का इस्तेमाल करते हुए भारत ने चीन का अतिक्रमण किया। चीन अब इस बात की इजाजत नहीं देगा कि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति हो।
- इसे ध्यान में रखते हुए समूची भूटान-चीन सीमा पर चीन अपनी रक्षात्मक स्थिति को मजबूत बनाने में लग जाएगा। अब तक इसकी जो अस्थायी सैनिक चौकियां थीं उन्हें स्थायी रूप दे दिया जाएगा और जिन इलाकों में उसकी सेना कभी-कभार गश्त लगाती थी वहां उसकी अब निरंतर मौजूदगी बनी रहेगी। चीन इस बात की हर सावधानी बरतेगा कि भूटान की सीमा से दुबारा भारतीय सेना का अतिक्रमण न हो जैसा डोकलाम में हुआ।
- भारत चाहता है कि उसकी माउण्टेन ब्रिगेड भूटान की ‘हा घाटी’ में बनी रहे और अगर भूटान के अधिकारियों ने उसके इस प्रस्ताव को दृढ़ता के साथ ठुकरा दिया तो हो सकता है कि हमें कुछ गंभीर दुष्परिणाम झेलने पड़ें। वैसी हालत में पश्चिम के हमारे इलाके बहुत मुसीबत में पड़ सकते हैं। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ऐसी आशंका की झलक भारतीय मीडिया में देखने को मिली है।
- इस तरह की खबरें सरकारी स्रोतों से ही बाहर आती हैं। इन खबरों से जनता के बीच एक अफवाह फैलती है जिससे चीन और भूटान के संबंधों में दरार पैदा हो सके। चीन के साथ भूटान की जितनी ही दूरी बढ़ेगी, स्वाभाविक तौर पर उसका लाभ भारत को भूटान को अपने नियंत्राण में लेने में होगा। भूटान और भारत के बीच 2007 में जिस नए रूप में पुरानी संधि संपन्न हुई उसके शब्दों में भले ही व्यावहारिक तौर पर कोई हेर-फेर न किया जा सके, लेकिन उसे एक निरर्थक दस्तावेज का रूप तो दिया ही जा सकता है। भारत के राजनीतिक नेताओं और सेना के जनरलों ने पहले ही दावा किया है कि 1949 की भूटान-भारत संधि का जो संशोधित रूप 2007 में आया उसने भी भूटान को भारत का एक संरक्षित राज्य ही रहने दिया और इस प्रकार भारतीय सेना के पास यह अधिकार है कि वह बगैर भूटान से पूछे उसकी सीमा में प्रवेश कर सके और ऐसा ही उसने डोकलाम में किया। ऐसी स्थिति में चीन के खिलाफ आगे भी भारत भूटानी सीमा का इस्तेमाल कर सकता है।
- भारत और अमेरिका दोनों को पता है कि भूटान-चीन सीमा समझौते में चीन कभी भारत के शामिल होने पर सहमत नहीं होगा। इस तरह की शर्त रखने का एकमात्रा उद्देश्य यह है कि भूटान पूरी तरह भारत के प्रभुत्व के अधीन रहे। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत और अमेरिका इस बात की हर कोशिश करेंगे कि भूटान हमेशा के लिए भारत का ‘संरक्षित राज्य’ बना रहे।
जनता के स्तर पर भूटान के पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि किस तरह भारत से उठा राजनीतिक तूफान इस देश को प्रभावित कर रहा है। अगर भूटान इस वर्ष चीन के साथ सीमा वार्ता आयोजित करने से इनकार करता है तो यह निश्चित तौर पर भूटान के भविष्य के लिए एक खतरे का संकेत होगा।