प्रशांत टंडन
अमित शाह कह रहे हैं कि बीजेपी आने वाले पचास साल तक सत्ता में रहेगी. अगर ये जुमला नहीं है तो इसके पीछे कोई रोडमैप ज़रूर होगा वर्ना इतना बड़ा दावा कौन कर सकता है.
इस दावे के पीछे अगर सामाजिक परिवर्तन, जो आने वाली राजनीति को प्रभावित करते हैं उसे थोड़ी देर के लिए किनारे रख भी दें तो पचास साल में कम से कम दो नई पीढ़ी को बीजेपी के नेतृत्व में आना पड़ेगा. नेतृत्व की अगली पीढ़ी अपने पहले की पीढ़ी की ज़मीन पर ही खड़ी होती है.
इसी को अगर बीजेपी के सदर्भ में देखे तो अटल, अडवाणी और जोशी ने एक मजबूत दूसरी कतार खड़ी की थी जिसमे प्रमोद महाजन, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, गोपी नाथ मुंडे, उमा भारती, येदियुरप्पा, अनंत कुमार, यशवंत सिन्हा जैसे लोगो की लंबी फेहरिस्त है. गुजरात के मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद नरेंद्र मोदी को भी इस लिस्ट में शामिल माना जा सकता है – हालांकि बीजेपी के अंदर उनका कद 2004 में अडवाणी की मदद से ही बढ़ा और वो वहां पहुँच पाये जहां अभी हैं. बीजेपी की संस्थापकों की पीढ़ी की एक बात पर तारीफ करनी होगी कि उन्होने अगली पीढ़ी को आगे बढ़ाया, उन्हे आज़ादी दी और समाज के एक बड़े दायरे को प्रतिनिधित्व भी दिया. यही कारण रहा कि कांग्रेस के खाली किये गए राजनीतिक धरातल में बीजेपी ने आसानी से पैठ बना ली.
अमित शाह जब बीजेपी के पचास साल सत्ता में रहने की बात कर रहे हैं तो ज़ाहिर है वो मोदी और अपने को एक समय के बाद अलग कर के ही सोच रहे होंगे. अब सवाल उठता है कि क्या मोदी और अमित शाह भी अगली पीढ़ी को उसी तरह तैयार कर रहे हैं जैसे अटल, अडवाणी और जोशी ने किया था. इस बात के पुख्ता सुबूत दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं. बल्कि इसके उलटे पार्टी में आगे बढ़ाने के रास्ते लगभग बंद हैं. किसी मंत्री को अपने ही मंत्रालय के विज्ञापन में अपना फोटो लगाने की मनाही है. पार्लियामेंट्री बोर्ट और पार्टी के अंदर तमाम फोरम निष्क्रिय हैं. उपर से फरमान आते हैं और बाकी सबको आँख बंद कर के उनका पालन करना होता है. स्थिति ये है कि आज कोई दावे से नहीं कहा सकता है कि बीजेपी में दूसरे और तीसरे नंबर के नेता कौन हैं. ये व्यवस्था अगले पचास साल के लिये नई खेप कैसे तैयार करेगी.
पचास की जगह अगर इसे अगले दस साल के स्केल पर ही देखे तो इस दावे में कई छेद दिखाई देते हैं. पहला दुर्ग तो अगले साल ही जिसे भेद पाना बीजेपी के मुश्किल दिख रहा है. मुद्दे, मोदी सरकार के काम काज, वादों और अमल का लंबा फासला तो अपना काम करेंगे ही पर चुनावी गणित और विपक्षी एकता एक बड़ा पहाड़ है जिसे बीजेपी को लांघना है.
साठ–नब्बे फार्मूला
2014 के चुनाव में बीजेपी + सहयोगी दलों को 60 फीसद भारत में 90 फीसद सीटे आ गयी थी. 60-90 की ये थ्योरी बिजनेस स्टैंडर्ड के कॉलम में प्रवीण चक्रवर्ती ने दी थी – उनके मुताबिक 19 बड़े राज्यों में से 11 में बीजीपी + सहयोगी दलों को 90 फीसद सीटों में जीत हासिल हुई थी. बीजेपी + सहयोगी दलों को मिली कुल 282 सीटों में 232 उत्तर और पश्चिम भारत के इन 11 राज्यों से आई थीं. यानि हिन्दी पट्टी के बाहर बीजेपी आज भी जनाधार नहीं बना पाई है. इन 11 राज्यों में बीजेपी अगर अच्छा प्रदर्शन भी करे तो वो 50 फीसद सीटें ला सकती और बाकी पचास में दूसरे दल. विपक्षी एकता को देखते हुये बीजेपी के लिए ये बड़ी चुनौती है.
अगली पीढ़ी आयेगी कहां से
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोक दल, डीएमके में अगली पीढ़ी केवल आ ही नहीं गई है बल्कि पार्टी के भीतर और बाहर इन्हे स्वीकार्यता भी मिल गई है. इसके अलावा इस नए नेतृत्व के पीछे भी युवा नेताओं की एक कतार दिख रही है. आज से दस साल बाद 45 और 60 की उम्र के बीच राजनीति में कौन होंगे इसका अनुमान लगायें तो इसमे राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, जयंत चौधरी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, अरविंद केजरीवाल वगेहरा दिखाई देंगे. इनके अलावा छात्र राजनीति और आंदोलन से निकले जिग्नेश मेवाणी और कन्हैया कुमार जैसे भी कई होंगे जो आज से दस साल बाद राष्ट्रीय राजनीति में सक्रीय होंगे. इनके मुक़ाबले बीजेपी आज के किन नेताओं को तैयार कर रही है साफ नहीं है.
टीवी में डिबेट करने वाले प्रवक्ताओं और ट्विटर चलाने वालों के सहारे पचास साल की राष्ट्रीय राजनीति का रोडमैप नहीं तैयार होता है.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं