हरेराम मिश्रा
गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के तत्काल बाद समाजवादी पार्टी के कई कार्यकर्ताओं और जिला स्तर के नेताओं ने चुनाव में विजयी ’यादव’
प्रत्याशियों को जीत की बधाई दी। सोशल मीडिया पर सक्रिय ’यादव’ युवाओं की इस टीम नेे पांच विजयी प्रत्याशियों की तस्वीरें शेयर करवायीं और ’गुजरात में विजयी यादव विधायकों को बधाई’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए। गौरतलब है कि इस बधाई संदेश के साथ शेयर करवाए गए लोगों में एक तस्वीर भाजपा के विजयी प्रत्याशी की थी और चार अन्य कांग्रेस से थे। ऐसा नहीं है कि गुजरात चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग में केवल यही तीन प्रत्याशी ही विजयी हुए थे, लेकिन तस्वीर और विजय की बधाई देने के लिए केवल इन्हीं चार चेहरों को चुना गया जो कि अखिलेश यादव के जमीनी सिपाहियों के मुताबिक कथित रूप से यादव जाति से थे।
किसी राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा ’जाति’ के आधार पर किसी अन्य दल के विजयी प्रत्याशियों को ’चयनात्मक’ रूप से चुनावी जीत की बधाई
दिए जाने के अपने मतलब हैं। क्या यह सपा के राजनैतिक प्रशिक्षण का ’संकट’ है या फिर एक खास राजनैतिक मकसद के तहत ’यादव’ अस्मिता को नए सिरे से पारिभाषित करने और उभारने का राजनैतिक प्रयास? बात चाहे जो भी हो- एक बात साफ हो जाती है कि यह दोनों ही बातें हिन्दुत्व की मददगार हैं और आने वाला समय अखिलेश यादव के लिए बहुत आसान नहीं है। वैसे ये दोनों ही संकटग्रस्त समाजवादी पार्टी को कुछ खास ’उपलब्धि’ नहीं दे पाएंगे।
दरअसल पूरे दल को चुनावी जीत की बधाई देना एक राजनैतिक शिष्टाचार है और इस पर कोई बहस नहीं होती है। लेकिन अखिलेश यादव के सोशल मीडिया पर सक्रिय कारकूनों द्वारा जिस चयनात्मकता का उपयोग किया गया वह एक खास रणनीति का हिस्सा है। क्या यह मान लिया जाए कि जब उत्तर प्रदेश की अठहत्तर ओबीसी गैर यादव जातियों पर भाजपा तकरीबन कब्जा कर चुकी हो तब जातिगत ’यादव’ अस्मिता को धार देकर महज नौ फीसदी ओबीसी यादवों को सपाई पाले में रखने की कोशिश हो रही है?
गौरतलब है कि अखिलेश यादव गुजरात में विधानसभा चुनाव लड़ने गए थे और इसके पीछे की वजह राजनैतिक कम रणनैतिक ज्यादा थी। समाजवादी पार्टी के वहां चुनाव लड़ने का मुख्य कारण नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा बचाना था। अखिलेश यादव के लाख प्रयास के बावजूद भी राहुल गांधी का उभार गुजरात में रोका नहीं जा सका और कांग्रेस भाजपा से इतर एक विकल्प के तौर पर उभरी। अब जबकि अखिलेश यादव के पास गैर यादव वोट बैंक का संकट सामने आ गया है तब जाहिर है कि केन्द्र में सपा की ’बार्गेनिंग’ पावर भी बहुत कमजोर हो जाएगी। ऐसे दौर में यादवों को सपा से जोड़कर रखने की चुनौती सामने है क्योंकि इसी के बहाने मुसलमानों का इस्तेमाल करने की कोशिश की जाएगी।
दरअसल अखिलेश यादव के जमीनी नेताओं की इस ’चयनात्मक’ बधाई का सीधा मतलब यही है कि समाजवादी पार्टी में वैचारिक स्तर पर भाजपा से कोई खास अंतर नहीं है। जैसे समाजवादी पार्टी यह संदेश दे रही हो कि यादव बंधुओं को भाजपा में शिफ्ट होने की जगह समाजवादी पार्टी पर भरोसा बनाए रखना चाहिए क्योंकि वे भी ठीक भाजपा जैसा ही सांप्रदायिक और फासीवादी भारत बना सकते हैं। अखिलेश की विकासवादी छवि के फुस्स होने बाद, केवल जाति की चेतना के सहारे सपा फिर से खड़ी नहीं हो सकती। यही नहीं, इस रास्ते से फासीवाद के भयानक दौर में सपा कुछ खास कर पाएगी- ऐसी कोई संभावना नहीं है।
यही नहीं, यह घटनाक्रम बताता है कि समाजवादी पार्टी वर्तमान समय में घोर वैचारिक संकट से जूझ रही है। राम मनोहर लोहिया की विरासत के यह कथित वारिस आज जिस संकट से जूझ रहे हैं वहां जाति को स्थापित करने से इतर वजूद के संकट से निपटने का कोई रास्ता ही नहीं दिख रहा है। पहले अखिलेश का विकासवादी छवि बनाने का असफल प्रयास करना, फिर हिन्दुत्व के ’जाल’ को मजबूत करने के संघी मिशन में साथ खड़े हो जाने से साफ हो जाता हैै कि सपा के पास अभी कोई साफ राजनैतिक ’लाइन’ नहीं है। समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव ’युग’ शुरू होने के बाद जिस बेशर्मी से ’जातिवाद’ का नंगा नृत्य किया जा रहा है उससे भी कई सवाल पैदा होते हैं। इन सवालों का विवेचन खुद ओबीसी की गैर यादव जातियों के लिए भी बहुत जरूरी है।
दरअसल, अन्य पिछड़ा वर्ग के नौ प्रतिशत यादव अठहत्तर गैर यादव ओबीसी जातियों का हिस्सा खा जाएं और उन्हें केवल अस्मिता की राजनीति में फंसाए रखें- यह ठीक नहीं है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति करने के नाम पर सत्ता में आयी समाजवादी पार्टी ने अपने पूरे चरित्र में यादव
जाति को छोड़कर ओबीसी संवर्ग की अन्य किसी जाति को राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर कभी भी आगे बढ़ने नहीं दिया। चाहे वह मुलायम सिंह यादव का दौर रहा हो या फिर वर्तमान समय में अखिलेश यादव का, अन्य यादव ओबीसी को केवल ’बेवकूफ’ बनाया गया। जब भी कभी जातिगत गोलबंदी की बात की जाती तब भी समीकरण सदैव यादव बनाम अन्य के नाम से जाना जाता है। जबकि उत्तर प्रदेश में ओबीसी कैटेगरी में यादव के अलावा कई अन्य जातियां भी हैं जिन्होंने समाजवादी कुनबे को पूरा समर्थन दिया है लेकिन सत्ता का लाभ उन्हें कभी नहीं दिया गया।
अब जबकि, संघ ने इन गैर यादव ओबीसी जातियों पर ध्यान केन्द्रित किया है तब अखिलेश यादव के पास इन्हें ’सपा’ से जोड़े रखने का कोई मजबूत आधार ही नहीं है। जब समूचा गैर यादव ओबीसी भाजपा के साथ चला गया हो तब यादव वोट बैंक को बचाने की मजबूरी में सपाई ’कट्टर’ यादव बन गए हैं। यह संघ के सामने अखिलेश यादव की हार है क्योंकि पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग पैंतालीस प्रतिशत है और इसमें यादव केवल नौ प्रतिशत हैं। बाकी अन्य 78 जातियां, जिन पर संघ कब्जा कर चुका है अखिलेश के पाले में आने को तैयार नहीं दिखतीं। ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी ने यह मान लिया है कि वह अभी गैर ओबीसी को अपने पाले में नहीं रख सकती इसलिए केवल ’यादव’ अस्मिता पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए। यही वजह है कि गुजरात गुजरात चुनाव में सपा के कारकून ’सेलेक्टिव’ बधाई दे रहे हैं और अपने वजूद की जंग लड़ रहे हैं।