व्यालोक
कल से काफी धूल बैठ चुकी है। इस क्षणजीवी समय में फटाफट फैसला सुनाने की आदत है, लेकिन कुछ लोगों को इंतजार भी करना होगा ताकि वे ओल्ड-फैशंड कहलाने का ख़तरा उठाते हुए भी स्थितियों और चीजों का ठहरकर, सम्यक मूल्याकंन कर सकें।
आज नेपोलियन की एक कथा याद आती है। वह एक बार अपने कार्यालय आया और उसने खूंटी पर अपना कोट टांगना चाहा। खूंटी उसके कद से थोड़ा ऊंची थी। उसके सहायक ने कहा, लाइए सर… मैं टांग देता हूं, आपसे लंबा हूं।’ नेपोलियन ने उसे मुड़कर देखा, मुस्कुराया और कहा- ‘हां, तुम मुझसे लंबे हो, पर ऊंचे नहीं हो।’ कहानी यह अधिक है, इतिहास कम। इतिहास कम इसलिए कि नेपोलियन यूरोप के हिसाब से भले नाटा हो, हमारे भारतीय संदर्भों में तो वह भी खासा लंबा आदमी था।
कथा की याद इसलिए आयी कि हमारा युग लगातार छीजते, लगातार बौने होते लोगों और समय का है। कुछ व्यक्ति अपने कद से भी ऊंचे हो जाते हैं। वह व्यक्ति मूल्यों के लगातार क्षरण वाले युग में भी उन मूल्यों के साथ नज़र आया, इसलिए उसका कद और बढ़ गया। उन्होंने कोई नए या ऐतिहासिक मूल्य नहीं बना दिए, एकमात्र सिफत उनकी यह रही कि अवमूल्यन वाले इस समय में जब सिद्धांतों और आदर्शों को क्लिशे मान लिया गया, उन्हें रुकावट की तरह समझा जाने लगा, तब भी वे उन सिद्धांतों के साथ खड़े रहे।
हमारे मन में हूक रहती होगी गांधी या सुभाष बनने की, पर हम बन पाते हैं नेहरू। उसके बाद इंदिरा गांधी तक की यात्रा होती है, जो भारतीय राजनीति में पतनकाल की सम्यक शुरुआत है। अटल परिस्थिति की निर्मिति अधिक थे, खुद की कम। लोहिया ने जिस गैर-कांग्रेसवाद की बुनियाद रखी, बलराज मधोक, नानाजी देशमुख, दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी इत्यादि ने जिस जनसंघ को कांग्रेस-विरोध के लिए प्रासंगिक बनाया, वह जनसंघ जब 1980 में टूटा और 1996 में भाजपा कई बैसाखियों के सहारे पहली बार सत्ता में आयी, अटल प्रधानमंत्री बने, तब तक गंगा औऱ यमुना में काफी पानी बहा था।
अटलजी महामानव नहीं थे, वह एक आम आदमी की कमजोरियों-खूबियों से लैस एक राजनेता भर थे, न इससे अधिक, न इससे कम। हां, वह सही वक्त पर सही जगह मौजूद जरूर थे। साथ ही, यह भी कि उन्होंने राजनीति की रपटीली राहों पर खुद को फिसलने तो दिया, काजल की कोठरी में एकाध दाग तो लगे, लेकिन वह गिरे नहीं, वह काजल में सने नहीं।
इस लेखक की पीढ़ी वाले जरा याद करें। किस दौर में भाजपा की राजनीति पूरे उरूज पर पहुंची, उसमें भी वाजपेयी कहां खड़े थे, क्यों वह मुखौटा बने, क्यों वह दूसरे दलों को भी पसंद रहे? 1984 में भारत की कमान अभूतपूर्व बहुमत के साथ एक नौसिखिए के हाथों में वंशवादी परंपरा के तहत सौंप दी गयी। राजीव गांधी इस कदर नौसिखिए थे कि उन्होंने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर मौलानाओं को खुश किया, तो उसके संभावित कुपरिणाम से बचने के लिए अयोध्या में ताला खुलवा दिया, शिलान्यास करवा दिया। इंदिरा गांधी को उनकी तानाशाही और एकछत्र राज करनेवाली प्रवृत्तियों ने पहले ही हल्का बना दिया था, हालांकि कम साक्षरता, सूचनाओं के कम प्रसार और अल्पज्ञ भारतीयों की वजह से इंदिरा कई वर्षों तक माई बनकर देश पर राज करती रहीं।
राजीव ने सारा कुछ डुबो दिया। उनके बाद का काल तो लगभग ढाई वर्षों की प्रसव पीड़ा ही थी इस देश के लिए, पूरी सियासत के लिए। बोफोर्स से राजीव की राजनीति बुझी, तो मंडल के जवाब में भाजपा ने रथयात्रा निकाल दी। सनद रहे कि रथयात्रा को नेतृत्व आडवाणी दे रहे थे, यह दीगर बात है कि बाबरी ढांचा टूटने के एक दिन पहले वाजपेयी ने कारसेवा के दौरान जमीन को समतल करने की बात कही थी। उस वीडियो में जब वह कहते हैं कि उन्हें पता नहीं कल क्या होगा, वह तो आदेशानुसार दिल्ली जा रहे हैं, तो उनके चेहरे की भंगिमा देखने लायक है।
वाजपेयी आदर्श नहीं थे, वह व्यवहार हैं। वह राम नहीं थे, वह कृष्ण थे। चाहना उनकी जो भी हो। उनका संपूर्ण जीवन और राजनीति इसी का द्वंद्व है। व्यवहार और सिद्धांत, राजनीति और राजनय (पॉलिटिक्स एंड स्टेट्समैनशिप) की दो चक्कियों के बीच पिसते एक मानव का संघर्ष है, राजनेता की कहानी है। वह राजधर्म निभाने की सलाह देते हैं, लेकिन जीवन के सांध्यकाल में गोवा अधिवेशन में यह भी कहते हैं कि गोधरा में हिंदू न मारे जाते, तो गुजरात का इतना बड़ा दंगा नहीं होता।
सनातनी हिंदू और संघ का व्रती होना उनका आदर्श रहा होगा, पर अच्छे खानपान का शौकीन होना व्यवहार रहा होगा। कांग्रेसमुक्त भारत उनका आदर्श रहा होगा, पर सभी दलों के नेताओं के साथ गलबंहियां देना, यारबाशी करना उनका व्यवहार था। वह अब हैं नहीं, वरना उनसे पूछा जाना चाहिए था कि भाजपा की वर्तमान बढ़त और धमक को देखकर वह कितने उदास हैं? इस लेखक को लगता है कि अटलजी इसका उत्तर शायद ही देते।
मानवीय विवशता अजीब है। आदर्श हमें लुभाते हैं, व्यवहार में कठिनाई होती है। हम रामराज्य की बात करते हैं, व्यवहार में अपनाना पड़े तो सारा भारतवर्ष सूना हो जाए। जीवन इसीलिए विरोधों का समंजन है, सामंजस्य का नाम है और व्यावहारिकता के नाम पर रोजाना आदर्शों का दम घोंटते जाने का जलवा है। बावजूद इसके, आदर्शों के प्रति हमारा अचेतन तो आकर्षित, बल्कि ‘आक्रांत’ रहता ही है। आक्रांत कहना ही सही होगा, क्योंकि जिनको अपनाने की हम में कुव्व्त नहीं होती, लेकिन आदर भरपूर होता है, उनसे हम शायद आक्रांत ही रहते हैं। आदर्शों के प्रति यह ललक ही शायद उस व्यक्ति को महामानव बना देते हैं, क्योंकि हम सब मिलकर उतना भी नहीं बचा पाए जितना उस व्यक्ति ने बचा लिया था।
कई बार व्यक्ति खुद के बड़प्पन से इतना बड़ा नहीं बनता, जितना दूसरों के छोटेपन से वह ऊंचा लगने और दिखने लगता है। भारत-रत्न अटल बिहारी के साथ यही बात थी। वह दरअसल उस दौर में उभरे, जब राजनीति में पिग्मी और बौने हो रहे थे। इन सबके बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तथाकथित अजातशत्रु को भी उनकी मौत के बाद सोशल मीडिया पर चौतरफा अभिशाप और गालियां तक मिल रही हैं। भारतीय परंपरा में मौत के बाद सबको माफ करने का चलन रहा है, वर्तमान पीढ़ी ने उसे भी नकार दिया है और ख़तरनाक बात तो यह है कि इसकी शुरुआत अटल जैसे कद्दावर नेता से हुई है। यह सोचकर ही रोमांच हो जाता है कि आज के विवादित, असम्मानित और आरोपित नेता जब मरेंगे, तो उनके साथ यह पीढ़ी क्या करेगी?
यही शायद पोएटिक जस्टिस है, यही शायद नियति का विधान है।
लेखक दक्षिणपंथ के प्रखर टिप्पणीकार हैं